रुदन

रुदन

1 min
462


दिन भर के

तामझाम के बाद

गहराती शाम में

निकल बाहर

अन्दर की भीड़ से

चला आता हूँ

खुली छत पर

थोड़ी हवा

थोड़ा आकाश

और थोड़ा एकान्त

पाने के लिए

निढाल मन

एक भारी-भरकम

वज़ूद को

भारहीन कर

खो जाता है


जाने किस शून्य में

अन्तरिक्ष के

कि वायु के उस

स्पन्दित गोले में

साफ़-साफ़ महसूस की

जाने वाली

कोई ठोस

रासायनिक

प्रतिक्रिया होती है

और अलस आँखों की

कोर से

बहने लगती है

एक नदी

ख़ामोशी से

डूबती-उतरती

करुणा में

देर तलक


भला हो अंधेरे का

कि बचा लेता है


एक पुरुष के स्याह

रुदन को

प्रकट उपहास से

समाज के ।


Rate this content
Log in