रात के तीसरे पहर
रात के तीसरे पहर
बरसों बाद
रात के तीसरे पहर
बन्द आँखों में नींद टूटी
ऐसा लगा
जैसे सीने के पास
मेरी पसलियों के नीचे
कुछ गड़ रहा है
कुछ चुभ रहा है
हाथ लगा के देखा
तो कुछ काग़ज़ सा महसूस हुआ
आँख खोलके देखा
तो कविता की एक पतली सी किताब
किसी महबूबा की तरह
मेरी पसलियों के नीचे दुबकी हुई थी
बरसों बाद
कल रात सोते हुए
कुछ कविताओं ने ज़िद की थी
कि "सोने से पहले पढ़ लो ना मुझे"
और बरसों बाद
मैं कुछ पढ़ते-पढ़ते कब सो गया
मुझे होश नहीं
फिर देखा...
जिस कविता पर आँख लगी थी
उसके पन्ने सिकुड़ गये थे
जैसे कविता ने किसी महबूबा की तरह
नाराज़गी से नाक-मुँह सिकोड़ लिया हो
बरसों बाद
रात के तीसरे पहर
जब नींद टूटी
तो किसी महबूबा की तरह
एक कविता को अपने सीने से लिपटा देखा
और मेरे चेहरे पे मुस्कुराहट आ गयी
फिर मैंने कविता की उस पतली सी किताब को
वहीँ सरका दिया
जहाँ सोने से पहले रखा था
और पढ़ते-पढ़ते सो गया था
बरसों बाद
जाने कब
एक किताब
किसी महबूबा की तरह
बेहोशी में
मेरे सीने से आकर लग गयी
मुझे भी सुला दिया
और ख़ुद भी सो गयी