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Mukta Sahay

Abstract Inspirational

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Mukta Sahay

Abstract Inspirational

कहाँ आसान है !!

कहाँ आसान है !!

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अनु ! मेरे प्यारी बचपन की दोस्त। पड़ोस में रहते थे हम दोनो। बचपन से जवानी सब साथ निकाले थे हम। एक ही स्कूल में साथ साथ जाना और फिर कालेज भी एक ही रहा तो वहाँ भी साथ साथ जाना। बिलकुल पक्के वाले दोस्त थे हम दोनो। अनु हमेशा ही कक्षा में प्रथम आती थी और कालेज में भी यही सिलसिला अनवरत जारी था। विश्वविद्यालय की टॉपर थी वह। मुझे तो ऐसा लगता था की वह किसी बड़े आफ़िस में बड़े पद पर आसीन होगी।

उसकी शादी मुझसे पहले हो गई। शादी के बाद हमारा दो एक बार मिलना हुआ, फिर मुलाक़ात नही हुई हमारी। बस फोन पर ही बात हुआ करती थी और हाल चाल पता चलता रहता था। कल मैंने फ़ोन किया बड़े समय के बाद तो बात-बात में अनु से पता चला आंटी – अनु की माँ की तबियत बहुत ख़राब है तो मैं खुद को रोक नही सकी और आंटी से मिलने उसके पास चली आई। 26 वर्षों के बाद हूँ मिल रहे थे मैं और अनु।

   अनु यूँ तो वर्किंग विमेन (कामकाजी महिला) वाली श्रेणी में नहीं आती है लेकिन उसकी व्यस्तता शायद उसके बड़ी कम्पनी में उच्च पद पर आसीन उसके पति की व्यस्तताओं से भी कहीं अधिक थी। व्यस्तताओं का आलम भी ये कि वजह सिर्फ़ एक नही बल्कि ये ज़िम्मेदारियाँ भी अष्टभुजी थी।

   अभी सुबह ही मैं आई थी और देखा, जब वह अपनी बिस्तर पर लेटी माँ की सुबह के दिनचर्या के कार्य पूरी तन्मयता से कर रही थी कि तभी उसका फोने बज उठा। हाथ साफ़ कर वह फोन उठती है और ऐसे भाव से बात करती है जैसे वह बैठ कर चाय की चुस्कियों का मज़ा ले रही थी जब फोन आया। मैं होती तो ऐसे में या तो फोन ना उठती या फिर इतने मधुर भाव से बात नही कर रही होती। उसपर भी अनु फ़ोन पर कहती है, कोई बात नही तुम सब आधे घंटे के लिए आ जाना, मैं भी आ जाऊँगी और सब अच्छे से प्लान कर लेंगे। परेशान होने की कोई बात नही है सब अच्छे से हो जाएगा। फोन रख कर अनु ने बताया क्लब से फोन था, कुछ ख़ास होने वाला है उसकी तैयारी में लोग संशय में है, तो मिल कर उन्हें सब बता दूँगी। मैंने कहा हद है, तुम्हारे घर की परेशनियाँ क्या कम है जो इतना सारा बयान ले लेती हो। उसने मुस्कुराते हुए उसी मधुरता से कहा सब हो जाएगा और अपनी माँ के काम में लग गई।

   अभी अभी वह माँ के काम से निपट कर साथ आ कर बैठी ही थी की ड्राइवर बच्चे के एडमिशन कराने को जाने के लिए आधे घंटे की छुट्टी माँगने आ गया। वह छुट्टी भी उसी समय माँग रहा था जब अनु को मीटिंग के लिए जाना था। पर अनु तो अनु है, ठीक है तुम चले जाना पास ही जाना है मैं पैदल ही चली जाऊँगी और छुट्टी दे दी। चाहती तो उसे आधे घंटे बाद जाने को कह सकती थी क्योंकि एडमिशन

 तो पूरे दिन होना था।

अनु अभी मीटिंग से लौटी ही थी की उसके पति के एक पुराने मित्र का फ़ोन आया और उन्होंने बताया की उनका अनु के शहर में कुछ काम निकल आया है इसलिए वे दो-चार दिन के लिए उसके साथ ही रुकेंगे। इतनी परेशानियों के बीच घिरी होने के बावजूद अनु ने उन्हें अपना स्नेह भरा निमंत्रण ड़े ही दिया बिना किसी झिझक या चिड़चिड़ाहट के।

लंच का समय हो गया था तो हम दोनो दोस्त साथ में खाने बैठे और कितनी ही पूरानी बातें याद कर हम खुश हो रहे थे। तभी आंटी ने आवज दिया अनु बेटा ज़रा पास आ ना कुछ बात करनी है। हम दोनो ही आंटी के पास गए। उन्होंने कहा आज मुन्नी खाना क्यों खिला रही है। अनु समझ गई की आज वह मेरे साथ खाना खा रही थी और आंटी को उसने खाना नही खिलाया तो उन्हें कुछ अलग आभास सा हुआ। अनु ने तुरंत कहा बेला आई है ना माँ आज तो इसके साथ ही बैठ गई थी। मुन्नी ला मैं खिलाती हूँ और माँ बेला भी आपसे बात कर लेगी।

मुन्नी दो मिनट बाद आई ये बताने की भैया का फोन आया था, उन्हें दो दिन के लिए कहीं बाहर जाना है और उनकी फ़्लाइट एक घंटे में है इसलिए आप उनके कुछ कपड़े बैग में लगा दें और ऑफ़िस से ड्राइवर कुछ काग़ज़ात ला रहे हैं वे भी उसमें रख दें। भैया बस बैग लें कर हवाईअड्डे निकल जाएँगे। सुनते ही अनु ने आंटी को जल्दी जल्दी खाना खिलाया और पैकिंग के लिए चली गई। मैं औंटी से बातें करने लगी।

थोड़ी देर में भैया आए और बैग ले कर निकलते समय अनु ने याद दिलाया कि आज उनके किसी ख़ास परिचित के शादी की सालगिरह है, वहाँ भी जाना था। भैया थोड़े असमंजस में पड़े, फिर थोड़े अनुग्रह भरे स्वर में कहा अनु तुम देख लेना ना, मेरा जाना भी ज़रूरी है और ये निमंत्रण भी ख़ास है। जैसा कि मुझे आशा क्या पूर्ण विश्वास था अनु ने अपनी उसी प्यारी से मुस्कान के साथ जवाब दिया मैं देख लूँगी। इसके साथ ही भैया हवाईअड्डे को निकल गए। और इसके साथ ही अनु के शाम से रात तक के कार्यक्रम मुझे समझ में आ गए कि अब औंटी के रात का खाना, उनकी दवाइयाँ फिर परिचित के यहाँ जाना और पता नही कितनी रात में आना। 

मैं तो अनु की व्यस्तता देख कर ही थक गई थी पर उसके चेहरे पर वही मुस्कान, वही रौनक़ और वही ताज़गी झलक रही थी, ना कोई झुँझलाहट ना कोई शिकन। वह मुझसे अब भी उसी तन्मयता से नई-पुरानी बातें कर रही थी और साथ ही साथ में मेरी आवाभगत भी करती जा रही थी क्योंकि मैं भी तो अतिथि ही थी। सच में इस तरह निपुणता से इतना सब कुछ निभा पाना आसान नही है। ये तो बस अनु ही कर सकती है।


           



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