श्रुति और उसकी सहेलियाँ – दीवारें (भाग-2)
श्रुति और उसकी सहेलियाँ – दीवारें (भाग-2)


" हाँ बोलती हैं, दीवारें बहुत कुछ बोलती है, मैं इनसे कितनी ही बातें करती हूँ " श्रुति के कहे ये शब्द सीमा के कानों में अब भी गूंज रही थी। समर भी ख़ास परेशान था श्रुति की बातें सुन कर। ऐसा नहीं था की ये बात बात श्रुति ने पहली बार ये कहा हो लेकिन आज जिस बेचैनी और दुःख के साथ उसने अपनी बात को सही साबित करने के भाव उन्हें परेशान कर रहे थे। काले गहरे बादलों की वजह से रात पुजारी के घर पर रुकना श्रुति के लिए शायद मंदिर के अधूरी मूर्तियों के बारे में जानने का मौक़ा था जबकि सीमा -समर के लिए अपनी बेटी के इस अनूठी वरदान को समझने का।
पुजारी के घर में पाँच कमरे थे, जिनमें से दो ज़रूरत पर यात्रियों को रात बिताने के लिए दिया जाता था। श्रुति और उसका परिवार उन्हीं कमरों में से एक में रुक गया। कमरे में सभी के सोने का इंतज़ाम ज़मीन पर ही किया गया था, नीचे कुश के घास बीच कर उसपर रुई के गद्दे दल दिए गए थे। यूँ तो बिजली यहाँ इस ऊँचाई तक तो पहुँचा हुआ था लेकिन जैसे ही बरसात शुरू हुई बिजली चली गई। अंधेरे में तो बस कमरे में बनी छोटे से ताखे पर रखी दीपक का ही सहारा था। दीपक की टिमटिमाती रोशनी, छोटी-छोटी दो खिड़कियों से आती ठंडी हवा, बीच-बीच में चमकती बिजली और गरजते बादल के साथ सीमा – समर के मन-मस्तिष्क में श्रुति से जुड़े सवालों के गहरे बादल हिचकोले खा रहे थे। इधर श्रुति भी मंदिर के गर्भ गृह की मूर्तियों के बारे में सारी बातें जानने के लिए उत्सुक थी।
जैसे जैसे रात गहरी होती गई सभी नींद की गोद में समाते गए। सुबह इन तीनों के लिए बहुत ही ख़ास होने वाली थी।
क्रमशः