Saroj Prajapati

Fantasy

2.3  

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मां : मनोव्यथा एक बेटे की

मां : मनोव्यथा एक बेटे की

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इस यंत्र पर मेरी धड़कनों को घटते बढ़ते देख डॉक्टर मेरे जीवन का अनुमान लगा रहे थे।पर उन्हें क्या पता मुझमें जब जीने की चाह ही नहीं बची तो इन सब उपकर्मों से क्या लाभ। अब तो वह घड़ी धीरे धीरे पास आ रही है। जो शाश्वत है किन्तु प्रत्येक मनुष्य उससे घबराता है। परंतु मैं तो इसका वर्षों से इंतजार कर रहा हूं। लेकिन हमारे चाहने से क्या!

जितनी सांसे परमात्मा ने हमारे जीवन में लिख दी उससे पहले तो मृत्यु भी उन्हें नहीं छीन सकती और मैं इतना कायर भी नहीं कि सांसारिक कर्तव्यों से विमुख हो असमय उसे गले लगाता।

वैसे तो जीते जी कभी भी सांसारिक कर्तव्य हमारा पीछा नहीं छोड़ते। फिर भी मुझे लगता है कि जहां तक संभव है। मैने उन्हें पूरा कर दिया है। बच्चों की पढ़ाई लिखाई, काम धंधे और शादी ब्याह। अब सब अपने पैरों पर खड़े हैं और अपनी गृहस्थी में रमे हैं।

बस एक मेरी पत्नी निर्मला ही है, जिसके प्रति मैं अपने कर्तव्य कभी सही तरह से न निभा सका और अब उसे अकेले छोड़ जा रहा हूं। हां , उसका मैं अपराधी हूं। एक वो ही है जो इस अस्पताल में बैठी दस दिनों से लगातार मेरे जीने की प्रार्थना कर रही है। परन्तु उस अभागी को यह नहीं पता कि यहां भी मैं उसके साथ छल कर रहा हूं। वो भगवान से मेरा जीवन मांग रही है और मैं उसी जीवन को त्यागने के लिए कटिबद्ध हूं।

निर्मला मुझे माफ़ करना। इतना तो तुम जानती हो कि जीवन भर मैं अपनी मां की ममता को तरसा हूं।पहले का तो तुम्हें पता नहीं और न ही मैं कभी तुम्हे उनकी विमुखता का कारण बता पाया। किन्तु शादी के बाद के १० - १२ साल तो तुमने भी महसूस किया था कि मैं अपनी मां से कितना प्रेम करता था। हमेशा उसे अपने सामने देखना चाहता था और अपने साथ रखना चाहता था। मुझे जीवन में सब कुछ मिला।बस अपने हिस्से का मां का वो निर्मल स्नेह न मिल सका जिसका मैं अधिकारी था। तुम्हारी आंखों ने कई बार मुझसे इस बारे में सवाल भी किए। मैं वो सवाल पढ़कर भी चुप रहा। क्योंकि मैं अपनी मां के बारे में कुछ भी न कहना चाहता था।

मां मेरे बड़े भाई व उसके बच्चों पर अपार स्नेह लुटाती।परंतु मैं और मेरे बच्चे सदैव इस लाड दुलार से वंचित रहे।

बचपन से ही तो ये सब देखता आया था मैं।

मां, मैं और मेरा बड़ा भाई। बस यही थी हमारी दुनिया।पिता तो बहुत पहले ही चल बसे थे।उनकी तो छवि भी हमारे स्मृतिपटल पर नहीं है। मेरी मां ने हम दोनों भाइयों को पालने के लिए बहुत कष्ट उठाए थे। याद है मुझे मजदूरी करती थी वो। कृश काय सी उसकी देह तसला भर ईंट- गारा ढोती थी

इस मेहनत मशक्कत के कारण मां अक्सर बीमार रहती । लेकिन कभी काम ना छोड़ती। शाम को मजदूरी के बाद जब वो घर आती तो हमें खूब लाड करती। रूखा सूखा जो भी होता अपने हाथो से खिलाती। कितने अच्छे दिन थे वो। हम दोनों भाइयों को समान रूप से मां का प्यार मिल रहा था।

फिर वो मनहूस दिन आया जब मां हम दोनों की मां ना रहकर सिर्फ भाई की मां बन कर रह गई और मरणोपरांत तक भी उसी की मां रही। एक दिन मैं और भाई स्कूल से आने के बाद उस जगह पहुंच गए जहां मां काम करती थी। वहां एक इमारत बन रही थी। हम वहीं खेलने लगे। इमारत पर हमें कटी हुई पतंग लटकती दिखी। भाई और मैं पतंग लेने के लिए इमारत में लगी बल्लियों के सहारे ऊपर चढ़ने लगे

की तभी भाई का पैर फिसला गया और वो नीचे आ गिरा। उसके गिरते ही भीड़ जमा हो गई। भाई के सिर पर गहरी चोट आई थी और वो बेहोश था। सबने जल्दी से उसे अस्पताल पहुंचाया। मां तो यह सब देख मानो पागल सी ही हो गई थी। किसी तरह लोगों ने उन्हें संभाला था। दो दिन बाद भाई को होश आया। मां भी तो इस दौरान बदहवास ही रही। उन्हें मेरा भी होश ना था। डॉक्टरों ने मां से कहा कि आपका बच्चा मौत के मुंह से वापस आया है। इसे बहुत देखभाल की जरूरत है। तुम्हें इसका विशेष ध्यान रखना होगा। कई दिन बाद भाई व मां अस्पताल से वापस आए। और इन दिनों में ही मां बस भाई की मां बनकर लौटी थी। मेरी मां तो शायद अस्पताल में ही कहीं रह गई थी। जो फिर कभी लौटकर ना आई।

उस घटना ने भाई के प्रति मां के मन में असुरक्षा की भावना भर दी। वह भाई का ज़्यादा ही ध्यान रखने लगी थी। स्कूल के बाद अब हम सीधे मां के कार्यस्थल पर जाते। मां भाई को अपनी आंखों से ओझल ना होने देती। हां, मुझ पर कोई रोक टोक ना थी। उसके खान -पान का भी विशेष ध्यान रखा जाने लगा था। आमदनी ना थी फिर भी मां उसके लिए घी- दूध का प्रबंध रखती। लेकिन मेरा उसमें कोई साझा ना था। हां भाई मुझे दे दे वो अलग बात थी। लेकिन ऐसा बहुत कम ही होता था। उसे भी पता चल गया था कि वह मां की कमजोरी बन गया है। इसलिए अपनी शरारतों से बचने के लिए वह मेरा झूठा नाम लगा देता।हाल यह था कि उसके किए की सजा भी मैं भुगतने लगा। कई बार मैंने मां को समझाने की कोशिश की पर वह मेरी एक ना सुनती।

मेरे बाल मन पर इन बातों से ठेस पहुंचती। अक्सर मैं अकेले में खूब रोता पर मेरे आंसू पोछने वाला कोई ना था। मां की गोद लाड़ दुलार सब पर अब बस भाई का एकाधिकार था। एक दो बार मैं जान बूझकर गहरी चोट लगवाकर भी आया। शायद इसे देख मां कि ममता मेरे लिए फिर से जाग जाए। लेकिन ऐसा कुछ ना हुआ। इसके विपरित मुझे खूब डांट पड़ी। मुझे समझ ना आता भाई को चोट लगी तो मां ने उसे इतना दुलारा और मेरी चोट पर फटकार!

इन सब बातों से मैं विद्रोही होने लगा। अब मैं सारा दिन इधर उधर घूमता पढ़ाई में भी मेरा मन ना लगता। नित नई नई शरारतें करता और भाई को भी खूब परेशान करता। कभी उसका दूध पी जाता तो कभी उसकी घी लगी रोटी खा जाता। अध्यापक मुझे एक उद्दंड बालक समझने लगे थे और मां को भी मैं फूटी आंख ना सुहाता। परंतु उन सब को क्या पता की मैं यह सब उनका ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए करता था। मैं उससे कहना चाहता था कि मैं भी हूं मां तेरा ही बेटा हूं मैं। लेकिन शब्द मौन ही जाते।

मां की इस बेरुखी के कारण धीरे धीरे मेरा मन पढ़ाई से उचट गया और पढ़ाई बीच में ही छोड़ मैं आवारा लड़कों के साथ घूमने लगा। भाई ने अपनी पढ़ाई पूरी कि और उसे एक अच्छी सरकारी नौकरी मिल गई और मैं गलियों की खाक छानता रह गया।

भाई की शादी हो गई और उसका परिवार बस गया। तब समाज ने याद दिलाया या मां को ही याद आया हो की उनका एक और बेटा है उसकी शादी भी करनी है। तब निर्मला मेरे जीवन में तुम आईं। ये मेरा किया कोई पिछला पुण्य ही होगा जो तुम मेरी जीवन संगिनी बनी और मैं इसे तुम्हारा दुर्भाग्य ही कहूंगा जो पति रूप में तुम्हे मैं मिला। जो व्यक्ति आजीवन स्नेह के लिए तरसा हो वो तुम पर क्या प्रेम लुटाता। किन्तु तुमने कभी इसकी शिकायत मुझसे ना की

याद है मुझे जब हमारी पहली संतान हुई तो मां कितनी खुश थी। मुझे लगा अब शायद वो हमारे साथ ही रह जाएगी।किन्तु यह मेरा भ्रम था एक महीने बाद ही वह भाई के पास लौट गई। तुमने कितनी मनुहार की थी उनसे रुकने की। लेकिन यहां भी उन्हें भाई के बच्चे ज़्यादा प्यारे लगे और वो चली गई। फिर भी मुझे आस रही की मेरे प्रति ना सही अपितु अपने पोते -पोतियों का प्यार एक दिन जरूर उन्हें इस घर में ले आएगा। लेकिन मेरी कल्पनाओं के महल उस दुखद क्षण में ढह गए जब छुटकी बीमारी से चल बसी किंतु मां को मेरा यह दुख भी शायद कम लगा और वो मुझे आहत कर फिर चली गई। उस दिन के बाद मैंने भी मां कि ओर से मुंह फेर लिया।मां के प्रति मेरे मन में जो कोमल भावनाए ज़ोर मारती थी उन्हें मैंने सदा के लिए निकाल दिया। नफ़रत होने लगी थी मुझे अपने आप से और शायद मां से भी।

इसलिए मैंने दूसरे शहर जाकर नौकरी करने का फैसला कर लिया जिससे कि मां मेरी आंखो से दूर रहे। यहां भी मैंने अपना स्वार्थ देखा और गृहस्थी का सारा बोझ अकेले तुम पर छोड़ अपने अतीत से पीछा छुड़ाकर भाग गया।

हां दूर रहकर मैं मां को भुलाने में कामयाब भी हो गया था। किन्तु तार द्वारा मां की मृत्यु की खबर मिली तो फिर से मां के प्रति आंसू के रूप में मेरा प्रेम उमड़ आया। मुझे अपने शरीर से प्राण निकलते हुए महसूस हुए। मैं जल्द से जल्द मां के अंतिम दर्शन के लिए पहुंचना चाहता था। लेकिन भाग्य से फिर हार गया। ट्रेन लेट हो गई और मेरे आने से पहले ही भाई ने उन्हें मुखाग्नि दे दी। मैं अभागा मां के अंतिम दर्शन भी ना कर सका। आखिर में भाई ही तो बेटा बन उनके सारे क्रिया संबंधी कार्य करता रहा। समाज भी तो उनका ही गुणगान कर था कि कैसे श्रवण कुमार की तरह उसने सारी उम्र मां की सेवा की। मैं फिर से अकेला था। चीख चीखकर सबको कहना चाहता था कि मैं भी उनका बेटा हूं, वो मेरी भी मां है। मैं भी उनकी सेवा करना चाहता था। लेकिन मेरी सुनेगा कौन। मां ने ही तो जीते जी मुझसे किनारा कर लिया था। मां मेरा दोष तो बता कर जाती। बस बहुत हो गया - मां मां मां। विरक्ति हो गई है मुझे उनसे। आज के बाद तुम्हे याद करूं तो मैं तुम्हारा बेटा नहीं। कसम खाई मैंने।

सच कहता हूं इतने वर्षों मैने कभी उन्हें याद नहीं किया। किन्तु जीवन के अंतिम पड़ाव पर अब मुझे उनकी फिर से याद आने लगी थी। खुद को बहुत समझाया लेकिन हार गया। कहते हैं ना बुढ़ापा दूसरा बचपन ही होता है, हां शायद यह मेरा बचपन ही तो है जो फिर से मां की गोद में छिप वहीं लाड़ दुलार चाहता है। अभी कुछ महीने पहले जब मैंने निर्मला से कहा कि मां की कोई तस्वीर हो तो दो। कैसे अचरज से उनसे मेरी ओर देखा। लेकिन हर बार की तरह कुछ ना बोली। संदूक से उसने मां की एक पुरानी तस्वीर निकाल कर दे दी। मैंने उसका दुबारा प्रिंट निकलवाकर उसको फ्रेम करवा दिया। कितनी प्यारी दिख रही थी मेरी मां। तस्वीर को मैंने अपने पलंग के सामने दीवार पर टांग दिया। अब मां मेरी आंखो के सामने रहेगी। निर्मला को भी मैंने कह दिया था कि मेरे बाद मेरी तस्वीर भी मां के साथ लगा देना। अब मैं मां से दूर नहीं रहना चाहता। सुन उसकी आंखो से आंसू निकाल आए और उसने मुंह पर हाथ रख दिया। उस पगली को क्या मालूम की मैं तो अब अपनी अंतिम यात्रा पर जाने वाला हूं क्योंकि बिना गए मेरे वर्षों कि इच्छा कैसे पूरी होगी।

मेरी सांसें अब धीरे धीरे कम होने लगी है। लगता है मां से मिलने की घड़ी पास आ गई है। मां मैं आ रहा हूं , तेरे पास। अब तुझे मेरे हिस्से का प्यार मुझे देना ही होगा। अपने ममत्व कि बारिश में मुझे सराबोर करना ही होगा। अब तेरा प्यार बांटने के लिए वहां भाई ना होगा। इस बार मैं भाई से जीत गया। भगवान ने भी शायद इसलिए ही मुझे पहले बुलाया है कि जो स्नेह मैं तुझसे इस लोक में ना पा सका वो परलोक में ज़रूर पाऊंगा। हां मां मैं आ रहा हूं।



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