वह भयानक रात और अंतहीन सफ़र
वह भयानक रात और अंतहीन सफ़र


बबीता बहुत ख़ुश थी, आज अपने घर गोरखपुर जो जा रही थी। पिछले साल, नई नौकरी के लिए जब दिल्ली आई थी तब से मौक़े की तलाश में रहती है कि कब छुट्टी मिले और कब वह गोरखपुर जाए। इस बार उसकी पसंद की ट्रेन में टिकट नहीं मिलने के कारण दूसरी ट्रेन से जा रही थी। यह ट्रेन दिल्ली से गोरखपुर पहुँचने मे समय ज़्यादा लेती है क्योंकि इसके स्टेशन बाक़ी की ट्रेनों से ज़्यादा हैं। ट्रेन में बैठते ही बबीता ने देखा कि सवारी बहुत कम है और महिलाएं तो उसे मिला कर सिर्फ़ तीन। बबीता की सीट जहाँ थी वहाँ दो पुरुष यात्री भी बैठे थे जो तीन-चार स्टेशन के बाद उतरने वाले थे। वैसे बबीता हमेशा अकेले ही ट्रेन मे सफ़र करती है पर इन सारी परिस्थितियों की वजह से आज उसे कुछ घबराहट हो रही थी।
ट्रेन दिल्ली से दो-तीन स्टेशन आगे बढ़ी, तो आठ-दस लोग ट्रेन में चढ़े और बबीता के आस-पास की ख़ाली सीटों पर बैठ गए। पहले से बैठे पुरुष यात्रियों में से एक ने पूछा कहाँ तक जाना है? तो उन्होंने बताया पाँच-छः स्टेशन आगे वे उतरेंगे। उनकी आपस की बातों से ये पता चल रहा था कि ये सभी बैंक में कार्यरत हैं और साथ में कई सारी छुट्टियाँ होने के कारण अपने घर को जा रहे हैं। बाद में आकर बैठे यात्रियों के ना तो बातों में, ना आवाज़ में और ना ही विषय में कोई शालीनता नज़र आ रही थी और ना ही मर्यादा। कभी सिगरेट जलाते और धुआँ फैलाते तो कभी पान चबाते। कभी-कभी तो इनका शोर इतना तेज़ हो जाता कि ट्रेन की आवाज़ धीमी हो जाती। सभी पढ़े-लिखे जाहिल लग रहे थे।
बबीता खिड़की की तरफ़ देखती हुई चुप-चाप उनकी बातें सुन रही थी और सोच रही थी कि कब ये लोग उतरें। इनकी उद्दंडता को देखते हुए इन्हें कुछ भी कहना कीचड़ में पत्थर फेंकने जैसा था। ट्रेन स्टेशन पर रुकी और पहले से बैठे दोनो यात्री उतर गए। अब तक शाम भी धीरे से रात में बदल गई थी और इन यात्रियों की उद्दंडता भी अभद्रता में। कभी ये आपस में गंदे गाने गाते तो कभी अभद्र से चुटकुले पर ठहाके लगाते फिर उसमें आए गंदे शब्दों का विश्लेषण करते।
जब भी ट्रेन धीमी होती और स्टेशन आता बबीता भगवान से विनती करती कि ये सब यही उतर जाएं। बबिता ने महसूस किया कि इनकी बातों का स्तर धीरे-धीरे गिरता जा रहा है। शायद ऐसा उसे अकेला देखकर हो रहा था।अब बबीता की धड़कनें बुरी तरह बढ़ने लगी थी।
उसने सोचा क्यों न सीट बदल ली जाए। उसने उठकर डिब्बों के चक्कर लगाए। महिला यात्री कोई नहीं और हर जगह कम-ओ-बेश ऐसे ही गुट बैठे थे। मतलब स्थिति लगभग बुरी ही थी। बबीता के घर जाने की ख़ुशी अब तक डर में बदल गई थी। यूँ तो वह डरने वालों में से नहीं थी, लेकिन आज की परिस्थिति में वह अंदर तक डर से काँप रही थी। उसके हाथ-पैर ठंडे हो रहे थे। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे ? बार बार भगवान से मदद के लिए विनती कर रही थी और हर परिस्थिति से मुक़ाबले के लिए ख़ुद को तैयार।
रात भी गहरी होती जा रही थी। एक के बाद एक स्टेशन निकलते जा रहे थे। बबीता की घबराहट और डर दोगुनी गति से बढ़ते ही जा रहे थे। तभी फिर स्टेशन आया, ट्रेन रुकी और बबीता ने इन यात्रियों के उतरने की उम्मीद की लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ट्रेन आगे के सफ़र के लिए निकल पड़ी। निराश बबीता फिर सिमट कर बैठ गयी। अब तो बबीता ने सोच लिया था कि अनहोनी तो आज होकर ही रहेगी।
उसकी हालत अब ऐसी थी कि वह चीखना भी चाहती तो उसकी आवाज़ नहीं निकलती। तभी एक बुजुर्ग महिला सीट के पास आकर खड़ी हुई। शायद स्टेशन पर चढ़ी थी। महिला ने बोला बच्चों सीट ख़ाली करो, ये मेरी सीट है। अपनी उन्माद में चूर उसमें से एक ने कहा अम्मा पूरी गाड़ी तो ख़ाली है, कहीं भी बैठ जाओ। हम तो यहीं बैठेंगे। तभी पीछे से एक हट्टा कट्टा पहलवान अम्मा के सामान के साथ आया। उसे देख अचानक थोड़ी शांति हो गई। फिर हिम्मत कर उन यात्रियों ने पूछा अम्मा आपका सीट नंबर क्या है ? हम हटते हैं आप अपना सामान जमाकर यहाँ बैठ जाएं।
बबीता की विनती शायद भगवान ने सुन ली थी। उसे लगा जैसे अम्मा और पहलवान के रूप में भगवान ने अपने दूत भेजे हों। फिर वे पढ़े-लिखे जाहिल यात्री बगल वाली सीट पर बैठ गए और जैसे ही उनके पहले ठहाके की आवाज़ आयी पहलवान भाई ने उन्हें शालीनता के सबक़ सीखा दिए। इसके बाद वे कब और कहाँ उतरे पता ही नहीं चला।
बबीता आज भी जब कभी अकेले रात में ट्रेन का सफ़र करती है तो उसे ये भयानक घटना याद आ ही जाती है और वह उस डर से एक बार अंदर तक
सिहर ज़रूर जाती है।