Saroj Prajapati

Inspirational

3.0  

Saroj Prajapati

Inspirational

साझी जिम्मेदारी

साझी जिम्मेदारी

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शाम को सुरभि जब ऑफिस से घर लौटी तो उसकी बुआ सास आई हुई थी। उसने अपना सामान रख, अपनी सास व बुआ सास के पैर छूकर उनका हालचाल पूछा। फिर वह कपड़े बदलने अंदर चली गई। बाहर आई, तो उसकी सास ने सब्जियां काट दी थी। सुरभि ने चाय बनाई, तब तक उसका पति राकेश भी ऑफिस से आ गया था। चाय पीते ही, वह खाने की तैयारी में लग गई।

रसोई में सुरभि रोटियां बना रही थी तो राकेश टेबल पर खाना लगाने लगा। यह देख उसकी बुआ बोली "राकेश तू बैठ जा! बहु कर लेगी! "

" अरे नहीं बुआ जी! यह तो मेरे रोज का काम है। खाना लग ही गया है । वह भी आ‌ ही रही है। फिर मिलकर खाते हैं सब साथ।" उसकी बात सुन बुआ का मुंह बन गया।

खाने के बाद राकेश ने सुरभि के साथ मिलकर सारे बर्तन किचन में रख दिए और फिर वह मां और बुआ के साथ बैठकर बातें करने लगा।

अगले दिन संडे था। बुआ और सुरभि की सास सुबह जल्दी उठ गए। नहाने धोने के बाद बुआ सास ने पूछा "बहू नहीं उठी अभी तक!"

यह सुनकर सुरभि की सास बोली "नहीं जिज्जी, आज संडे है ना! तो थोड़ी देर से उठेगी।"

"यह क्या बात हुई भला। घर की बहू बेटियों को तो जल्दी उठना चाहिए ना!"

"अरे जिज्जी और दिन तो बहू 5 बजे उठ जाती है और रात तक लगी ही रहती है। आराम कहां बिचारी के हिस्से में! आज तो नींद पूरी कर ले।" कह वह चाय बनाने चली गई।

सुरभि उठकर जब बाहर आई तो उन दोनों को चाय पीता देखकर बोली "अरे मम्मी जी, आपने मुझे उठाया क्यों नहीं! मैं बना देती चाय।"

" कोई बात नहीं बहु। तू और काम कर ले। कामवाली का भी फोन आया था। वह आज नहीं आएगी।"

"कोई बात नहीं मम्मी! कर लेंगे हम मिल बांट कर।"

"बहू मेरे लिए तो खाना नहा धोकर ही बनाना।"

"हां हां बुआ जी! मैं सफाई कर, नहा धोकर ही आपके लिए खाना बनाऊंगी।"

तब तक राकेश बाहर आ गया था। सुरभि ने जब उसे कामवाली के बारे में बताया तो वह बोला "अच्छा ऐसा करो तुम झाड़ू लगाओ, मैं पोंछा लगा देता हूं। काम जल्दी हो जाएगा। नहीं तो तुम अकेली कब तक लगी रहोगी। नाश्ते में देरी हो जाएगी।"

"अरे राकेश, तू झाड़ू लगाएगा! यह तो औरतों के काम है।" बुआ जी हंसते हुए बोली।

"बुआ जी , इसमें आदमी और औरत कहां से आ गए। काम तो काम ही है ना! जब सुरभि घर की बराबर जिम्मेदारी उठा रही है तो उसके साथ मिलकर छोटा-मोटा काम करने में कोई बुराई नजर नहीं आती मुझे। छुट्टी मेरी ही नहीं उसके लिए भी तो है ना आज!"

"भई, ये आजकल के लड़कों की बात तो मुझे समझ नहीं आती। अपनी औरतों से नौकरी करवाते हैं और फिर खुद घर का काम करते हैं ।" कह बुआ जी मुंह बनाते हुए अंदर चली गई।

नाश्ते के बाद सुरभि ने कपड़े धोए तो राकेश ने कपड़े सुखा दिए।

दोपहर तक सब काम हो गए। खाना खाने के बाद जब दोनों ननद भाभी अपने कमरे में आराम करने गई थी तो सुरभि की बुआ सास अपनी भाभी से बोली "संतोष, यह क्या तूने अपने घर में अंधेरगर्दी मचा रखी है!"

" क्या हुआ जिज्जी! आप ऐसे क्यों कह रही हो।"

"अब तू ऐसे अनजान बनने की तो कोशिश मत कर । तुझे दिखता नहीं। बहु कैसे हमारे राकेश को अपने इशारों पर नचा रही है।"

"अरे नहीं जिज्जी! मेरी बहु तो बहुत सीधी है। घर बाहर की सारी जिम्मेदारी उसने अपने ऊपर उठा रखी है। राकेश महीने में 10- 12 दिन के लिए टूर पर बाहर रहता है तो यही तो संभालती सब। मुझे तो काम को हाथ भी नहीं लगाने देती। वह तो मैं अपनी मर्जी से थोड़ा बहुत कर लेती हूं।"

"तो इसमें कौन सी नई बात है संतोष! भूल गई हम लोग भी तो खेती-बाड़ी, घर बार, ढोर डंगर का काम संभालते थे। चूल्हे पर रोटी बनाते थे। अब तो बहुत सारी सुविधाएं भी हो गई है। पहले तो सारा काम हाथ से ही करना होता था। सुबह से शाम तक कोल्हू के बैल की तरह लगे रहते थे। फिर भी हमने तो कभी ना करवाए अपने आदमियों से घर के काम!"

" एक बात सच सच बताओ जिज्जी! क्या आपके मन में उस समय कभी ना आता था कि घर में थोड़ी बहुत कोई मदद कर दे। मदद की तो छोड़ो कोई इतना ही कह दे कि बहुएं कितना काम करती हैं। गर्मियों में गज गज भर घूंघट में रोटियां बनाकर खुश होती थीं क्या आप! क्या हर समय सास ससुर की टोका टाकी पसंद आती थी। पति पत्नी चाहकर भी एक दूसरे से मन की बात नहीं कर पाते थे। अगर कोई अपनी पत्नी की मदद करना भी चाहे तो जग हंसाई के डर से वह कदम पीछे खींच लेता था। हमें तो खुश होना चाहिए जिज्जी कि आजकल के बच्चे इतने समझदार हैं। एक दूसरे के सुख-दुख को समझते हैं। दुनिया की परवाह किए बिना एक दूसरे के साथ मिलकर जिम्मेदारी को निभाते हैं। मुझे तो इसमें कुछ गलत नहीं लगता। जो दुख हमने उठाए। जरूरी है कि हमारी बहू भी वही सब सहे। समय के साथ बदलना ही सही है जिज्जी! "

कह तो तू सही रही है संतोष ! उस समय जी तो मेरा भी बहुत करता था कि तेरे नंदोई थोड़ी बहुत मदद कर दे। चूल्हे पर रोटी कहां बनती थी मुझसे। शादी इतनी जल्दी हो गई थी। कितनी बार हाथ जले मेरे। पर सास को कहां तरस आता था। हाड़ तोड़ मेहनत करने के बाद कभी बड़ाई ना मिली। सुख की कभी दो रोटी ना खाई और आज मैं भी वही भूल कर रही थी। तेरी बातों ने मेरी आंखों पर बंधी पुरातन की पट्टी खोल दी। घर गृहस्थी की गाड़ी तभी सुचारू रूप से चल सकती है, जब पति-पत्नी जिम्मेदारियों को मिलकर पूरा करें। एक के कंधे पर ही सारा भार डालने से तो वह डगमगाएगी ही!" कहते हुए बुआजी की आंखें नम हो गई।



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