आग और दाह
आग और दाह
पूस की ठंड में,
सूरज की नर्म धूप में
बीनता था वह लकड़ियां
बीत जाए रात,
आग की गरमाई से
हाथ सेंकते
पर चूल्हा ठंडा पड़ा था
और रो रही थी पतीलियाँ।
दिनोंदिन भूख से तड़प रहीं थीं
दो दिन से वह चूल्हे पर
चढ़ी नहीं थी।
आग तापते माँ देती थी
हँसी की थपकियाँ
सुना रही थी
सुनहरे दिनों की कहानियां,
आँख बच्चे की हँस रही थीं
पर पेट में ऐंठन पड़ी थी
सुनहरे दिनों का पता
वह कहाँ पूछ रही थीं ?
नींद आने के लिए चाहिए थीं
दो वक्त की रोटियाँ
बाहर में सुलगती आग थी
मन में दहकती दाह थी
पर कहीं नहीं सिक रही थी रोटियाँ ?