AMAN SINHA

Romance Tragedy Fantasy

4.2  

AMAN SINHA

Romance Tragedy Fantasy

प्यार-प्यार-प्यार

प्यार-प्यार-प्यार

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"बचपन का प्यार"


कहते है प्रेम की कोई भाषा नहीं होती। दुनिया के हर देश में हर शहर में हर गली में प्रेम की बस एक ही भाषा है और वो है मन की भाषा। इसको समझने के लिये आपको किसी भाषा विशेष की जानकारी होना आवश्यक नहीं है। इसे कहने के लिये ना तो आपको अपने होंठ हिलाने की जरूरत है, और ना ही समझने के लिये किसी अनुवादक की आवश्यकता। ये तो चाहने वालों के हाव-भाव से ही समझ में आ जाता है। जब भी कोई दो लोग प्रेम में होते है तो ये बात उनके आस पास के लोगों से छुपी नहीं रह सकती। हाँ मगर ये मुमकिन है की उन दोनों को ये बात समझने में थोड़ा समय लग जाये। प्रेम की एक और खास बात यह है कि इसके लिये उम्र की कोई सीमा तय नहीं है। ये किसी को भी, कभी भी, कहीं भी हो सकता है। कूल मिलाकर प्रेम में पड़ने वालों के लिये उम्र, भाषा, संस्कृति, स्थान आदि कुछ भी मायने नहीं रखता। बस एक ही बात मायने रखता है, वो यह कि जिसे हम चाहते है क्या वो भी हमें चाहता है। इस पूरे संसार में एक भी ऐसा मनुष्य मौजूद नहीं जो कभी प्रेम में ना पड़ा हो। कभी-ना-कभी कहीं-ना-कहीं किसी-ना-किसी से हरेक व्यक्ति को प्रेम जरूर हुआ होता है। कुछ का प्रेम सफल हो जाता है तो कुछ लोगों का सफल नहीं हो पाता। कुछ ऐसे होते है जो खुल कर इस विषय पर बात करते हैं और कुछ अपने ज़ज़्बात अपने अंदर ही दबा कर रखना सीख जाते है। मगर प्रेम करते तो सब है। कुछ लोग प्रेम करके शादी करते है तो कुछ लोग शादी के बाद प्रेम करते है। कुछ लोगों को शादी के बाद सच्चा प्रेम मिलता है तो कुछ को शादी के बाद सच्चा प्रेम हो जाता है। मगर प्रेम का हर रुप पवित्र होता है फिर चाहे वो किसी भी उम्र में हो किसी भी स्थान में हो किसी भी व्यक्ति से हो ये हमेशा साफ और पवित्र होता है।

उपर मैंने प्रेम की परिभाषा देने की असफल कोशिश कर ली। पता नहीं सफल हुआ या नहीं। मगर ये सच है की मैं अपने निजी जीवन में कभी भी सच्चा प्यार पाने में सफल नहीं रहा। मेरे जीवन में ऐसे कई मोड़ आये जब मुझे लगा कि मैं प्रेम में हूँ। और मैं हर बार पुरी तरह से इस प्रेम के प्रति समर्पित भी रहा। मगर इसके साथ मेरा आँकड़ा हमेशा छत्तीस का ही रहा। हर बार मुझे इसमें असफलता ही प्राप्त हुई। हर बार बात बस बनते-बनते रह गयी। कभी मैंने देर कर दी तो कभी मैं ज़ल्दबाजी कर गया। हाँ मगर हर बार मेरा प्यार भी सच्चा था और सामने वाले की ना की वजह भी सही थी। ना तो मैंने कभी धोखा खाया और ना ही दिया। मतलब बेवफाई वाला चक्कर कभी भी रहा ही नहीं। ना तो मेरी तरफ से और नाहीं सामने वाले की तरफ से। किंतु हर बार मेरा प्यार अधूरा ही रहा और मैं प्यासा भी। 

अपने जीवन में मुझे तीन बार प्यार हुआ, और हर बार टूट कर हुआ। प्यार करने के मामले में मैं हमेशा से अव्वल ही रहा। मगर अफ़सोस, प्यार पाने में आप मुझे हमेशा फिस्सड्डी मान सकते है। चलो भूमिका बहुत हो गयी हो सकता है शायद मैं आपको बोर भी कर रहा हूँ मगर जब तक मैं दिल खोल नहीं लेता कहानी कैसे कहूंगा। ये सब कुछ लिखते हुए मुझे ऐसा नहीं लग रहा की मैं कोई कहानी या क़िताब लिख रहा हूँ बल्कि मुझे लग रहा है कि जैसे मैं अपने किसी जिगरी यार को अपने दिल का हाल सुना रहा हूँ। तो ज़नाब जरा सब्र रखना और सुन लेना क्युंकि पता नहीं मैं फिर कभी इतनी हिम्मत जुटा पाऊं या नहीं। तो आप सभी का स्वागत है मेरे पहले पहले असफल प्यार की कहानी में। 

साल १९९६, मई का महीना था। मैं उस समय कक्षा ६ में पढ़ता था उम्र रही होगी यही कोई १२-१३ साल। मतलब किशोरावस्था से मेरा परिचय हो रहा था। हम इस मोहल्ले में नये-नये आये थे मेरे परिवार ने पिछले दिनों ही इस मोहल्ले में नया मकान बनवाया था। मेरे घर में मेरी मां और दो बड़े भाई थे मां ने अपनी मेहनत और बड़े भाइयों की कमाई से ये मकान बनवाया था। मैं अपने घर का सबसे छोटा बच्चा था। आज भी हूँ, इन लोगों ने कभी मुझको बड़ा होने का मौका ही नहीं दिया। तो जिस दिन हमारा गृह प्रवेश हुआ उसके अगले दिन से ही हमारे घर की चर्चा मुहल्ले में होने लगी थी। ये एक छोटा सा मोहल्ला था जो अभी पुरी तरह से बसा भी नहीं था। चारों तरफ खुला मैदान। एक घर से दूसरे घर की दूरी लगभग १००-२०० मिटर की तो होती ही थी। मगर इतना खुला और साफ वातावरण के होने के कारण इतनी दूर से भी लोग एक दूसरे से आसानी से बात कर सकते थे। किसके घर के बाहर क्या हो रहा है ये जान पाना क्त्तई मुश्किल नहीं था। बात आज से लगभग २५ साल पहले की है तो आप उस समय की हरियाली और आबोहवा का अनुमान लगा ही सकते है। 

यहाँ के लोग मिलनसार थे और मेरे उम्र के बच्चों की भरमार थी। बस एक ही बात थी जो मुझे वहां के बाकी सभी बच्चों से अलग करती थी। वो थी उनकी भाषा। यहाँ सभी बंगाली थे और मैं एक बिहारी परिवार से आता हूँ। हालांकि मेरा आज तक कभी भी गांव से कोई वास्ता नहीं पड़ा । मेरी पढ़ाई-लिखाई, रहन-सहन, खान-पान सब कुछ यहाँ के बासिंदों की तरह ही था। मगर आपकी मातृ भाषा आपके पहचान को छुपने नहीं देती। यहाँ एक बात बता दूं मैं की मुझे अपने देसी भाषा पर बहुत गर्व है। मैं पला बढ़ा यहीं हूँ तो उनकी भाषा भी इतनी सरलता से बोलता और समझता हूँ की कोई भी अंजान व्यक्ति एक बार में तो समझ ही नहीं सकता की मैं बिहारी हूँ या बंगाली। किंतु आप चाहे जितनी भी कोशिश कर लें अपनी भाषा में आप जितना सहज रहते है पराये भाषा में आपसे कोई ना कोई गलती तो हो ही जाती है। 

मैं यहाँ और यहाँ के लोगों के लिये नया था, और वो लोग मेरे लिये नये थे। बच्चों की खास बात ये होती है कि वो झट दोस्त बना लेते है। मैं शुरु से ही मिलनसार रहा हूँ क्युंकि मेरे घर में सब लोग खुशमिज़ाज़ और मिलनसार थे तो मेरी ये प्रवृत्ति उन्हीं लोगों के बदौलत है। दो-तीन दिनों में ही मैंने मोहल्ले में कई दोस्त बना लिये थे। लड़के मेरे दोस्त जल्दी बन जाते थे। वैसे तो मेरी पढ़ाई शुरु से ही मिश्रित स्कूल से हुई थी मगर लड़कियों से दोस्ती के नाम पर मेरे पास कभी भी कोइ दोस्त नहीं रही। अब जब की मैं छठवीं कक्षा मे पढ़ने लगा था और मेरे उमर के लड़के और लड़कियों (खास करके बंगाल के लड़के और लड़कियां जो की कम उम्र में ही प्रेम प्रसंग में पड़ जाते है) उनके कई विपरीत लिंग के साथी हुआ करते थे, तो मुझे ये बात खलने लगी। इस उमर के बच्चे आपस में कई तरह से बातें करते है। एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने का यही समय होता है। यह वो समय होता है जब हम असल में एक दूसरे को शारीरिक बनावट के आधार पर अलग समझना शुरू करते है। और अंतर समझने का यही ज्ञान हमें एक दूसरे के प्रती आकर्षित करने लगता है। 

वो कहते है ना की हर गुच्छे में एक अंगूर ऐसा जरूर होता है जो औरों से आकार और संरंजिता में थोड़ा ज्यादा होता है। उसी तरह बच्चों की हर टोली में एक ऐसा बड़ा बच्चा होता है जो अपनी उमर से ज्यादा ज्ञानी होता है। मगर ये ज्ञान बहकाने वाला होता है। ये बात अभी इस लिये कही क्युंकी हमारे टोली में भी एक बच्चा था जिसे हम दादा कहते थे( बंगाली में बड़े भाई)। तो मेरे दोस्तों के झुण्ड मे वो बड़ा भाइ था बुबाई दा। कम से कम पहले दिन तो उसे मैंने दा ( बड़े भाई) कहकर हीं पुकारा था। पर जैसे ही मुझे पता चला कि वो पिछले दो सालों से छठवीं में ही अटका हुआ है तो मेरे नज़र में वो झट से गिर गया। फिर उसे मैं उसके पहले नाम से ही बुलाने लगा था। 

हमारे मुहल्ले में लगभग ४० बच्चे थे जिनमें लड़के और लड़कियों की संख्या लगभग बराबर ही थी। उनमें से जितने भी मेरी उम्र के थे सब एक ही कक्षा मे पढ़ रहे थे तो इस राज्य के पाठ्यक्रम के अनुसार पहली भाषा को छोड़ कर हर किताब एक जैसी ही थी। बस भाषा अलग थी। हर शाम को सब बच्चे मैदान मे खेलने के आते थे। हर घर का बच्चा वहाँ मौजूद होता था चाहे लड़का हो या लड़की - सब इकट्ठे खेलते थे। यही पर मुझे पहले बार मेरे ज़िंदगी का पहला प्यार मिलने वाला था। उस दिन भी रोज़ की तरह मैं और मेरे दोस्त मैदान मे खेल रहे थे। हमें क्रिकेट खेलना बहुत पसंद था क्युंकि यही एक मात्र ऐसा खेल था जिसे सभी मजे से खेलते थे। मैं फिल्डिंग कर रहा था बाप्पा बैटिंग कर रहा था। बुबाई ने गेंद फेंका बाप्पा ने बैट घुमाया और गेंद सीधे मेरे पैरों के बीच से निकल कर मैदान के बाहर स्थित हैंड पम्प से जा लगा। मैं अपनी धुन मे भागा जा रहा था जब वहाँ पहुँचा तो देखा एक लड़की गेंद अपने हाथों मे लिये खड़ी है। वो पानी भरने आयी थी और तभी गेंद उसके बाल्टी मे जा गिरी थी। गुस्से मे लाल वो बंगाली में बड़बड़ाये जा रही थी।

দেখে খেলতে পারিস না, নোংরা বাল টা আমার বলতি তে পড়ে গেছে, পুরো জল ফেলতে হবে, বলতি ধুতে হবে”

मुझे बात थोड़ी देर में समझ आयी की वो बाप्पा को बोल रही थी। उसे देखते ही बाप्पा वहाँ से चंपत हो गया। मैने गेंद मांगा तो उसने गेंद दुसरी तरफ फेंक दिया। उस वक़्त मेरे मन मे उसके लिये ना तो कोई गुस्सा जागा और ना ही कोई आकर्षण। पर आज जब भी कभी वो दिन याद आता है तो मैं उसे अब भी उसी नल पर खडा पाता हूँ। हरे रंग की फ्राक पहन रखी थी उसने घुंघराले बाल, बड़ी -बड़ी आंखें, मद्धीम रंग और चेहरे पर गुस्सा। इससे पहले की मैं कुछ समझ पाता उसने चीख कर अपनी मां को बुला लिया। बस एक पल में हीं मेरे सारे दोस्त जैसे हवा हो गये। मैं नया था तो कुछ भी समझ नहीं पाया। पीछे पलटा तो देखा एक औसत कद काठी की औरत उसकी तरफ बढ़ती जा रही थी। अगले ही पल वो दोनों (पाखि और उसकी मां) बाप्पा के दरवाजे पर थे और लड़की की मां लड़के के मां से लड़ने लगी थी। 

उधर उन दोनों परिवारों में झगड़े होने लगे और इधर हम सब मिलकर फिर से खेलने लगे। उस दिन ना मैंने उसे जाना और ना उसने मुझे जाना। जानना तो दूर हम दोनों में बात तक नहीं हुई थी। जब शाम का खेल खत्म हुआ और सब घर जाने लगे तो बुबाई ने बाप्पा से कहा की अबके बार तो बच गया भाई अगर उसका बाप आया होता तो तेरी कुटाई निश्चित थी। बातों-बातों मे पता चला की उसका बाप रिक्शा चलाता है और मां घर मे ही कुछ-ना-कुछ काम करती है। उसका एक छोटा भाई भी है और सब के सब बड़े खडूस और झगड़ालू किस्म के लोग है। शाम को जैसे हीं हम अलग हुए ये बात आई गयी हो गयी। अक्सर खेल की बातें खेल मे ही खत्म हो जाती है। उस उमर मे बातें याद रखने की ना ही आदत होती और ना ही ज़रूरत। वैसे भी उसके घर के लोगों से पूरा मुहल्ला दूर ही रहना पसंद करता था। कौन बीना बात के झगड़ा मोल लेना चहता है।

समय बीताता गया और हम सब बडे होते गये। जब हमारे उमर के बच्चे (उस समय) बड़े हो रहे होते है तो ना हममें सिर्फ़ शारिरिक बदलाव होता है बल्कि मानसिक बदलाव भी हो रहा होता है। चौदह साल के उमर मे लड़के लड़कियों का आपस मे आकर्षण होना साधारण बात है। हम अपने आप के बदलावों और अपने दोस्तों के बदलावों के साक्षी होते है। पहले जिन लड़कियों के संग बात करने का मन नहीं होता था अब उनसे बात करने मे शर्म और डर दोनों लगने लगा था। बिते कुछ दिनों मे हम सब लड़कों के लम्बाई मे इज़ाफा हुआ था। और लड़कियों के भी शरीर मे बदलाव साफ दिखता था। खेलते-खेलते हम कब छठवीं से आठवीं मे आ गये थे पता ही नहीं चला। समय इस गति से बिता की हम बच्चे से बड़े हो गये। 

अब हम उम्र के उस पड़ाव में थे जब सही और गलत को समझना और उनमे से एक का चयन करना आसान नहीं होता। फिर अगर आप बंगाल में हों तो यहाँ की बात कुछ और ही होती है। यहाँ लड़कियां(चाहे वो मूलत:‌ बंगाली हो या गैर बंगाली) १२ के उमर से ही प्रेम मे पड़ने लगती है। कितनों की तो १५ की उमर मे शादी तक हो जाती है। यहाँ प्रेम विवाह का चलन है। भाग कर शादी कर लेना और बाद मे मां बाप का उसे स्वीकार कर लेना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। यहाँ के हवा और पानी मे प्रेम विवाह रचा बसा है। आप इसे ऐसे समझिये की आज जिस लड़की ने खुद अपने घरवालों से बगावत करके भाग कर प्रेम विवाह किया हो वो अपने बेटी को ऐसा करने से कैसे रोक सकती है। लड़के भी यहाँ के उमर के पहले ही जवान हो जाते है। कालेज तो बहुत दूर है, भाई साहब, यहाँ के लड़के स्कूल से ही लड़कियां भगाकर ले जाते है। हालांकि मैं बिहारी परिवार से था मगर जनम करम जब यहाँ है तो मैं इसके प्रभाव से कैसे बच सकता था। 

पूरे भारत मे प्रेम उत्सव १४ फ़रवरी को मनाया जाता है। मगर क्या आप जानते है कि एक मात्र बंगाल ही भारत का ऐसा राज्य है जहाँ प्रेम उत्सव सरस्वती पूजा के दिन मनाया जाता है। इस दिन यहाँ की सभी लडकियां , चाहे वो प्राइमरी स्कूल की हो या डिग्री कालेज की, साड़ी पहनती है। ये एक तरह की परम्परा रही है यहाँ की। हर घर से एक सरस्वती बाहर निकलती है उस दिन कच्चे हल्दी से नहाना और साड़ी पहनना जैसे कोई दैविय आदेश हो। अब जरा सोचिये जिस लड़की को आप रोज़ आम कपड़ों मे देखते है उसे अचानक साड़ी मे देखकर कैसा लगेगा। आंखें चमक जाती है और दिल हिचकोले खाने लगता है। मैं भी इससे अछुता तो नहीं रह सका। पर मेरा भाग्य देखिये नज़र भी उसी पर पड़ी जिसपर मेरे पहले मुहल्ले के सारे लड़के किस्मत आजमा चुके थे।

साल १९९८, सरस्वती पूज का दिन था मैं अपने स्कूल से वापस आ रहा था। कपड़े मैंने अपने बडे भाई के पहन रक्ख़े थे जिसके कारण मेरी पतलून ज़मीन से घिसती जा रही थी। मेरे हाथों मे पतंग और घिरनी थी। यहाँ इस दिन पतंग उड़ाने की भी परंपरा है। जैसे ही मैं अपने घर की गली मे मुड़ा तो देखता हूँ की एक लड़की घुटनों तक अपनी साड़ी उठाए है। वो अपने एक हाथ मे अपनी चप्पल और दूसरे हाथ से अपनी साड़ी को पकड़े हुए है। उसका एक पैर कींचर मे फंसा हुआ है और दुसरा लड़ख़ड़ा रहा है। अब आप सोच रहे होंगे की फ़रवरी के महीने मे तो बारिश नहीं होती तो यहाँ इतना किंचर कैसे आया? तो मैं आपको बता दूं की ये बात १९९८ की है और हम जहाँ रहते थे वहाँ कोई पक्की सड़क नहीं थी। हमारे यहाँ बरसात के समय इतना पानी जम जाता है की हमारे घर से मुख्य सड़क तक पूरे ४ महीने पानी हटता हीं नहीं। बिल्कुल पिछड़ा इलाका जहाँ नेता भी पांच साल मे एक ही बार मुख्य सड़क पर आते थे। 

हमें आदत थी इस तरह रहने की। हम तो तीन महीने लाल बहादुर शास्त्री के तरह किताबें सिर पर रखकर तैरते हुए घर से सड़क तक आते थे। खैर, अभी बात मेरे प्यार से पहली मुलाकात की हो रही है। तो मैंने उसे देखा, वो पिले रंग की साड़ी मे थी और अभी गिरने ही वाली थी। मैंने उससे मदद के लिये पुछा। उसने पीछे देखा और नाक चढ़ा कर बोली “ হেল্প লাগাবে না, আমি নিজে পার হবো”। मैंने भी मन मे सोचा मेरी बला से, जाओ गिरो। मैंने भी गमछा लपेट कर पैंट उतारी घिरनी और पतंग सिर पर रक्खा और छपर-छपर करते हुए आगे बढ़ गया। जैसे हीं मैं उससे आगे निकला मुझे छपाक की एक आवाज़ सुनाई पड़ी । मैं पीछे मुड़ा तो देखा वो कीचड़ में सनी हुई थी। चेहरे, कपड़े, बाल सब मिट्टी से सने हुए। उसे देखकर मेरी हंसी छूट गयी। चुकी वो और मैं दोनों उत्तर-पूर्व की दिशा मे थे तो उसने मुझे देखा नहीं। बेचारी का पूरा मेकअप खराब हो गया होगा। ये हमारे बीच होने वाली पहली बात-चीत थी मगर इसके बाद कई दिनों तक हम दोनों ने एक दूसरे को नहीं देखा।

मैं तब साइकिल से स्कूल जाया करता था। ठंडी के दिनों में अक्सर मुझे साइकिल कंधे पर उठा कर हीं सड़क तक लाना पड़ता था। युं ही एक दिन जब मैं सड़क पर पहुंचा और कपड़े पहनने लगा तो गली से वो निकली और मुझे देखकर हंस पड़ी । वाजिब भी था, ऐसे सड़क पर कौन कपड़े बदलता है भाई। मुझे बुरा लगा मगर उसकी हालत याद आ गयी और मैं भी हंसने लगा। मुझे हंसता देखकर वो और ज़ोर से हंसी और चली गयी। वो भी स्कूल जा रही थी। सफेद रंग की कमीज़ और भगवा रंग की स्कर्ट मे वो बहुत सुंदर लग रही थी। उस दिन मैने उसे पहली बार स्कूल जाते देखा बाद मे पता चला की हमारे मुहल्ले की लगभग सभी लड़कियां उसी स्कूल मे ही पढ़ती है। इस बार जब मैंने उसे सामने से देखा तो पहली बार मेरे मन में उसके लिये कुछ हुआ। 

शाम को जब हम सब मैदान मे खेलने के लिये जुटे तो उसे फिर से लौटते हुए देखा। वैसे ये समय स्कूल से लौटने के लिये कुछ ज्यादा देर था, मगर मुझे क्या। उसे निहारते हुए देख बुबाई ने कहा “ দোখিশ না ভাই, ওর বাবা পিছনে আছে, দানব অসুর”। मैं झट से दूसरी तरफ देखने लगा पर उसने मुझे ताकते हुए देख लिया था। तो जब मेरे सामने से गुजरी तो मुस्कुराते हुए निकली। दोस्त तो साले दोस्त ही होते है फिर किसी भी उमर के हो टांग तो खींचेंगे ही। उसे हंसता हुआ देख कर मेरे पीछे पड़ गये। बोले, साले दो साल से हम उसके पीछे पडे है उसने कभी घांस तक नहीं डाली, तुने ऐसा क्या किया जो वो तुझे देख कर हंस रही है। मैं चुप रहा और बात टालने लगा। पर वो कहाँ मानने वाले थे, साले। सब मिलकर मेरी टांग खिंचने लगे और मुझे चिढाने लगे। 

कमिने दोस्त ऐसे हीं होते है, आप अगर किसी चक्कर मे ना भी हो तो उसमें आपको खिंच ही लेते है। मेरे साथ भी ऐसा ही हो रहा था। अभी तक मेरा उसके प्रति ना तो कोई लगाव था और ना ही अलगाव ही था मगर इन लोगों ने मेरे मन मे उसके प्रती लगाव का कीड़ा डाल दिया। उस दिन के बाद से सभी दोस्त मुझे उसे दिखाकर रिझाने लगे। वो भी जब स्कूल जाते या आते समय मुझे देखती तो हंस दिया करती थी। तो ऐसे पहली बार मुझे कोई लड़की अच्छी लगने लगी थी। मजे की बात ये है की अभी तक ना तो मैं उसका नाम जानता था और ना ही वो मेरा नाम जानती थी। हम एक ही मुहल्ले मे रहते थे और लगभग पिछले ढाई साल से हमारी चेहरे से पहचान थी मगर ना तो उसने कभी बात की और ना ही मैंने। अब जब बात होने का मौका बन रहा था तो पता नहीं क्युं मैं हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।

समय बीता और पूजा का समय आ गया। बंगाल मे दुर्गा पूजा से लेकर दीवाली तक गज़ब का माहौल रहता है सभी पुजा की जोश मे रहते है नए कपड़े, जुते और ना जाने क्या-क्या। दिन भर पुजा के पंडाल मे अड्डेबाजी और शाम होते ही घुमने के लिये निकल जाना। ये सब कुछ पुजा के चार दिनों का कार्यक्रम होता है। उसके बाद समय आता है काली पुजा का जो की दीवाली के साथ या एक दिन पहले मनायी जाती है। वैसे तो ये मात्र एक दिन का कार्यक्रम होता है मगर इसकी मस्ती चार दिन बाद तक चलती रहती है। दिन भर मस्ती और रात को किराए पर विडियो देखना। ये सब काली पुजा में आम बात है। उस साल तीन बड़ी फिल्में आयी थी जिसके गाने पूरे बरस गुंजते रहे थे। सिनेमा हाल जाना हमारे लिये वर्जित था और विडियो साल दो साल मे एक ही बार नसीब होता था। मगर इन तीन फिल्मों ने ऐसा गदर मचाया हुआ था की इनको देखने को जी मचल रहा था। 

ये फिल्में थी कुछ-कुछ होता है, प्यार तो होना ही था और सोल्जर। सभी के गाने एक से बढकर एक थे। जो कि जवानी के तरफ बढ़ रहे बच्चों के लिये आग में घी का काम कर रहें थे। काली पुजा के अगली रात को सबने मिलकर विडियो किराए पर लाने का तय किया। मुख्य रुप से यही तीनों फिल्में ही मंगवायी गयी थी। मुझे याद है “कुछ-कुछ होता है, प्यार तो होना ही था” ये दोनों फिल्में देखने के बाद से ही मैं काजोल को पसंद करने लगा था। उसकी आंखें मुझे बड़ी लुभावनी लगती है (आज भी वो ही मेरी प्रिय अभिनेत्री है)। मगर सबसे मजेदार बात ये थी की जब मैंने कजोल को देखा तो अचानक ही मुझे उसकी याद आयी। मुझे कजोल में उसका चेहरा दिखने लगा था और तभी पहली बार मेरे दिल की घंटी उसके लिये बजी थी। ना जाने क्युं कजोल में और उसमें मुझे कोई फर्क़ ही नहीं दिख रहा था। ऐसा लगा जैसे मुझे उससे प्यार हो गया था। हाँ मैं उससे प्यार करने लगा था। 

इसके बाद अगले चार दिन तक मेरे अंदर एक बेचैनी सी रहने लगी। चाहे मैं कही भी रहूं पर मैं उसिके बारे में सोचता रहता था। ये बडी अजीब सी बात हो रही थी मेरे साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। इसके पहले कभी भी मुझे गाने पसंद नहीं थे। मगर अब हर समय कुछ ना कुछ गुनगुनाता हीं रहता था। मुझे हर समय बस खेल के मैदान मे जाने की जल्दी होती थी। मन किसी चीज़ मे नहीं लग रहा था ना तो पढ़ने मे ना ही खेलने मे। स्कूल से निकलते हीं मैं भाग कर घर आता था। ना खाना खाया ना कपड़े बदले ना जुते खोले बस भाग कर मैदान। वहां भी खेलता नहीं था बस उसे ही ढूंढता रहता था। ऐसे कई दिन बीते मगर वो मुझे नहीं दिखी। मैंने अपने स्कूल आने जाने का समय और रास्ता दोनों बदल दिया ताकी कहीं तो उसे देख सकूं मगर वो तो जैसे गायब ही हो गयी थी।

मन बेचैन, दिमाग सुन्न और तबीयत खराब सी हो रही थी। क्या करूं कुछ समझ मे नहीं आ रहा था। फिर एक दिन खेलते हुए बुबाई ने मुझसे पुछा आज-कल मैं खेल क्युं नहीं रहा? मैंने बात टालने की कोशिश करी मगर वो बोला - भाई तेरी वाली तो घूमने गयी हुई है, अपने परिवार के साथ। अगले हफ्ते लौटेगी। मैंने उसे ऐसे अनसुना किया जैसे मुझे क्या। मगर सुनकर अच्छा लगा की वो कब लौटेगी। मैंने बुबाई से पुछा के वो किसकी बात कर रहा है तो वो बोला, साले तेरी वाली की बात कर रहा हूँ “पाखि” की। तब जाकर मुझे पता चला की उसका नाम पाखि है। उस दिन शाम को जब मैं घर लौटा तो खुशी मेरे आंखों मे थी। क्युंकी मेरे और उसके नाम की मैचिंग 76% हो रहा था। नहीं समझे ना, आज के बच्चे क्या समझेंगे की बीना शोसल मिडीया वाले ज़माने मे हमारे पास लव% निकालने के क्या उपाय थे। तो चलो मैं बताता हूँ फार्मुला। वो होता कुछ ऐसा था कि आपके नाम के अंग्रेज़ी के अक्षर और सामने वाले के नाम के अंग्रेज़ी अक्षर के जोड़ से जो भी अंक आये वो ही आपका लव% था। अब जैसे उसका नाम था पाखि और मेरा रौनी तो अब इसका जोड़ कैसे निकलेगा

PAKHI LOVES RONI = 1,1,1,1,2,1,2,1,1,1,1= 2,2,2,2,4,1,= 3,6,4,= 76%

तो इस हिसाब से मेरा और उसका जोड़ बिल्कुल सही बैठ रहा था। अब मेरे अंदर उतावलापन इतना था की जिस दिन भी वो मुझे दिख जाए मैं उसे ये सब बता दूंगा और कह दूंगा की अब जब इतना ज्यादा प्यार है हम दोनों मे तो आज से मैं तुमसे प्यार करता हूँ। अब इसे बचपना नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे कि अभी तक तो खुलकर बात ही नहीं हुई है और मैं उससे प्यार की बात करने को बेचैन था। बचपना कहाँ ये सब समझता है, उसे तो लगता है अगर मुझे हो गया तो सामने वाले को भी हो गया। जैसे-जैसे दिन गुजरते जा रहे थे मेरी बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी। उससे ना मिल पाना मेरे लिये बहुत तकलीफ देह हो रहा था। मेरे पेट मे जैसे तितलियां छटपटा रही थी। मन के भाव उछल-उछल कर बाहर आने को बेकरार हो रहे थे। 

एक दिन जब मैं स्कूल के लिये निकला तो उसे घर लौटते देखा। मेरा दिल लपक कर उसके तरफ भागने को तैयार था। मगर उसके पिछे-पिछे उसके मां-बाप और भाई भी थे। उनको देखकर एक बार तो मैं ठिठका मगर दिल कहाँ मानने वाला था। वो तो अपनी बात कहने पर अडा हुआ था। बेताबी ऐसी के रोके ना रुके। मैंने अपने आप को थोड़ा सम्हाला और खुद से कहा, एक दिन तो इन सभी को पता चल ही जाना है की मैं इनकी बेटी से प्यार करता हूँ, और शादी करना चाहता हूँ तो क्युं ना आज मैं खुद हीं सबके सामने कह दूं, जो होगा देखा जाएगा। ये सोच कर मैंने अपनी साईकल को किनारे खड़ा किया, अपने बाल संवारे और अपने कपड़े ठिक किये। स्कूल के जुतों को पैंट से घीस कर थोड़ा चमकाया और उसके तरफ चल पड़ा । 

जैसे ही मैं उसके तरफ बढ़ा वो मुझे देखकर थोड़ा शर्माकर हंसने लगी। मैंने सोचा मौका अच्छा है, मैंने भी अपनी गति बढ़ा दी। जैसे हीं वो मेरे नज़दिक पहुंची मैंने उसका हाथ पकडा और बोला “ पाखि, जब से तुम बाहर गयी हो तब से ही मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ, तुम्हारे बीना ना तो मैदान में मेरा दिल लगता है और ना ही पढ़ाई मे मज़ा आता है, मैं तुमसे बस यही कहने आया हूँ के मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ, और ये भी जानता हूँ की तुम भी मुझसे प्यार करती हो। मैं किसी से नहीं डरता इसी लिये आज मैं तुम्हारे पिताजी के सामने ही तुमसे ये सब कह रहा हूँ”। वो ये सब बड़े ध्यान से ये सब सुन रही थी और मुस्कुरा रही थी। ये सब कुछ उसके मां, पिताजी और भाई ने भी देखा मगर वे सब हंस रहे थे।

ये देखकर मैं थोड़ा हैरान और परेशान हो गया मेरे समझ मे कुछ नहीं आ रहा था। इतने मे पाखि बोल पड़ी - मैं भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ जितना की तुम मुझसे करते हो। सच तो यह है की मैं भी जब से बाहर गयी थी बस तुम्हें ही याद कर रही थी। जब मैं मन से हार गयी तो अपने मां को सब बता दिया। मेरी मां ने मेरे भाई और पापा को बता दिया। मैंने तो उनसे ये भी कह दिया की मैं तुम ही से शादी करना चाहती हूँ। और इसीलिये हम सब पहले ही लौट कर आ गये। मैंने उसके मां के तरफ देखा तो उन्होंने हाँ मे सिर हिला दिया। मेरी तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। ऐसा लगा जैसे मैंने पूरा संसार ही जीत लिया हो। और इसी खुशी मे मैं उछल पड़ा । ये छ्लांग कुछ ज्यादा ही ऊंची थी। जब मैं वापस ज़मीन पर आया तो किसी ने मुझे पीछे से कस कर एक लात मारी। एक झटके मे मेरी निंद टूट गयी। आंख मलते हुए मैंने देखा मेरे बड़े भाई मुझे गाली दे रहे थे – कमिने साले चैन से सो नहीं सकता? निंद मे हाथ पाव चलाता है, भाग यहाँ से और नीचे जाकर सो जा। मेरा सपना टूट चुका था, मेरे पास ना तो पाखि थी और नाही उसके मां-बाप थे। सब कुछ खतम हो चुका था। जी में आया की मैं भी भैया को दो-चार धर दूं मगर मैंने खुद को उनसे मार खाने से बचा लिया।

घड़ी देखा तो सुबह के पांच बज रहे थे, बाहर झांका सूरज अभी तक निकला नहीं था। पौ फट रही थी तो मैंने सोचा की चलो थोड़ा बाहर जाकर टहल लिया जाए। इसी बहाने उसके घर का चक्कर भी लगा आऊंगा। ये सोच कर मैं बाहर निकला। जुते पहने और मैदान की तरफ भागा। वहाँ मेरे कुछ साथी पहले से मौजूद थे। सब क्रिकेट खेलने की तैयारी में थे। मुझे याद आया की आज रवि वार है, और हमारा मैच है। पास के मुहल्ले के लड़कों से हमने मैंच ले रक्खा था। वो सब भी मेरी ही राह तक रहे थे। मैंच नौ बजे से था और सुबह सब मिलकर पहले थोड़ा अभ्यास करना चाहते थे। करीब नौ बजे के आस पास मैच खेलने के लिये बाहर के लड़के भी आ गये। हम सब तैयार होकर मैच खेलने लगे। पहला मैच हम बुरी तरह से हार गये इतनी बुरी तरह से हार गये की आपस में ही लड़ने लगे। बाहर से आकर उन लोगों ने हमें अपने घर मे हरा दिया था। अगर ये बात मुहल्ले के सिनियर्स को बता चल जाती तो हमारा हाल बुरा होना निश्चित था। इस लिये तय किया गया की एक और मैच खेला जायगा। अगर ये मैच वो जीत गये तो उन्हें हमारी तरफ से एक बैट दी जायेगी। और अगर हम जीते तो एक और मैच खेलेंगे और उसके नतीजे के बाद ही विजेता घोषित किया जाएगा। 

पहले तो वो नहीं माने मगर बाद मे बैट के लालच से मान गये। इस मैच मे पहले हमने बैटिंग करी। हमारे दोनों ओपेनर बिना रन बनाए ही आउट हो गये। बाद मे बाप्पा और बुबाइ ने पारी सम्हाली लेकिन कुल ५० के स्कोर पर ही हम पांच आउट हो चुके थे। जब मैं बैटिंग करने आया तो दस रन बनाकर ही टहल लिया। इस तरह से कुल ७० रन के स्कोरे पर हम सब आउट हो चुके थे। लग रहा था की बैट तो देना ही पड़ेगा । जब उनकी बैटिंग आयी तो उन्होंने ३ ओवर मे हीं ३५ रन ठोक डाले। विकेट एक भी नहीं गीरा था। तब गेंद मैंने अपने हाथों मे ली। मगर पहले दो गेंदो मे दो चौके खाने के बाद और अपने टीम से गालियां खाने के बाद अब मुझ मे बालिंग करने की हिम्मत नहीं रही थी। इस बार जैसे ही मैं गेंद लेकर विकेट के पास पहुंचा तो दूर से किसी को आते देखा। मैं ठिठका, दिल धडकने लगा, सांसे तेज़ हो गयी। करीब पांच सेकेण्ड तक मैं उसे देखते रहा। जैसे हीं मुझे ये समझ मे आ गया की ये वही है, मैंने गेंद फेंक दिया। एक शानदार लेग स्पिन। गेंद बैटर के पैरों के पीछे से होते हुए मिडल स्टंप उडा ले गया। 

सब चौंक गये और खुशी मे उछल पड़े । मगर मेरी नज़र बस उसी का पीछा कर रही थी। करीब आते-आते उसे भी लगा की शायद मैं उसे हीं देख रहा हूँ। तो वो भी मैदान के सामने रुककर मुझे देखने लगी। इस बार उसके साथ कोई नहीं था। मगर मेरे साथ कई लोग थे उसने कंधे से अपना बैग उतारा और मैच देखने लगी। इसके बाद तो मेरे अंदर एक साथ अनिल कुम्बले, शेनवार्न और सक्लेन मुस्ताक़ की आत्मा घुस चुकी थी। अगले तीन गेंदों में मैंने और तीन लड़कों को चलता कर दिया। अब उन्हें जितने के लिये तीन विकेट मे २८ रन की जरूरत थी। जो की असानी से जीता जा सकता था। मगर अब हम मैच मे वापस आ चुके थे मेरे बाद बाकी बचा काम बुबाई ने पूरा कर दिया। अपने ओवर मे उसने तीन छक्के तो खाये मगर अंतिम तीनों विकेट भी लेने में वो कामयाब रहा और मैच हमें जीत लिया। 

आखीरी मैच शुरु होने के पहले ही वो जाने लगी। शायद उसे लगा खेल खत्म हो गया। मगर मेरी हालत को बुबाई समझ चुका था। उसने जोर से चिल्ला कर आवाज़ लगाई जैसे वो सबको बताना चाह रहा हो की अभी खेल बाकी है। वो पलटी, रुकी भी, मगर दूसरे ही पल वापस जाने लगी सब बेकार हो गया। वो चली गयी। उधर वो गयी और इधर हम फिर से टोस्स हार गये। सामने वाले टिम ने हमें बैटिंग करने को कहा। और फिर से वही इतिहास दोहराया जा रहा था। मैं उदास था की वो चली गयी। और मेरी टिम उदास थी क्युंकी उन्हें बैट देनी पड़जाएगी। इस बार हम थोड़ा सम्हल कर खेल रहे थे तो हमारी विकेट तो नहीं गीरी थी मगर रन भी नहीं बने थे। 

जब बुबाई आउट हुआ तो लौटते हुए उसने मुझे बैट करने को कहा और मुझे उसके घर की तरफ देखने को भी कहा। मैंने देखा वो वहाँ से हमारा मैच देख रही थी। मानो मुझे कुछ हो गया अब तक मैं जो थका हुआ दिख रहा था एक ही बार मे तरो-ताज़ा हो गया। इस बार तो मैंने सामने वालों की ऐसी धुलाई की कि अगर उस दिन मेरे सामने शोएब अख्तर भी आ जाता तो उसकी भी खैर नहीं थी। ७ ओवर के खेल मे हमने १३० रन बना दिये। जब गेंद फेंकने बी बारी आयी तो उसमें भी कमाल हो गया। जब मैंने गेंदबाज़ी की तो पहले उसके घर की तरफ देखा और फिर गेंद डाला। १३० के मुकाबले हमने उन्हें ६० रनों मे ही चलता कर दिया। मज़ा आ गया, प्यार में ऐसा भी होता है पता नहीं था। कोई समझे ना समझे बुबाई को सब समझ मे आ रहा था। उसे भी पता तो चल ही गया था। हम खुश थे, और हमारा खेल देखकर सिनियर्स भी खुश थे। सबको जीत की खुशी थी लेकिन मुझे खुशी थी की वो लौट आयी थी। और अब मैं उससे अपने दिल की बात कह सकता था।

मेरी हिम्मत देखो, एक लड़की जिससे मैं आज तक कभी आमने-सामने बात नहीं कर पाया था। अपना नाम भी नहीं बता पाया था। उससे मुझे ये कहना था कि मैं उससे प्यार करने लगा हूँ। कितनी अजीब बात है ना? मगर दिल से मजबूर बंदा कर भी क्या सकता है। उसके प्रति मेरा आकर्षण मुझे पागल किये जा रहा था। शरीर के अंदर हार्मोंस का श्राव तेज होते जा रहा था। वैसे तो और भी लड़कियां थी मेरे मुहल्ले मे मगर पता नहीं क्युं बस उसे हीं देखकर मेरे अंदर हलचल होने लगती थी। पहली बार प्यार मे पड़ने से ये सब होता है। आप समझ ही नहीं पाते की उसमे ऐसा क्या है जो दुसरों मे नहीं है। इस समय अगर आपके पास दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की भी आ जाये और खुद अपने मुंह से कहे की वो आपसे प्यार करती तो भी आपको फर्क़ नहीं पडता। 

आपको उसके गली से, उसके स्कूल, से उससे जुड़ी हर चीज से प्यार होने लगता है। पहले जब दोस्त आपको उसके नाम से छेडते थे तो आपको गुस्सा आता होगा मगर अब आप उसे अपना सम्मान समझने लगते है। इससे आपको इस बात का हक़ मिल जाता है की कोइ और लड़का आपके सामने उसके बारे मे गलत बात नहीं कर सकता। आप अपने दोस्तों मे उसके आधिकारिक प्रेमी के तौर पर पहचान पाने लगते है। आपको ये सारी बातें मज़ेदार लगती है। पर आप उससे ये सब कह पाने में अब भी असमर्थ ही रहते हो। पुरा मुहल्ला आपको उसके नाम से चिड़ाने लगता है। मगर उसे इस बात की खबर नहीं होती। आप मन ही मन खुश तो होते है, मगर डर भी लगा रहता है की कहीं उसको पता चल गया तो फिर क्या होगा? मैं भी इन्हीं सब उधेड़बून मे फंसा हुआ था समझ मे नहीं आ रहा था की क्या करुं? उससे कैसे मिलूँ ? और कैसे अपने मन की बात बताऊँ?

ऐसे समय मे अक्सर आपके दोस्त हीं आपको रास्ता दिखाते है। वो हीं आपको तरीके बताते हैं कि आगे क्या और कैसे करना है। मेरे पास भी एक ऐसा ही दोस्त था जो इन मामलों का एक्स्पर्ट था। नाम तो याद ही होगा आपको जी हाँ अपने सही समझा – बुबाई। वो कहता था की अभी तक उसने कम से कम चार लड़कियां पटाई है। और उसका उन सबके साथ उसका प्यार अभी तक सही चल रहा है। अब प्यार एक ऐसा शब्द है जिसे सुनते ही मन मे लड्डू फुटने लगता है। इस भाई इसके तो चार-चार प्यार चल रहे थे। मेरे लिये तो इससे अच्छा सलाहकार कोई हो ही नहीं सकता था। तो मैं उसके शरण मे गया और सीधे उसके चरणों मे लेट गया। एक बडे अनुभवी आदमी के तरह उसने मुझसे पूरी बात सुनी और कहा- “ तुई किच्छू चिंता कोरिश ना, आमी आच्छी तो, एक बार ई ते तोर काज कोरे देबो”। आमी होलाम एई बिषोयेर एक्स्पर्ट”। जा निश्चिंतो भाबे घुमिये पोर”। 

सुनकर तो अच्छा लगा और थोड़ी हिम्मत भी जागी। लगा जैसे डुबते को तिनके का सहारा मिल गया। ऐसा लग रहा था की कल तक तो सबकुछ ठीक हो जाएगा। कल से ही हमारा प्यार शुरु हो जाएगा। उस पुरी रात मुझे निंद नहीं आई। तरह तरह के सपने देख रहा था। कभी पाखि हाँ कर देती तो कभी उसका बाप मेरी पिटाई कर देता। कभी बुबाई मेरे साथ होता तो कभी वो पाखि को लेकर खुद ही भाग जाता। ये सब कुछ रात भर चलता रहा सुबह हुई तो अपने घर के काम निपटा कर मैं स्कूल जाने के तैयारी करने लगा। सोचा क्युं ना मैं आज उसके स्कूल जाने वाले रास्ते पर रुक जाऊं अगर मुझे दिखेगी तो मैं आज ही उसे सारा मामला कह दूंगा, और हमारा प्यार शुरु हो जाएगा। उस समय मुझे ये समझ नहीं थी कि जैसा मैं उसके प्रति सोचता हूँ, उसका भी मेरे प्रति वैसा हीं सोचना जरुरी है। 

उस समय के फिल्मों मे जैसे हीरो लड़कियों को पहले छेड़ते थे फिर रिझाते और पटा लेते थे ना, मुझे लगा मेरे साथ भी वैसा ही होगा। वैसे भी हम लड़के कुछ ज्यादा ही ज़ल्द्बाज़ी मे रहते है। यह सब सोचते हुए मैं आज घर से दस मिनट ज़ल्दी निकल गया। मोड़ पर जाकर खड़ा भी हो गया, और उसकी राह ताकने लगा। कुछ देर मे वो गली से निकली और आगे बढ़ने लगी। मैं उसे देखकर तैयार होने लगा लेकिन तभी उसके पीछे उसकी मां भी गली से निकली। ये देखते ही मैंने झट से अपनी साइकिल उठाई और भागा, ऐसे भागा की सीधे स्कूल पहुँच कर ही रुका। मुझे डर लग रहा था की अगर उसकी मां ने मुझे देख लिया होगा और सब कुछ समझ गयी होगी तो क्या होगा? वो तो अब तक मेरे घर जाकर मेरी मां से सब कुछ बता चुकी होगी। आज तो घर पर मेरी पिटाई निश्चित है। शाम को माँ से और रात को बड़े भाई के मार से आज मुझे भगवान भी नहीं बचा सकता। 

जैसे-तैसे उस दिन का स्कूल खत्म किया और घर की तरफ लौटने लगा। रास्ते भर मार से बचने के उपाय सोचता रहा। मैं आज साइकिल भी दूसरे दिन से काफी धीमे चला रहा था। कई उपाय सोचे मगर एक भी मुझे शांत नहीं कर पा रह था। जब सड़क से घर दिखने लगा तो सोचा की चलो आज तो मार खाना ही है, जो होगा सो होगा देखा जाएगा। घर पहुंचा तो देखा मां गुस्से में मेरी राह देख रही है। उसका गुस्से वाला चेहरा देखकर मेरा खून सफेद होने लगा। मैने सोचा की इससे पहले मां कुछ कहे मैं खुद ही पूरी बात बता दूंगा। मैं मूंह खोलता उससे पहले मां ही बोल पडी - आज लौटने मे इतनी देर क्युं हो गयी। मैं डरते हुए बोला किसी ने स्कूल मे साइकिल की हवा निकाल दी थी तो पैदल ही आना पड़ा । 

मां मुझे ऐसे घूर रही थी की जैसे अब मारे या तब मारे। वो फिर बोली - तुमने इतनी बड़ी बात मुझसे क्युं छुपाई? अब तो जैसे मेरी अवाज़ ही गायब हो गयी। मैं अटकते-अटकते बोला - ऐसा कुछ नहीं है मां, मैं तो तुम्हे बताने ही वाला था....। इससे पहले की मैं अपनी बात पुरी कर पाता एक ज़ोर का तमाचा मेरे गाल पर पड़ा । कान में सीटी बजने लग़ी। मेरे समहलने के पहले ही दुसरा चांटा भी दूसरे गाल पर पड़ा । मैं रोने लगा और कहने लगा अब नहीं करुंगा मां, गलती हो गयी, आगे से नहीं होगा। मुझे मां के मार से कम डर लगता था मगर मेरा बडा भाई जो की तबियत से मेरी कुटाई करने के लिये जाना जाता है, उसके मार से ज्यादा डर लगता था। मुझे डर था की मां कहीं ये बात उसे ना बता दे। रोते हुए मैं मां से बोला भैया को नहीं बताना, वो बहुत मारेगा। 

मगर मां ने मेरी बात नहीं सुनी और बोली - उसे तो मैं बाद मे बताऊंगी पर तु मुझे ये बता कि तूने ऐसा किया क्युं? कब से तूने लाल्टेन का शीशा तोड़कर पलंग के नीचे छुपाया हुआ है? मैं अभी तक रो रहा था मगर मां के लाल्टेन के कांच की बात सुनकर थोड़ा चुप हुआ। उस समय हमारे मुहल्ले मे बिजली नहीं हुआ करती थी तो हम रात को लाल्टेन ही जलाया करते थे। दो दिन पहले मुझसे उसका शीशा टूट गया था। मैंने मार से बचने के लिये उसे पलंग के नीचे छुपा दिया था। आज जब मा पोंछा लगा रही थी तो उसके हाथ पर शीशे से चोट लग गयी थी। और इसी कारण से वो इतना गुस्सा थी। मेरे सांस से सांस लौटने लगी। उपर से तो मैं अब भी रो हीं रहा था मगर अंदर से हंस रहा था। खुश भी था चलो माँ को कुछ भी पता नहीं है। इस बात से मै इतना खुश था की उसके बाद भी मां ने मुझे तबीयत से कुटा मगर मुझे ना तो उसका दर्द हुआ और ना ही अफसोस ही हुआ। मानो मुर्दे मे जान आ गयी थी। 

थोड़ी देर पहले तक मैं इन सब चिज़ों से तौबा कर रहा था मगर अब ऐसा लगने लगा जैसे मैंने कोई लड़ाई जीत ली हो। मेरी हिम्मत जरा और बढ़ गयी। माँ डांटती रही, चिल्लाती रही मगर मैं खाना खाकर मैदान के तरफ भाग गया। उस दिन को मैं आज तक नहीं भुला, और भूलूँ भी कैसे वैसा डर मुझे पहले कभी नहीं लगा था। ना तो उसके पहले और ना ही उसके बाद, कभी नही। मैदान पहुंचा तो घर की मार भुला चुका था अब मेरी नज़र सिर्फ बुबाई को तलाश रही थी आज उससे मुझे कुछ नए गुण सीखने थे। मगर वो कहीं दिख नहीं रहा था। पता नहीं आज कहा रह गया रोज़ तो इस समय तक चला आता है। लगता है आज उसे भी अपने घर मे किसी बात पर पिटाई पड़ी होगी तभी नहीं दिख रहा है। मगर मुझे तो उससे मिलना ही था तो अगर वो नहीं आया तो मेरे प्यार का क्या होगा? मैं यही सब सोच रहा था। फिर सोचा क्युं ना उसके घर जाकर उसे बुलाया जाए? हो सकता है की सो रहा हो।

मैं बुबाई के घर के तरफ बढ़ने लगा मगर दिल मे अजीब सी बेचैनी थी। पेट मे जैसे एक साथ कई तितलियां नाच रही हो। इसी कारण मेरी चाल भी ज़रा तेज थी। जैसे ही मैं उसके घर के पास आया मैंने उसे भागते हुए बाहर निकलते देखा। वो तेजी से मेरी तरफ भाग रहा था और उसे देखकर मैं भी तेजी से उल्टे तरफ भागने लगा। सबसे आगे मैं था, उसके पीछे बुबाइ था और उसके पीछे उसकी मां दौड़ रही थी। माँ के एक हाथ मे थी एक मोटी से छड़ी और दूसरे हाथ मे थी उसकी चप्पल। मैं पुरी तेज़ी से भाग रहा था मुझे बस बुबाइ से आगे रहना था। क्युकि अगर उसकी मां ने अपने दोनों मे से कोई भी एक हथियार चला कर मारा तो मैं उसकी पहुंच से दूर रह सकूं। हुआ भी ऐसा ही माँ ने चप्पल दे मारी और उनका निशाना भी इतना सटिक की चप्पल सीधे बुबाइ के सिर पर जा लगी। वो चिल्लाया और पहले से ज्यादा तेजी से भागने लगा। हम दोनों मैदान के पार हो चुके थे और उसकी माँ अब थक चुकी थी। 

मैंने उससे हाँफते हुए पूछा तू भाग क्युं रहा है? हुआ क्या? वो बोला कल मेरे टेस्ट के पेपर आये थे। सर ने कहा था की घर से माँ या पापा से दस्तखत करवा कर लाना होगा। तो क्या तुने दस्तखत नहीं करवाये? मैंने पूछा। हाँ करवाये ना, पापा से करवाये- वो बोला। तो फिर क्या हुआ? जब मैं दस्तखत करवा रहा था तभी पता नहीं माँ पीछे से आ गयी और पेपर देख लिया। पापा को तो मैं बहला चुका था मगर माँ ने अच्छे से धुनाइ की मेरी। और जब मैं उससे बचने के लिये भागा तो तु आ गया। मैने पुछा क्या तेरे मर्क्स अच्छे नहीं थे क्या? आये थे ना, पूरे दस में से देढ नम्बर मिले थे। पापा को तो मैं देढ का पंद्रह बता सकता हूँ। मगर माँ को कैसे समझाऊ? फिर हम दोनो हंसने लगे। इस बीच मैं ये बात भुल गया की मैं उसके मिलने क्युं गया था हम खेलने लग गये और कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला। 

इतने में जब मैंने पाखि को स्कूल से आते देखा तब मुझे याद आया की मैं बुबाई से क्युं मिलने गया था। वो रोज़ की तरह मैदान से सटे पगडंडी से निकली और मुझे देखकर मुस्कुरा दी। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था की मैं क्या करूं? मतलब मैं हंसु या घबरा जाउं। जबतक वो मेरे पास से होते हुए दूर नहीं चली गयी मेरे लिये उतना समय बिल्कुल रुका हुआ था। मुझे यूं स्तब्ध देखकर कर उसकी और जोर से हंसी छुट गयी। इतने मे बुबाई ने मेरे सर पर एक टपरी दे मारी और बंगाली मे बोला – “फिरे आय भाई, ओ चोले गेच्छे”। तब जाकर मुझे उसके जाने का भान हुआ। 

मैं बुबाई के ऊपर टूट पड़ा और बोला साले तूने कहा था की तू मुझे उससे बात करने का तरीका बताएगा। और अब जब मैं पागल हुए जा रहा हूँ तो तू कुछ कर ही नहीं रहा है। बुबाई बोला – किसने कहा की मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ? मैंने एक मस्त प्लान बनाया है। कल शाम को जब वो स्कूल से वापस लौटेगी तो मैं और तू दोनों गली के अंत मे खड़े रहेंगे। उसके आते ही तू उसके साथ चलने लगना और उसे अपनी बात बता देना। मैं देखता रहूंगा, जैसी ही कोई आयेगा मैं तुझे इशारा कर दूंगा , और तू कट लेना। उस समय ये प्लान अच्छा लगा। चुकी इससे पहले कभी ऐसा काम किया नहीं था तो इसके खतरे से वाक़िफ भी नहीं था। बस ठान लिया की ये तो करना ही है। 

अगले दिन शाम को हम दोनों एक घण्टे पहले से ही मोड़ पर खड़े थे उसके आते ही बुबाई ने मुझे इशारा किया। मैं उसके तरफ बढ़ने लगा। मगर जैसे ही उसके पास पहुंचा तो बुबाई को भागते हुए देखा। उसे भागते देख मेरे बदन मे एक करन्ट सा लगा और मैं भी उसके पीछे भागा। मैंने उससे पुछा ही नहीं कि वो क्युं भाग रहा था। बस भागता रहा पसीने से तर बतर हम दोनों मैदान मे जाकर गिर पड़े । कुछ देर हाँफ़ने के बाद वो मुझसे बोला, तू क्युं भागा? मैंने कहा तू भागा तो मैं भी भागा। वो बोला अबे मैं इस लिये भागा क्युंकी मैंने अपने ट्युश्न टीचर को आते देखा। मैं उसे कस कर एक लात मारा और वो वही धरती पर बैठ गया। फिर हम हंसने लगे। इतने मे वो वहां से गुजरी मगर आज वो थोड़ा गुस्से मे दिख रही थी। मुझे लगा की शायद उसने मुझे देख लिया होगा और इसी कारण चिढ़ी हुई है। ये सब सोचते हुए मैंने एक और लात बुबाइ को जड दिया। वो आग बबुला हो गया और चला गया। मैं भी अपने घर को लौट गया।

अब मैं सोच मे पड़ गया की उससे बात कैसे करुं कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। उस रात मैंने दूरदर्शन पर एक फिल्म देखी। उन दिनों हर शुक्र वार और शनी वार रात को टी.वी पर फिल्मे आती थी। उसमें एक सीन मे एक अधेड उम्र का आदमी हीरो से कहता है की अगर किसी लड़की को पटाना है तो पहले उसके सहेली को पटाओ। शायद वो फिल्म थी “चमेली की शादी”। ये बात मुझे जंच गयी। मैंने भी सोचा इस बुबाई के चक्कर में ना पड़कर मुहल्ले की किसी दूसरी लड़की से बात की जाय जो उसकी अच्छी सहेली हो। पूरे तीन दिन लगाकर मैंने उसकी एक सहेली ढूंढ निकाली। चुकी मुझे उससे प्यार नहीं करना था बल्की उसकी मदद चहिये थी तो मुझे उससे बात करने मे डर नहीं लगा। मैंने सोमा से बात की और उसे एक ही बार मे सब कुछ बता दिया। 

सोमा सही लड़की थी, वो भी आठवीं में थी तो हमारे बीच बात की शुरुआत के लिये पढ़ाई का भी एक बहाना बन सकता था। सोमा हमारे साथ मैदान मे खेलती भी थी मेरी बात सुनकर पहले तो हंसी और फिर बोली तू अभी तक उससे बात नहीं कर पाया। मैं तो सोच रही थी कि तू कबका बोल चुका होगा। मैं थोड़ा चक्कर मे पड गया और पुछा तुझे ये सब मालूम था? वो बोली मुझे क्या पूरे मुहल्ले के बच्चों को पता है की तू उसके चक्कर मे पड़ा हुआ है। और सभी सोचते है की तेरी-उसकी बात भी तय हो चुकी है। मैंने उसे रोकते हुए पुछा – ये बात तुझे किसने बताई। उसने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे कुछ समझाना चाहती हो मगर फिर बोली , तूने ये बात किस-किसको बताई है? मैं बोला मेरे सिवा सिर्फ बुबाई हीं ये बात जानता है। उसने अपने कंधे उठाते हुई मुझे इशारा किया।

तब मैं समझा मैं जिसे एक राज़ समझ रहा था वो तो सभी को पहले से हीं मालूम था। पर क्या उसे भी ये मालूम था? क्या इसी वजह से वो मुझे देखकर हंसती थी और मैं अब तक इसी उधेड़बुन मे था की उससे बात कैसे करुं। मैं इसी खयाल में था, मगर एक डर ने मुझे झकझोर दिया। अगर ये बात मुहल्ले से सभी बच्चों के पता है तो उसके माँ या बाप तक पहुंचने मे कितना समय लगेगा। फिर तो एक दिन ये बात मेरे घर भी पहुँच सकता है। अब जो हो गया था उसे बदलना तो नामुमकिन था मगर जिसने ये बात फैलायी है उसे तो मैं छोडुंगा नहीं। अब मेरी नज़रे बुबाई की तलाश मे थी। उस समय अगर वो मेरे सामने आ जाता तो वही उसका मूंह तोड़ देता मैं। 

सोमा बोल पड़ी , तुम भी तो ८ मे पढ़ते हो ना, मैंने हाँ मे सर हिला दिया। अच्छा है, उसे मैथ का एक सवाल नहीं आ रहा है। तो अगर तुम उसे हल कर दो तो शायद मैं उससे तुम्हारा परिचय करवा सकती हूँ। वो चेहरे से तो तुम्हें जानती हीं है मगर शायद नाम से नहीं जानती। एक काम करो कल जब मैं शाम को पढ़ने जाऊं तो तुम मुझे गली मे मिलना। हम साथ ही ट्युशन जाती है। मैं तुम्हें उससे मिलवा दूंगी। हाँ मगर एक बात मेरी मानो तो पहली बार में ही फट नहीं जाना। थोड़ा समय दो, पहले दो एक बार मिल लो, उसे जान लो फिर सही समय पर कह देना। पहली बार में ही सब कुछ कह देने से शायद वो तुम्हें कुछ और ही समझ ले। उसकी बात मुझे अच्छी लगी। मैं मान गया इससे पहले की मैं वहाँ से भागता सोमा ने मेरे हाथों मे एक पन्ना थमा दिया, इसमें एक सवाल था। गणित का सवाल!

मैंने हामी तो भर दी थी मगर सच कहूं तो मैं खुद ही गणित से दूर भागता था। क्लास मे पास मार्क्स भी लाने मे मेरे पसीने छूट जाते थे। मगर “लड़की का चक्कर बाबु भैया, लड़की का चक्कर” जो ना करवाये कम है। अब इसे हल कैसे करूं। एक तो उसकी भाषा भी बंगाली थी, जो की कोई समस्या नहीं थी क्युंकी मैं पढ़ और समझ तो लेता ही था। मगर जब हिंदी मे मुझे गणित समझ नहीं आती तो भला बंगाली मे कैसे पल्ले पड़ती । पर मैंने भी एक तरक़िब निकाली और अपने ट्युशन मे जाकर वो सवाल हल करवा लिया। एक बार तो मेरे मास्टर साहब भी चकरा गये की रौनी मैथ के सवाल पुछ रहा है? वो लड़का जो हमेशा इस विषय के क्लास में गायब रहता था वो आज खुद ही सवाल पूछ रहा था। मेरे मास्टर जी के मुंह से जो पहला सवाल निकला वो था – क्युं रे तू किसी लड़की के चक्कर मे तो नहीं पड़ गया ना? तेरे लक्षण मुझे सही नहीं लग रहे है। 

ये बात सुनकर बाकी के सारे बच्चे हंसने लगे। मैं संकोच मे पड़ गया की इन्हें कैसे पता चली ये बात। मास्टर जी मेरी तरफ देखते हुए बोले चल कोई नहीं मैं समझा देता हूँ। अब तुने पहली बार हिम्मत दिखायी है तो इतना तो करना ही पड़ेगा । मैं अंदर से बहुत खुश हुआ मगर सर की बात से जैसे एक डर भी लगा। खैर मेरी एक समस्या तो हल हो चुकी थी। मगर तब क्या होता जब उसे मैं ये सवाल समझाता और बीच ही मे खुद अटक जाता तो? ये सोचकर मैंने पहले खुद सवाल समझने का फैसला किया। दो से तीन बार हल करते ही मैं समझ गया की ये मेरे बस की बात है नही। तो फिर क्या करुं उससे बात करने का मौका गंवा दूं? ये तो नहीं हो सकता था। फिर लगा क्युं ना सवाल को रट लूं। इससे मुझे पूरा सवाल याद भी रहेगा और एक झटके मे उसके सामने सवाल हल कर दुंगा तो उसे भी कोई शक नहीं हो पायेगा। 

यही सोचकर मैं पढ़ने बैठ गया मैंने अभी पढ़ना शुरू ही किया था कि माँ दरवाजे की पास से गुजरी। वो एक पल को वहां ठिठकी और अंदर आकर सीधी मेरे ललाट पर हाथ धर दिया। फिर मेरे बदन टटोलने लगी। मुझे बड़ा अजीब सा लगा। मैं उन्हें देखने लगा वो बोली बेटा तेरी तबीयत तो ठीक है ना? ये तू क्या कर रहा है? मैं उन्हें सवालिया नज़रों से देखने लगा। थोड़ा रुककर वो फिर बोली, स्कूल मे मार पडी है क्या? और ये कहते हुए हंसने लगी। मैं चिढ़ गया और जाने लगा तो वो बोली, इसमें मेरी क्या गलती है आज तक कभी तुझे बिना मार खाये पढ़ते हुए नहीं देखा तो मैं क्या सोचूं? खैर पढ़ रहा है तो अच्छा ही कर रहा है कम से कम अकल तो ठिकाने आयी तेरी। 

अगले दिन जब मैं गली मे सोमा की राह देख रहा था तो उधर से बुबाई निकला। उसे देखते ही मेरा पारा चढ गया। मैंने निचे से एक ढेला उठाया और उसकी तरफ दे मारा साले के पैर पर लगी, और थोड़ा खून भी निकलने लगा। पहले तो वो खोजने लगा की उसे मारा किसने, मगर मुझे देखकर वो समझ गया की किसने और क्युं मारा। मैं उस तक जाकर उसे पकड़ पाता उसके पहले ही वो भाग खड़ा हुआ। मैं उसकी दिशा में बढ़ता मगर तभी सोमा गली से निकली, मेरे मन मे हलचल होने लगी मगर ये क्या पाखि तो उसके साथ थी हीं नही। सोमा चल कर मुझ तक आ चुकी थी मगर पाखि का कोई अता पता नहीं था मेरे पास आते ही उसने हाथों से पीछे की तरफ इशारा किया। पाखि पीछे से आ रही थी।

मेरी धडकने तेज़ हो गयी। मन मे डर और उत्सुकता एक साथ घुमडने लगी। मैंने उसके तरफ देखा मगर हाथ हिला भी नहीं पाया। अपने इस व्यवहार से खुद ही नाराज़ भी हो गया। सवाल का पन्ना सोमा को देते हुए कहा की देख ले ये सवाल हल कर दिया है। सोमा ने कागज पाखि के तरफ बढ़ाते हुए कहा, ले देख ले मैंने कहा था ना की रौनी ये कर लेगा। कागज लेते हुए उसने सोमा से पुछा इसका नाम रौनी है? मैंने हाँ मे सर हिला दिया। फिर वो बोली ठीक है मैं इसे बाद मे देख लुंगी। और इतना कहकर वो जाने लगी। इससे पहले की मैं उसे टोकुं वो मुडी और चल पडी पर दो कदम पर रुक गयि और पीछे मुड कर बोली, तुम क्रिकेट बहुत बढ़िया खेलते हो। देखा मैंने कैसे तुम अपनी टीम को जीत दिलवाये थे।

मुझे लगा चलो इसे मुझमे कुछ तो अच्छा दिखा। ये एक सकारात्मक शुरुआत के लिये काफी है। मैंने भी मौके को हाथ से जाने नहीं दिया और उसे अपने अगले मैच का न्योता दे दिया। वो हंसी और पुछने लगी की मैच कब है? इसी रविवार को – मैं बोला। ठीक है आ जाऊंगी। उसके इस जवाब से लगा की थोड़ी बहुत चिंगारी तो उधर भी लगी थी। वरना वो एक बार मे आने के लिये तैयार तो नहीं हुई होती। वजह चाहे कुछ भी रही हो मेरे लिये उसका मुझसे बात करना ही बहुत था। इस तरह से मेरी उसकी बात आगे बढी। अभी मैं सोमा के बताए रास्ते पर चल रहा था यानी पहले जान पहचान और फिर प्यार की बात। इसके बाद हम कई बार मिलने लगे। कभी खेल के मैदान मे तो कभी बज़ार जाते हुए। तो कभी स्कूल आते जाते हुए। 

अब अक्सर वो मुझे क्रिकेट मैच के दौरान चीयर करने आती थी। मुहल्ले के सभी लड़के हैरान और परेशान थे की ये हो क्या रहा है? जिसे वो पटाने के लिये सर पटकते रह गये वो तो मेरी झोली मे किसी मेहनत के बीना ही गिर गई थी। ये देख कर बाकी लड़के मुझसे जलने लगे थी। खास करके बाप्पा और बुबाई दोनो। जले भी क्युं नहीं एक तो मैं इस मुहल्ले मे उनके बाद आया था और उपर से मैं बंगाली भी नहीं था फिर भी मैंने उस लडकी को पटा लिया था जिसे वो आज तक पटा नहीं पाये। तो जलना तो बनता है भाई। अब वो अपनी खुन्नस कैसे निकाले? तो उन लोगों ने हम दोनो का नाम बदनाम करना शुरु कर दिया। अब तक जो बच्चे हमारे बारे मे नहीं जानते थे वे भी सब कुछ जान चुके थे। रही सही कसर हमारी एक गलती ने पुरी कर दी।

हुआ यूं की उस दिन मुझे स्कूल जाने मे देर हो गयी थी तो मैं इसी वजह से तेजी से साईकिल चला रहा था। मन मे खयाल चल रहा था कि अगर देर हो गयी तो क्लास टिचर हाजरी नहीं देंगे। लेकिन जैसी ही मैं बडे सडक पर आया तो देखा पाखि अकेले अपने स्कूल के तरफ जा रही थी। मैंने मजाक मे ही उससे पुछ लिया की तुम्हे स्कूल छोड दूं। मुझे यकिन था की वो ना ही कहेगी क्युंकी मेरा और उसका दोनों का स्कूल एक दूसरे के बिल्कुल उलट दिशा मे था। पर मेरे पुछते ही उसने हाँ कर दिया, और बोली देखो ना मेरे पैर मे कल मोच आ गयी थी जिसके वजह से मैं ठीक से चल भी नहीं पा रही हूँ। माँ से कहा की आज स्कूल नहीं जाना है तो उन्होने सीधे मना कर दिया, और मुझे स्कूल भेज रही है। लगता नहीं है की मैं समय पर स्कूल पहुंच सकूंगी। 

एक प्रेमी के लिये इससे अच्छा और क्या हो सकता है की उसकी प्रेमिका उसके साथ उसी के साइकिल पर बैठ कर स्कूल जाए। मगर ठहरो मैं तो खुद भी लेट था ना? अगर मैं समय पर नहीं पहुंचा तो मेरी भी हाजिरी नहीं हो पाएगी। ये सोच कर मैं ठिठका, पर अगले ही पल मे मैंने फैसला कर लिया- भांड मे जाए आज की हाजिरी, आज तो मैं अपनी प्रेमिका को उसके स्कूल सही समय पर पहुंचा कर ही रहूंगा, चाहे फिर कुछ भी हो जाए। मैंने उसे झट से साईकिल पर बैठाया और उसके स्कूल की तरफ कूच कर गया। रास्ते भर हमने कई बातें की पर मैंने अपने मन की बात बताई नही। उसके बताये रास्ते पर चलते हुए हम उसके स्कूल तक पहुंच गये। जब उसे उतारा तो उसकी सहेलियां मेरे साथ उसे देखकर हंसने लगी। मुझे अपने सूरत पर थोड़ा भी भरोसा नहीं था तो मुझे लगा शायद वो ये सोच कर हंस रही होंगी की कैसे बंदर जैसे लड़के के साथ पाखि आयी है। 

पाखि उतरी और अपने स्कूल के तरफ चल पड़ी। जाते जाते उसने बंग्ला मे कहा – “तुई की जावार सोमोय आमाके निए जेते पारौनी? आज के आमार मा आसबे ना”। मैंने उसे ऐसा दिखाया जैसे मैं बहुत परेशान हो जाऊंगा मगर उसे हाँ कह दिया। सच तो यह था की मेरे पास उसे वापस ले जाने के अलावा और कोइ दुसरा चारा ही नहीं था। इसकी दो वजह थी १. मैं अपना स्कूल पहले ही मिस कर चुका था तो इस समय घर तो लौट नहीं सकता था। और २. मुझे यहाँ से वापस जाने का रास्ता भी ठीक से पता नहीं था। चुकी मैं यहाँ पहली बार आया था और पूरे रास्ते मेरा ध्यान सिर्फ उससे बात करने मे था तो मैं रास्ता समझ ही नहीं पाया। 

अभी बज रहे थे १०:३० और मुझे ३:४५ तक यहाँ छुप कर रहना था। छुप कर इस लिये क्युंकी मैं स्कूल के कपड़ों मे था। मेरा बैज ये चिल्ला-चिला कर कह रहा था कि एक बोयस स्कूल का लड़का इस समय एक गर्ल्स स्कूल के बाहर क्या कर रहा है। फिर किसी जान पहचान वालो का यहाँ से गुजरना भी मुमकिन था। अगर एक बार अगर ये बात घर तक चली गयी तो पता नहीं क्या हो जाता। मैं छुपने की जगह ढूंढने लगा। पास ही में एक मंदीर दिखा जहाँ कोई उत्सव चल रहा था। साईकिल लगाकर मैं अंदर चला गया। लगभग पांच घण्टे के बाद मैं बाहर निकला तो सीधे उसके स्कूल के तरफ भागा। वहाँ जाकर देखा की एक भी लडकी नज़र नहीं आ रही थी। मुझे लगा की शायद मुझे देर हो गयी और वो चली गयी। 

मैं खुद से नाराज़ होने लगा और खुद ही पर चिखने लगा। वहाँ से गुजरने वाले लोग मुझे देखकर हैरान हो रहे थे। मैं वापस जाने के लिये मुडा तो मुझे स्कूल की घंटी सुनाई दी। तब मेरी जान मे जान आयी। समझ मे आया की छुट्टी तो अब जाकर हुई है। मेरे परेशान चेहरे पर मुस्कान खिल गयी। एक-एक करके लड़कियां बाहर आने लगी। जो भी मेरे सामने से निकलती मैं उसमें पाखि को खोजने लगता। सभी लडकिया चली गयी मगर पाखि नहीं निकली। ये कैसे हो सकता था अब मैं घर कैसे जाऊंगा? मुझे तो रास्ता भी नहीं मालूम था। जब स्कूल की आखिरि लडकी भी चली गयी तो मुझे डर लगने लगा। एक बार फिर से मेरे पसीने छुटने लगे। लेकिन तभी पाखि ने मुझे आवाज़ लगायी। “कि रे, कोबे थेके खूंज्छी तोके आमी, कोथाय दाराते बोले छिलाम? आर तुइ कोथाय दारिये आछिस?

ये शब्द मेरे लिये किसी राहत से कम नहीं थे मुझे उसके मिलने से ज्यादा मुझे खुशी इस बात की थी की अब मैं सही समय पर घर पहुंच जाऊंगा। मुझे मेरी माँ से किसी तरह की कहानी नहीं सुनानी पड़ेगी । खैर उसे साईकिल पर बैठाकर हम दोनों घर की तरफ चले। पूरे रास्ते हम बात करते रहें। कभी पढ़ाईकी तो कभी खेल कूद की तो कभी युं ही इधर उधर की बात। इतना अच्छा मौका होते हुए भी मैं उससे वो बात नहीं कह पाया जो कहने के लिये मैं मरा जा रहा था। अभी मेरे दिमाग के अंदर सिर्फ दो बात थी। एक मुझे और उसे साथ मे कोई देख ना ले और दुसरा जितनी जल्दी हो सके मैं अपने घर पहुंच जाऊं। मगर इस बार मैंने उसके स्कूल के रास्ते को अच्छे से देख लिया था ताकी अगली बार मुझे उसका रास्ता ना देखना पड़े । 

जब हम घर की गली मे आये तो उसे उतर कर जाने को कह दिया। ताकी हम दोनों को किसी को कोई जवाब ना देना पड़े । लेकिन “अभागो के सुखस्वप्न कभी पूरे नहीं होते” तो मेरे भला कैसे हो सकते थे। हम दोनों को रास्ते मे तीन लोगों ने देख लिया था। एक थी सोमा जिसने मुझे उसे छोडते हुए भी देखा और लाते हुए भी देखा था। दुसरा था पाखि का बाप जिसने हमे मेन रोड पर देखा था। और तीसरा था मेरा मेरा दोस्त बुबाई (साला कमिना)। सोमा ने ये बात किसी को नहीं बताई पाखि का बाप मुझे भी जानता था और ये भी जानता था की पाखि के पैर मे मोच है तो उसने इस बात को गलत तरिके से नहीं लिया। पर साले बुबाई ने तील का तार बना दिया। साले ने पूरे मुहल्ले मे हम दोनों के नाम के पर्चे बंटवा दिये। छोटे से लेकर बडे तक सबको जुबान पर हम दोनो का नाम था। 

इन सब बातों से मैं डर रहा था मगर पाखि को कोई फर्क़ नहीं पड़ता था। बल्कि वो तो इसके बाद और खुलकर मुझसे बात करने लगी। अब मेरे और पाखि के बीच बात दोस्ती से आगे बढ़ सकती थी। जबसे बुबाइ ने ये बात फैलायि थी पाखि मेरे साथ और भी मुखर हो गयी थी। पहले वो मैदान मे खेलने नहीं आती थी मगर अब वो मैदान मे आती भी और मेरे साथ खेलती भी थी। एक बार जो हम दोनों ने बैड्मिंटन हाथ मे थाम लिया तो फिर किसी और के खेलने की बारी आना बिल्कुल मुश्किल हो जाता। दिन बीतते गये और हमारी दोस्ती भी बढती गयी। मगर दोस्ती बढ़ने के साथ साथ मेरा डर भी बढ़ता चला जा रहा।

कहते है दोस्ती से प्यार तक का सफर सबसे मुश्किल और खतरे भरा होता है। सही भी है क्युंकि जब आप अपने प्यार के सबसे अच्छे दोस्त बन जाते है तो आपके मन मे ये डर बैठ जाता है की प्यार के इज़हार के चक्कर मे कहीं अच्छी खासी दोस्ती से भी हाथ धोना ना पड जाये। इसी वजह से अक्सर सच्चा प्यार दोस्ती के नाम पर बली चढ़ जाता है। मेरे साथ भी वैसा ही कुछ हो सकता था। इसके पूरे असार भी थे क्युंकी दिल की बात मैं उससे कर नहीं पा रहा था। और दोस्ती बढ़ती ही जा रही थी। पर मुझे तो उसका दोस्त बनना ही नहीं था। मुझे तो.................................... बस बहुत हो गया। अगर अब भी मैंने उससे दिल की बात नहीं की तो बात हाथ से निकल जाएगी। मगर कैसे करूं? कह तो नहीं पाउंगा तो फिर कैसे कहूं। 

चिट्ठियों का अस्तित्व अभी तक खतम नहीं हुआ था। मैंने भी उसे खत लिखने का सोचा। खत लिख भी लिया मगर समस्या ये थी की उसे हिंदी पढ़ना नहीं आता था। बात समझ लेती थी मगर हिंदी पढ नहीं पाती थी। तो अब क्या करूं? मुझे तो बंग्ला लिखने आता है ना, तो क्युं ना मैं अपना पहला प्रेम पत्र बंग्ला मे लिखूं। तो मैंने अपना तय कर लिया की मैं उसे बंग्ला मे खत लिखूंगा। मैंने कलम उठाई और लिखना शुरु किया

প্রিয় পাখি,

আমি তোমাকে অনেক ভালোবাসি। আর আমি তোমাকে ছাড়া বাঁচতে পারবো না। তোমাকে অনেকবার বলার চেষ্টা করেছি কিন্তু তোমার সামনে আসার সাথে সাথে আমার আওয়াজ বের হয় না। কিন্তু এখন আমি বাঁচতে পারব না আর এই কথাটা না বললে আমার কোথাও মৃত্যু যেন না আসে। । এখন তুমি আমার ভালোবাসা মেনে নেবে কি না সেটা তোমার ব্যাপার। তোমার রবি। 

मैंने खत तो लिख डाला मगर लिखावट इतनी गंदी थी की पुछो मत। हिंदी की लिखावट सही है मगर दूसरे भाषा में पहली बार लिखना बहुत डरावना अनुभव होता है। अपने हाथ से अपना पहला प्रेम पत्र लिखना बहुत कठिन था। पर मैं किसी और पर भरोसा भी तो नहीं कर सकता था। पहले ही सब मेरे पीछे पड़े हुए थे। अगर किसी और से खत लिखवाता तो बात फैलने का डर था और इस तरह से बात हम दोनों के बीच ही रह जाती और किसी को कानो-कान खबर नहीं होता।

खत लिखने की हिम्मत तो मैं कर चुका था और लिख भी लिया था। मगर उस तक ये खत पहुंचाना भी तो था। अब ये काम कैसे होगा? बहुत सोचने के बाद मैंने खुद ही उसे देने का भी निर्णय कर लिया। थोड़ी हिम्मत जुटाई और शाम को उससे मिलने का विचार किया। अभी तक हम दोनों के बीच इतनी बातें हो चुकी थी की अगर वो मेरे प्रस्ताव को नकार भी देती तो भी इस बात का कोई हंगामा नहीं होता। बस तय कर लिया की अब मुझे देर नहीं करनी चहिये। उस दिन शाम को जब मैं मैदान पहुंचा तो बेसब्री से उसकी राह तकने लगा। मेरे सब दोस्त खेल रहे थे और मैं एक कोने मे खडे होकर उसके आने की राह देख रहा था। एक-एक पल जैसे एक दिन के तरह बीत रहा था। बेचैनी और डर दोनों एक साथ मेरे मन में गोते लगा रहे थे। 

मुझे उसके ना कहने का डर नहीं था मगर ये बात उसे किसी और से पता चले ये भी मुझे गवारा नहीं था। आज उसे लौटने मे काफी देर हो रही थी। रोज़ करीब साढे चार बजे तक लौट आती थी मगर आज पांच बजने को थे मगर उसकी कोई खबर नहीं थी। अब तक सोमा भी घर लौट चुकी थी। तभी मेरी नज़र गली मे घुसते हुए एक साइकिल पर पड़ी । एक १६-१७ साल का लड़का अपने पीछे एक लड़की को बैठाए हुए था। वो दोनों मैदान के तरफ ही बढ़ रहे थे जब वो दोनो करीब आये तो मालुम पड़ा की उसके पिछे पाखि बैठी हुइ थी। मुझे अजीब तो लगा पर बिना कुछ जाने गलत सोच लेने वाला लड़का मैं नहीं हूँ। 

पता नहीं क्युं मगर उन दोनों को गली से मुड़ते देखकर हीं मेरे मन में एक डर समा गया था । मुझे किसी अनहोनी का आभास होने लगा था। जैसे-जैसे वो दोनों मेरे पास आ रहे थे मैं अतीत के कुछ लम्हों में खोता जा रहा था। मुझे अनायास ही पाखि के साथ बिताये वो सारे पल याद आने लगे थे जो मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत लम्हे थे। बड़े सड़क से मैदान की दूरी करीब २०० मिटर की हीं थी मगर उन दोनों के मुझ तक पहुंचने के बीच जैसे मैंने पूरे तीन साल जी लिये थे। कहते है जब किसी की मौत होने वाली हो तो उसे अपने बचपन से लेकर मौत के पहले की सभी यादों की झलक दिमाग में दौड़ने लगती है। मगर क्या दिल टूटने पर भी ऐसा हीं होता है, मुझे मालूम नहीं था। उनका मेरी तरफ़ बढ़ता हुआ एक-एक कदम मुझे मेरे अतीत की तरफ धकेलता जा रहा था। 

मेरे भी दिमाग मे पुरानी यादों का चलचित्र दौड़ रहा था मगर बिल्कुल उल्टी गिनती की तरह। अभी—भी दस दिन पहले की हीं तो बात है जब वो अपनी स्कूल की तरफ से सभी लड़कियों के साथ बेलुर मठ जा रही थी। जाते हुए उसने मुझसे कहा की वो जा रही है क्या मैं उसके साथ चलूंगा? मैं एक पैर पर तैयार हो गया और कहा की साथ तो नहीं चल सकता मगर मैं तुमसे वहां मिलने जरूर आ सकता हूँ। वो बोली कि मैं तुम्हारे आने का इंतज़ार करुंगी, और तुम्हारे साथ हीं लौटूंगी। किस्मत से उस दिन मेरा स्कूल बंद था तो मेरा घर से बाहर जाना मुमकिन नहीं था। मैंने उससे वादा तो कर दिया था मगर उस वादे को निभाना मेरे लिये किसी चुनौती से कम नहीं था। 

सबसे बड़ी चुनौती थी माँ को समझाना। माँ मुझे यूं हीं कही जाने नहीं देती थी। मैंने बहुत दिमाग लगाया और मां को मनाने के सारे प्रयत्न कर डाले। मगर मां थी के मुझे जाने देने को तैयार हीं नहीं थी। पाखि को गये हुए एक घंटे से ज्यादा हो चुके थे और अभी तक वो शायद बेलुरमठ पहुंच भी गयी थी। मगर मैं अभी तक मां को मनाने में लगा हुआ था। अंत में जब मैं रोने लगा और बोला की बस तीन घंटे के लिये हीं जाने दो तो माँ ने गुस्से में कहा – ठीक है जा मगर याद रखना की दोपहर के बारह बजे के पहले लौट कर चले आना। अगर तु बारह बजे तक नहीं आया तो मैं तेरे भाइयों को तेरी सारी शैतानी बता दूंगी, और फिर तू खुद हीं निपटना उनसे। 

उस समय मुझे कहाँ भाई के मार की चिंता थी, मुझे तो बस किसी भी तरह बेलुरमठ जाकर पाखि से मिलना था। मैं बिल्कुल पागलो की तरह साईकिल चलाता हुआ उसकी तरफ भागा। उस समय मेरे घर से बेलुरमठ की दूरी लगभग ५ किमि थी। और साइकिल हीं सबसे आसान ज़रिया था वहां तक जल्दि से पहुंचने का। मैं भागा और ऐसा भागा की एक घण्टे में ही वहाँ तक जा पहुंचा। मुझे वो में गेट पर हीं मिल गयी, शायद वो लौट रही थी। मुझे देखकर वो बहुत खुश हुई, उसकी आंखें ऐसे चमक उठी जैसे की उसे उसका कोई करीबी अंजानी भीड़ मे मिल गया हो। जैसे दो प्रेमी दुनिया से नज़र चुराकर मिलते है ना, ठीक उसी तरह। हमने पूरे मठ का चक्कर लगाया, हर चीज़ देखी। ये सबकुछ करते हुए उसने पूरे समय मेरा हाथ पकडा हुआ था। तभी मेरी नज़र मठ की इमारत पर टंगी घड़ी पर पड़ी जो ११:१५ का समय दिखा रही थी। 

मैंने उससे कहा – अब मुझे जाना होगा, मैंने माँ से कहा था की मैं बारह बजे तक लौट आऊंगा। वो बोली पर इतनी जल्दी क्युं? मैंने कहा – जैसे तुमसे किया हुआ वादा मैंने निभाया उसी तरह मैंने माँ से भी एक वादा किया था कि मैं समय रहते हीं लौट आउंगा। वो समझ गयी और फिर बोली ठीक है तो चलो मैं भी चलती हूँ, वैसे भी हम तो लौट हीं रहे थे। हम दोनों जैसे हीं मेन ग़ेट पर पहुंचे, देखा पाखि की माँ उसकी राह देख रही थी। हालांकि मेरे साथ उसे देखकर भी उन्होंने कुछ कहा नहीं। मैं डर गया मगर तभी पाखि बोली – तोमरा चोले जाओ, आमी रौनिर साथे ओर साइकिले कोरे आसछी। उसकी मां ने उसे एक बार तरेरा जरूर मगर पाखि को जैसे कोई फर्क़ ही नहीं पड़ा । फिर हम घर लौट आये।

इसके बाद भी एक घटना घटी थी। हम जहाँ रहते थे वहां बाबा लोकनाथ का एक विशाल मंदिर है। हर साल फरवरी ले महीने में उस मंदिर का सलाना उत्सव होता था। पूरे कसबे के लोग उस दिन अपने घर में खाना नहीं बनाते थे। दिन भर मंदिर में हीं रहते, पुजा पाठ का दौर चलता। भगवान का भोग बनता और शाम को सभी लोग लाइन लगाकर भोग के लिये बने खिंचरी हीं खाते थे। एक लाइन लगकर कस्बे के सभी लोग खड़े होते और एक-एक करके उन्हें खिंचरी बांटा जाता। ये तो हुई बड़ों की बात, हम बच्चों को ऐसे हीं मौके की तलाश रहती थी। स्कूल से छुट्टी, और फिर पूरा दिन मंदिर मे गुजारना। लोगों के चढाये हुए फलों से अपना पेट भरना और धमाचौकडी बस यही काम था। मगर उस समय हमारे ग्रुप का कुछ और ही काम चल रहा था। 

मैं और मेरे दोस्त सब उसी मंदिर में थे और खेल-खेल में एक दूसरे की टांग खिंचते हुए हम एक दूसरे के प्रेमिकाओं को लेकर छेड़खानी करने लगे। आमतौर पर ये सभी लड़कों के टोली में होता ही रहता है। और उस उम्र मे किसी के मन को ठेस पहुंचाना कोई बहुत बड़ी बात तो थी नहीं। मेरे सभी दोस्तों ने मिलकर मुझे झाड़ पर चढ़ाना शुरू कर दिया की मैं आज हीं जाकर पाखि से अपने दिन की बात कह दूं। मैं नहीं माना तो वो कहने लगे की तु मर्द ही नहीं है, तेरे अंदर दम हीं नहीं है और जाने कितनी तरह की बाते। यदि आपके भी बचपन में ऐसे शैतान और भडकाऊ साथी रहे होंगे तो आप मेरे भावनाओं को समझ जायेंगे। उन लोगों ने मुझे उसके नाम से इतना चिढ़ा दिया था की मैं गुस्से और जोश मे आकर पाखि को “आई लव यु”। बोलने को तैयार हो गया। 

वो हमसे दो चार क़तार दूर हीं बैठी थी। वो भी मुहल्ले के लड़कियों के साथ थी, और उनकी नज़र भी हमारे तरफ ही थी। शायद उनमे से किसी ने हमारी बात भी सुनी थी। तभी जब मैं उनकी तरफ बढ़ा तो सभी पाखि को अकेला छोड़ कर दूर चली गयी। मैंने भी देखा की यही सही मौका है अपने मन की बात बताने का तो मैं उसकी तरफ बढ़ने लगा। मै ठिक उसके पीछे जाकर खड़ा हो गया और एक झटके में बोल दिया – पाखि, आई लव यू”। बोलकर मैं भागा, बड़ी तेजी से भागा, ऐसा भागा की अपने खेमे मे जाकर हीं रुका। फिर अपनी शेखी बघार =ते हुए कहा – देखा ना मैंने कैसे अपने दिल की बात कह दी। मेरे दोस्त मुझपर हंसने लगे, मैंने उनकी तरफ देखा और पूछा हंस क्युं रहे हो? सब बोले तूने किससे कहा, पाखि तो वहां है हीं नही, वो तो अपनी मां के साथ मंदिर के अंदर है। मगर तभी दो लड़कियां पाखि के पास गयी और उसके कानों में कुछ कहा। उन्होंने जो कुछ भी कहा वो सब सुनकर पाखि गुस्से में वहां चली गयी। जाते समय उसने मुझे भी गुस्से से देखा, कुछ बोली नहीं, बस चली गयी। उस दिन के बाद वो मुझसे सीधे आज मिल रही थी, अपने साथ एक अंजान लड़के को लिये हुए।

मैं उसे देखता रहा, पाखि साइकिल से उतरी और मेरे तरफ़ बढ़ने लगी मेरे पास आकर उसने कहा, आज तुम खेल नहीं रहे? फिर मेरे कुछ कहने के पहले ही वो पीछे मुड़ी और उस लड़के के तरफ इशारा करके उसे मेरे पास आने को कहा। जब तक वो हमारे पास आता पाखि मुझसे बोल पड़ी रौनी मुझे तुमसे एक बात बतानी है। ये जो लड़का है ना, इसका नाम संजय है। हम दोनों पिछले एक साल से साथ है और आपस मे प्यार करते है। आज मैं इसे तुमसे और अपनी मां से मिलवाने लाई हूँ। 


मुझे झटका तो लगा मगर मैंने भी उससे पूछ लिया तुम इसे मुझसे मिलाने क्युं लाई हो? अपनी मां से मिलवाने की बात मेरे समझ मे आती है मगर मैं इसमे क्या कर सकता हूँ। इतने मे वो लड़का भी हमारे पास आ चुका था आते ही उसने हाथ मिलाया और नाम भी बताया। मुझे उससे मिलने या उसका नाम जानने का थोड़ा सा भी मन नहीं था। इतने मे पाखि बोली तुमसे मिलवाने की वजह है और बहुत बड़ी वजह है। वो वजह तुम भी जानते हो और मैं भी जानती हूँ। मैं समझा नहीं-मै बोला? मैं जानती हूँ की तुम मुझसे प्यार करने लगे हो। ये बात मुझे तुम्हारी बातों से साफ साफ पता चलता है। हो सकता है आज या कल तुम कह भी दो मगर इससे पहले की तुम्हारा दिल टूटे मैं तुम्हें सच बता देना चाहती हूँ। मैं संजय से प्यार करती हूँ ये बात मैं आज अपनी मां को भी बता दूंगी। मैं नहीं चाहती थी की जब तुम मुझसे अपने प्यार की बात कहो तो ये बात जानकर तुम्हें तकलीफ हो। 

तकलीफ तो हो रही है पाखि- मैं बोला, और बोलता रहा, और हाँ तुमने मुझे बताने में देर भी कर दी है। मैं तो आज तुम्हें पत्र देने वाला था, जो की मैं दूंगा भी। क्युंकि मैं ये कभी नहीं बर्दाश्त कर सकता की मैंने तुम्हें अपने दिल की बात नहीं बताई। ये मैं तुम्हारे लिये लाया था ले लो, चाहो तो पढ़ना य फिर फेंक देना मगर लेने से इनकार मत करना। एक बात और ये बात जानते हुए भी की तुम मुझसे प्यार नहीं करती, मैं तुम्हें प्यार करना नहीं छोड़ सकता। तुम्हें अपने हिस्से का प्यार करने का हक़ है और मुझे अपने हिस्से का प्यार करने का हक़ है। मैं इन बातों मे नहीं जाऊंगा की मुझमें क्या कमी है या फिर उसमें क्या अच्छाई है क्युंकी तुमने मुझे अपना फैसला सुना दिया है। एक बात और आज के बाद हम दोस्त नहीं रह सकते, नहीं मैं ये रिश्ता तोड़ नहीं रहा हूँ बल्कि एक नया रिश्ता जोड़ रहा हूँ। तुम चाहे तो मुझे कुछ भी समझो मगर मेरे लिये आज से बल्कि अभी से तुम मेरी प्रेमिका हो और आज के बाद हमेशा रहोगी।

इतना कहकर मैं वहां से चला गया, एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। ना तो रोया और ना ही हाय तौबा मचायी। अभी तक अपना जो भी नुकसान कर चुका था ( समय और पढ़ाई का) अब उसकी भरपाई करनी थी। बस मन मे एक बात बैठा ली थी भले ही वो मुझसे प्यार करे ना करे मैं उससे हमेशा प्यार करता रहूंगा। उस दिन के बाद भी हम अक्सर रास्ते मे और मैदान मे मिल जाते थे मगर कोई बात नहीं होती थी। एक दो बार मैंने उसे स्कूल भी छोड़ा मगर किसी तरह की बात नहीं हुई। उस घटना के तीन साल बाद तक (जब तक मैं कालेज नहीं जाने लगा) मैंने कभी किसी और लड़की के बारे में नहीं सोचा। उसे संजय के साथ देखकर थोड़ी तकलीफ जरूर होती थी मगर मैंने उसे जाहिर नहीं होने दिया। हाँ सपनों मे वो आज भी मेरी ही थी। मेरी दुनिया मे मेरे सिवा किसी और का उसपर कोई हक़ नहीं था। 

समय बीतता गया और मेरी ज़िंदगी भी बदलती रही। पढ़ाई पूरी की नौकरी करने के लिये शहर तक बदल दिया। धीरे धीरे उस समय की सभी यादें धुंधली हो गयी। करीब बीस साल के बाद २०२० मे जब मुझे अपने पुराने घर जाने का मौका मिला तो सोचा एक बार उस मैदान को भी देख आऊं यही सोचकर उस तरफ निकला था। जो कभी वीरान बस्ती हुआ करती थी वहाँ अब पैर रखने की भी जगह तक नहीं बची थी। कच्ची सड़कें पक्की हो गयी थी मैदान तो अब कही दिख ही नहीं रहा था। वापस मुड़ा तो एक अधेर उमर की औरत को देखा जो मेरे पास से होकर निकल गयी उसके पीछे एक लड़का दौड़ते हुए जा रहा था। और ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था पाखि-ओ-पाखि ओ दिके जास ना, संजय ओ दिके नेई। मैं स्तब्ध रह गया, ये पाखि थी जो अब दिमाग से लाचार हो गयि थी। कारण क्या था पता नही। शायद संजय ने धोखा दे दिया। शायद संजय मर गया। शायद संजय खो गया। क्या हुआ पता नहीं चला। मैने पता करना उचित भी नहीं समझा। जो होना था हो चुका था मेरा पहला प्यार अधुरा रह गया था। तो अगर उस दिन उसने मेरे प्रेम को स्वीकार कर लिया होता तो क्या होता? क्या वो अब ऐसी नहीं होती या फिर शायद मैं उसकी जगह पर होता? तो क्या ये मान लिया जाय की जो होता है सब अच्छे के ही लिये होता है। 

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                                           "दिल गलती कर बैठा है"

सानिया

 

बात २००७ की है मुझे कालेज खत्म किये दो साल हो चुके थे| पहली बार किसी कोर्पोरेट कम्पनी मे काम करने का मौका मिला था। वैसे नौकरी तो मैं २००२ से ही कर रहा था मगर उसे मैं नौकरी मानता नहीं था। कलकत्ता के बड़ा बाज़ार मे आपको मजदूरी का काम थोक के भाव मे मिल जाता है। मेरी भी शुरुआत ऐसी ही एक मज़दूर के हैसियत से ही हुई थी। मैं उस काम को छोटा या बडा नहीं कर रहा हूँ। मगर मेरा मन उस काम मे लगता नहीं था। इसी कारण मैं उसे नौकरी नहीं मानता था। खैर जब मुझे पहली बार किसी बड़े कम्पनी मे काम करने का मौका मिला तो लगा जैसे ज़िंदगी अब संवर जायेगी। लेकिन हम जैसा सोचते है वैसा होता नहीं है। ज़िंदगी हर मोड़ पर हमें चौंकाती रहती है। हम चाहे हम कभी उसके लिये तैयार रहे ना रहें। पाखि वाले किस्से के बाद मैंने सोच लिया था की चाहे जो भी हो जाये मैं कभी दोबारा प्यार के चक्कर मे नहीं पडने वाला। अपने इसी फैसले के कारण मैंने अपनी बाकी के स्कूल के दिन और कालेज के दिन बिना इस बला के नजदीक गये हीं बिता दिये। बस एक गुस्सा था खुद के अंदर की मैंने जिसे चाहा उसने मुझे कभी नहीं चाहा। तो अब मैं फिर किसी को भी नहीं चाहूंगा। 

मेरे दोस्तों की ना जाने कितने प्रेम प्रसंग रहे होंगे। कितनों को तो मिलाने मे मेरी अहम भूमिका भी रही। मगर मैं खुद कभी इस दलदल मे पड़ना नहीं चाहता था। तो कभी पड़ा भी नहीं। सोचा जब किस्मत में शादी होना लिखा होगा तो मुझे भी मेरा साथी मिल हीं जायेगा। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने खुद से कभी भी किसी लड़की को प्रपोज किया हो। पूरे कालेज के समय मे मेरी एक भी लड़की से दोस्ती नहीं हुई। हालांकि मेरी शकल भी कुछ इतनी बुरी नहीं थी कि मैं कोशिश करता तो निराश हो जाता। मगर पाखि के जाने के बाद खुद पर से मेरा भरोसा भी डगमगा गया था। अपने इस कमज़ोरी को मैंने अपने अभिमान में बदल लिया। कुल मिलाकर सख्त लौंडा बने रहने की भरपूर कोशिश करता रहा। आलम ये रहा की अक्सर मेरे बाकी के दोस्त हरेक छुट्टियों वाले दिन अपने साथी के साथ मौज करते थे और मैं अकेला घर पर रहा करता था। मेरे दोस्त भी गिन चुनकर तीन से चार ही थे और वो भी अपनी प्रेमिका के साथ ही रहना पसंद करते थे। मेरे हिस्से मे बस अकेलापन ही था, जो मैंने खुद ही चुना था। लेकिन एक बार जो ठान लिया वो ठान लिया। कभी कोइ दोस्त कहता भी की किसी लड़की से मेरा परिचय करवा देगा तो भी मैं मना ही कर देता था। पाखि के बाद किसी और के लिये उस तरह के भाव मेरे मन मे जागे ही नहीं। वो कब की जा चुकी थी मगर मैं उसे भुला नहीं पा रहा था। किसी और से रिश्ता जोड़ना मेरे लिये पाखि के प्यार को धोखा देने के समान था। मैं कभी पाखि को धोखा नहीं दे सकता था चाहे वो मेरे साथ हो ना हो।

ऐसा कहते है कि हरेक आदमी की जीवन मे एक दुसरा मौका जरूर आता है। जब वो अपने किसी अधूरे काम को पूरा कर सके। अब वो काम कुछ भी हो सकता है चाहे कोई गलती सुधारनी हो। चाहे कोई बात पुरी करनी हो या फिर चाहे अपना प्यार पूरा करना हो। ये मौका कब और कैसे आयेगा वो किसी को नहीं पता होता। मुझे भी नहीं था। समय बदल चुका था और अब मोबाइल सेवा अपने पाँव पसार रहा था। नोकिया के ३३१० मोडल को भला कौन भूल सकता है। मुझे याद है मैंने जो पहला फोन खरिदा था वो ३३१० ही था। साथ मे हच का सिम कार्ड। शायद ये वो पहली चीज़ थी जो मेरे पास मेरे दोस्तों से पहले आयी थी। बाकी मामलो मे मैं उनसे बहुत पिछे छूट चुका था। उस समय मोबाईल सेवा आज के तरह दुरुस्त नहीं थी। अक्सर ही गलत नम्बर से आपके पास फोन आ जाया करते थे। एक ऐसा ही फोन मेरे आफिस के एक साथी के पास आया जिसका नाम कृष्नेंदू था। कोई लड़की थी जो किसी रौनी से बात करना चाह रही थी। जिसके पास फोन आया था वो सिर्फ एक ही रौनी को जानता था, मुझे, पर मैं उस लड़की को तो जानता जी नहीं था। उसने मुझसे पुछा की क्या मैं किसी सानिया को जानता हूँ? तो मैंने ना मे सर हिला दिया। कृष ने पहले तो उसे मना कर दिया पर जब उसे तीन से चार बार फोन आया तो उसने पहले तो उसे बहुत जली कटी सुनायि और बाद मे मुझ पर भी बिफर गया। 

मैंने उससे इस गुस्से का कारण पूछा तो बोला एक तो वो लड़की तेरे बारे मे पूछ-पूछ कर परेशान कर रही है और उसपर तु है जो जाने क्युं उसे मेरा नम्बर दे दिया है। मैंने कहा - मगर भाई अभी तक तो मुझे तेरा नम्बर भी नहीं पता तो मैं उसे तेरा नम्बर दे कैसे सकता हूँ? ये बात उसे भी समझ मे आ गयी। वो बोला भाई लगता है उस लड़की को किसी लड़के ने गलत नम्बर दे दिया होगा। या फिर अभी जो नम्बर मेरे पास है वो पहले उस रौनी का होगा तभी वो रौनी से बात करना चाहती है। बेचारी परेशान लगती है, मैं एक काम करता हूँ अगर इस बार उसका फोन आयेगा तो मैं उसे तेरा नम्बर दे दूंगा । तू एक बार बात करके देख शायद उसका कुछ भला ही हो जाये। और हो सकता है की तेरा भी कुछ भला हो जाये। 

मैं बात करुंगा वो भी एक अंजान लड़की से तेरा दिमाग तो सही है ना- मैं बोला। इस बात पर उसने मुझे समझाया की मुझे उससे मिलकर तो बात करना है नहीं जो मैं संकोच में हूँ मुझे उससे फोन पर बात करना है और अगर मुझे सही ना लगे तो दोबारा उससे बात नहीं करूं तो भी उसे या मुझे क्या फर्क़ परने वाला है। बात तो उसकी सही थी और इसी लिये मैं भी बात करने को तैयार हो गया। सोचा चलो अब जो होगा देखा जायेगा।

मैं बात करने को राज़ी तो ह गया मगर क्या बात करनी है ये तो मालूम ही नहीं है। एक तो मैंने पहले कभी किसी अंजान लडकी से बात नहीं की है। और उसपर भी फोन पर बात करने का भी कोई अनुभव नहीं था। लेकिन भैया हम लड़कों की तो लड़कियों से बात करने के नाम पर ही पेट के अंदर खलबली मच जाती है। उसे हाँ करने के बाद जाने क्युं मैं अब सानिया के फोन का इंतज़ार करने लगा था। दोपहर से शाम हो गयी और शाम से रात मगर मेरे फोन की घंटी नहीं बजी। रात को जब हम सभी घर के लिये रवाना हुए तो कृष्नेंदु ने मुझसे पूछा भाई कोई फोन आया क्या? मैने बडे उखडे अंदाज़ मे कहा, कहाँ कोई काल आया, तू तो बस मेरी टांग खिचने मे लगा रहता है। उसी बात पर चार गालियां भी सुना दिया। गाली सुनकर वो थोड़ा हंसा और बोला - तु तो कह रहा था की तुझे उससे बात ही नहीं करनी है। मगर अब तो ऐसा लग रहा है की जैसे तुम उससे बात करने के लिये मरा जा रहा है।

पर तु घबरा मत वो लडकी भी किसी से बात करने के लिये मरी जा रही है। शायद तुम दोनों की जोडी सही बैठ जायेगी यही सोच कर मैंने तुम्हे उससे बात करने को कहा है। ऐसा बोलकर वो तो चला गया पर मुझे फिर से उसके फोन के लिये तडपता हुआ छोड गया। मैं पूरे रास्ते बस मे बैठे हुए उसके फोन आने की राह देखता रहा। मगर कोई फायदा नहीं हुआ। जब घर आया तो सोचा की अब अगर फोन आ भी गया तो अब उससे बात कर पाना आसान नहीं हो पायेगा। खाना खाकर मैं अभी सोने वाला था की मेरे फोन की घंटी बजी। नम्बर अंजान था तो तो मेरे बड़े भाई ने कहा की नाम नहीं दिख रहा है। इसमे मैं झट से खाने से उठा और भाग कर फोन पकड़ लिया। दूसरे तरफ से किसी ने कहा क्या मैं विकाश से बात कर सकता हूँ? ये सुनकर मेरे अंदर हेराफेरी के परेश रावल की आत्मा जाग गयी “ फोन रख, तू फोन रख रे बाबा” बस यही कहना चाहता था मैं। मगर फिर खुद को रोक कर कहा रोंग नम्बर है।

मेरी खुशी एक झटके में गम मे बदल गयी। दिल की धडकन जो बढ़ी थी एक ही बार मे रुक गयी। भाइ ने मेरे तरफ देखा तो बोला सब कुछ ठिक तो है? मैं ने हाँ मे सिर हिला दिया, मगर कुछ बोल नहीं पाया। अब मैं खुद को ही समझाने मे लगा रहा की मैं बच्चों जैसी हरक़त क्युं कर रहा हूँ? जब फोन आना होगा आ जायेगा भला मुझे क्युं इतनी बेसब्री हो रही है? मगर ये दिल जिसने आज तक किसी लड़की ने खुद से आगे बढ़कर बात नी की हो उसे किसी के फोन का इंतज़ार करते हुए बेसब्र हो जाने मे कोई गुरेज नहीं था। इसी तरह दो दिन बीत गये मगर कोई भी फोन नहीं आया। अब किसी भी चीज़ के इंतज़ार की एक सीमा होती है। और जब वो सीमा पार हो जाती है तो व्यक्ति का मन उससे उठने लगता है। पहले दो दिन के इंतज़ार के बाद अब मेरा ध्यान उससे हटने लगा था। उस दिन दोपहर को हम सब लंच ब्रेक पर खाना खाने बैठे ही थे तभी मेरे फोन की घंटी बज ऊठी। फिर एक अंजान नम्बर देखकर मैं उसे लेने के मूड मे बिल्कुल भी नहीं था उसी समय कृषनेंदू मेरे पिछे आकर कहता है, भाई फोन ले ले ये उसी का है। अभी अभी उसने मुझसे तेरा नंबर लिया है। पहले बार उसने तेरा नंबर खो दिया था। तो आज फिर से मुझसे तेरा नंबर लेकर फोन कर रही है। मैं तो खाना पिना सब छोडकर भागा सीधे ओफिस के बाहर जाकर फोन उठाया। दूसरी तरफ से एक बहुत ही मिठी सी आवाज़ मे कोई लड़की बोली, क्या मैं रौनी से बात कर सकती हूँ। ये मेरे लिये आश्चर्यजनक बात थी कि कोई लड़की जिसे मैं जानता तक नहीं उसे मेरा नाम पता था।

मैंने उससे पूछा आप किस रौनी से बात करना चाहती है? क्युंकी मैं तो आपसे पहले कभी मिला ही नहीं हूँ। बस यहीं से हमारी बातों का सिलसिला चल पड़ा । तब मोबाईल पर बात करना कोई सस्ता काम नहीं था। हरेक मिनट के २५ पैसे लगते थे। लेकिन उस दौर मे भी हम कई कई घंटों तक मोबाइल पर बात करने लगे थे। कभी वो फोन करती तो कभी मैं फोन करता था। उसने कभी भी मुझसे अपना नम्बर रिचार्ज करवाने के लिये नहीं कहा। जब भी बात करते तो बहुत साड़ीबात हुआ करती थी। मुझे पता नहीं था कि वो किस रौनी को खोज रही थी? बस पहली बार और आखिरी बार ही मैंने उससे उस रौनी के बारे मे पूछा था। और उसका जवाब भी कभी नहीं मिला। मैं इस कदर उसके प्यार मे गिरने लगा था कि बिना उससे बात किये ना तो मेरे सुबह होती और ना ही रात ही होती। 

मैं एक बार प्यार मे हार चुका था। मगर इस बार ऐसा लग रहा था की मैं किसी और के लिये बना ही नहीं था। मुझे तो बस सानिया से ही मिलना था। कुछ दो तीन महीने बीत चुके थे हमें फोन पर बात करते हुए। मगर आज तक हम कभी मिले नहीं थे। ना तो उसने कभी मुझसे मिलने की इच्छा जाहिर की और ना ही मैंने कभी उससे मिलने को कहा। मुझे अपने चेहरे पर इतना तो भरोसा था हीं कि जिस भी दिन वो मुझसे मिलेगी, अगले दिन से बात करना ही छोड़ देगी। मैंने सोच लिया था की जबतक वो खुद से मुझे मिलने को नहीं कहेगी तबतक मैं भी उससे मिलने की ज़िद नहीं करुंगा। एक तरफ़ प्यार बढ़ता जा रहा था और दूसरी तरफ मेरा डर भी बढ़ता जा रहा था। मैं उससे मिलना तो चाह रहा था मगर उसके कहने का इंतज़ार कर रहा था। इस बार मैंने ना हारने की कसम खाई थी। तो इस बारे मे मेरे अलावा और किसी को पता ही नहीं चलने दिया। बचपन मे एक बार पूरे मोहल्ले को पता चल जाने के कारण से रायता फैल गया था। मगर इस बार मैंने ये बात अपने जिगरी यार से भी छुपा कर रख लिया। मगर वो कहते है ना बकरे की अम्मा कब तक खैर मनायेगी, वो ही हाल मेरा भी था। 

स्कूल से लेकर कालेज और फिर कालेज से लेकर नौकरी तक मेरे जीवन मे बस तीन ही दोस्त रहे थे। "थे" इस लिये क्युंकि अब कौन कहाँ है कोई नहीं जानता। कम से कम मैं तो किसी के बारे में कुछ भी नहीं जानता हूँ कि वो तिनों कहाँ है? और नाहीं आज के दिन मे मैं जानना ही चाहता हूँ। क्युं? खैर वो कहानी कभी किसी और दिन के लिये छोड़ देता हूँ । तो जबतक सानिया वाली बात बस मेरे और सानिया के बीच थी, सब कुछ सही चल रहा था। मैं मिलने की कामना रखे हुए उससे बात किया करता था। मगर खुद से उसे मिलने को बुला सकूं इतनी हिम्मत अभी तक मुझमे हुई नहीं थी। ऐसे में अक्सर दोस्त हीं काम आते है। मगर किसी और को अपने प्यार के बीच आने देना बिल्कुल वैसा हीं है जैसे अपने हिस्से की ज़मीन पर किसी और को घर बनाने की इज़ाजत दे देना। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था और मेरी बेकरारी भी बढ़ती जा रही थी मगर उसने अभी तक मिलने की बात कभी नहीं कही।

कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं उसके लिये सिर्फ एक मन बहलाने की चीज़ हूँ? मैं खुद से कई बार ये सवाल किया करता था। लेकिन इसका जवाब हमेशा "ना" में ही पाता था। क्युंकि आम तौर पर लड़कियां आप से तब तक ही बात करती है जबतक की उन्हें आप मे कुछ मनोरंजक मिलता रहता है। मैं जब भी उसे फोन लगाता था वो झट से उठा लेती थी। जैसे वो भी मेरे फोन का हीं इंतज़ार कर रही हो। वो कभी भी मेरी बातों से बोर नहीं हुई। मुझसे मेरे घर के बारे में बात करती थी। अपने घर के बारे मे बताती थी। आज उसने क्या किया, कल वो क्या करने वाली है, मां ने क्या कहा, घर मे क्या चल रहा है, ये सब बात मुझे बताती थी। वो मेरे संग हंसती थी, रोती थी, मुझसे रुठ जाती थी और मुझे मनाती भी थी। ये सब हो रहा था मगर सब फोन पर हो रहा था सामने मिलकर नहीं। जब मैंने उसे अपने नौकरी के बारे मे बताया तो उसने मेरा हौसला बहुत बढ़ाया । वो हमेशा मुझसे कहती थी रौनी देखना एक दिन तुम्हें बहुत अच्छी नौकरी मिलेगी। तुम्हारी सभी तकलीफें भी मिट जायेंगी। सब कुछ तुम्हारे मन का होगा। उसकी बातें सुनकर मुझे लगता था जैसी की मुझे पुरी दुनिया की खुशी एक साथ मिल गयी हो। हम दोनों एक दूसरे के सुख-दू:ख के साथी बन गये थे।

अभी सब कुछ सही चल रहा था तभी एक दिन मुझे मेरे दोस्त का फोन आया। उसकी हाल फिल्हाल में ही एक बडे से एक्सपोर्ट कम्पनी में नौकरी लगी थी। लगभग छ: महीने पहले हीं उसे इस नये नौकरी के लिये बुलावा आया था। वो जानता था कि मैं अच्छी नौकरी के लिये कितनी छटपटाहट में हूँ। इसिलिये जब उसके हीं ब्रांच मे एक बहाली निकली तो उसने मुझसे वहा चले आने को कहा। उन दिनों मैं अच्छे नौकरी का मतलब नहीं समझता था। बस मुझे इस बोझ ढोने वाले काम से छुटकारा चाहिये था। तो मैंने वहां जाने को तैयार हो गया। घर से मुझे बाहर जाकर काम करने की स्वीकृति चाहिये थी जो कि मिलने वाली थी नहीं। क्युंकि मैं घर का सबसे छोटा बच्चा था। जैसे-तैसे करके मैंने अपनी मां को और बडे भाई को समझाया ताकी वो मुझे जाने दे। किसी तरह सबको राजी कर लिया मगर सानिया का क्या? उसे तो मैंने कुछ भी नहीं बताया था। लेकिन उससे बिना बताये चले जाना भे तो सही नहीं होता ना। अगर उसने जाने से रोकना चाहा तो? या फिर मेरे जाने के बाद उसे किसी और से प्यार हो गया तो? ऐसा तो पहले भी हुआ था ना? मैं भी तो उसे किसी और के हीं गलत फहमी के कारण मिला था। यही सब सोचते हुए मैं उलझा हुआ था। आखिर में मैंने तय कर लिया की उसे बता देना हीं सही है फिर उसकी मर्ज़ी चाहे तो दूर के प्यार को चलाये या किसी पास वाले को अपना बना ले।

यही सब सोचते हुए मैंने उसे फोन किया। और आज पहली बार उसका फोन बंद आया। ऐसा पहले तो कभी हुआ नहीं था तो आज ही क्युं हुआ? तीन बार उसका नम्बर लगाने पर भी जब फोन नहीं लगा तो मैंने सोचा की शायद उपर वाला भी मुझे कुछ समझाने की कोशिश कर रहा है। फिर सोचा की अब जब वो मुझे फोन करेगी तभी मैं बात करुंगा। लेकिन ये दिल है ना साला कभी भी आपको दिमाग की सुनने नहीं देता है। वो हमेशा ही आपको अपने वश मे किये रहता है। और जब आप प्यार में होते है तब तो आपका दिमाग काम करता हीं नहीं है। पहले दो घंटे मे मैंने उसे लगभग पंद्रह बार फोन किया। मगर एक भी बार उसका फोन लगा नहीं। मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। दोपहर के दो बजे से उससे बात नहीं हुई थी। और अब तो रात के दस बज रहे थे। मेरा ध्यान सिर्फ उसके ही तरफ था।

जब घर लौटा तो मां ने मेरा चेहरा देखते हीं पुछा कि क्या बात है? तेरा रंग इतना उतरा हुआ क्युं है? काम मे तो सब ठीक है ना? अब मां को क्या बताता की उसके बेटे का दिल तो उसकी होने वाली बहु के फोन नहीं उठाने से बैठा हुआ है। मैंने कहा कोई बात नहीं है माँ, बस वो बाहर जाने की तैयारी करने मे जुटा हुआ हूँ, इसिलिये जरा सा थक गया हूँ। भूख लगी है तुम खाना लगा दो। माँ ने बड़े ध्यान से मेरी तरफ देखा और कहा, नहीं बात तो कुछ और है, तू मुझे सच-सच बता की बात क्या है? तू कहीं किसी परेशानी मे तो नहीं है ना? मैंने माँ के कंधे पर सर टिकाते हुए कहा, सब कुछ ठीक है मां, कोई चिंता वाली बात नहीं है। मैं ठीक हूँ, काम भी ठीक है। तुम जाकर खाना लगाओ मैं मूंह-हाथ धोकर आता हूँ। माँ ने पुछा, तू अकेले खा लेगा, बडा तो अभी तक आया नहीं है? मैंने हाँ मे सिर हिला दिया। बस इसी बात पर माँ ने मेरी तकलीफ को और भी ज्यादा भांप लिया। मैं लाख छुपाने की कोशिश करता रहा मगर उन्होंने मेरी एक ना सुनी। और मेरे पीछे लगी रही। थक कर मैंने उनसे झूठ कह दिया की मेरे जेब से ३०० रुपये गिर गये है। मैं उसी कारण उदास हो रहा हूँ। एक बार के लिये माँ ने मेरी बात मान ली और वहाँ से चली गयी । 

मेरा दिल अब भी किसी काम मे लग नहीं रहा था। रात के डेढ बजे तक मैं उसके फोन की आस मे जगा रहा। मगर उसका फोन नहीं आया। फिर जाने कब मेरी आंख लगी और मैं सो गया। सुबह जैसी हीं जागा तो देखा मेरा मोबाईल बंद पड़ा हुआ था। मैं भागते हुए बिस्तर से ऊठा और फोन का चार्जर तलाशने लगा। उस समय मेरी हालत ऐसी थी जैसे कि रेगिस्तान में कोई मृग कस्तूरी की तलाश में इधर उधर बेसुध होकर भागता रहता है। कभी इस दिशा तो कभी उस दिशा में। उसे लगता है जैसी कस्तूरी उसके निकट हीं कही है। पर उसे देख नहीं पाता और पूरे रेगिस्तान मे भटकता रहता है। ठीक उसी तरह मैं हर उस जगह अपने फोन का चार्ज़र खोज रहा था जहाँ मुझे लगता था कि उसे होना चाहिये मगर वो कहीं दिख ही नहीं रहा था। 

मैं थक कर हारने लगा था तभी मुझे माँ की आवाज़ आयी- क्या तू इसे ढूंढ रहा है? मैंने उनके तरफ देखते हुए पूछा हाँ, पर तुम्हें ये कहाँ मिला? वो ज़रा हंसी, और फिर बोली जब तू सो गया था, तब मैंने इसे तेरे सिरहाने के निंचे रख दिया था। ताकि जब तु उठे तो सारा घर अपने सिर पर ना उठा ले। मगर देखो वही हुआ जो मैं नहीं चाहती थी कि हो। चार्ज़र लेकर मैं तेजी से कमरे के तरफ भागा। ऐसे जैसे कि मानो मेरा कोई जिगरी यार अपने जीवन के अंतिम सांसे ले रहा हो और उसे आक्सीजन की दरकार हो। मैं उसे मरने के लिये अकेला तो नहीं छोड़ सकता था ना? एक वही तो मेरा साथी था जो मेरे हर अच्छे-बुरे सही गलत और सुख दु:ख का साथी था। फोन को चार्ज़ मे लगाने पर जो बैटरी बढ़ती हुई दिखाई देती थी ना उसे देखकर मुझे इतना संतोष मिल रहा था जैसे कि मैंने किसी मरते हुए इंसान को नई ज़िंदगी दे दी हो।

लगभग आधे घंटे के बाद जब मैंने फोन ऑन किया तो पाया रात के ३ बजे सानिया के पांच मिस काल थे। कोई एक मेसेज भी था। मैं झट से इनबोक्स खोल कर मेसेज पढ़ना चाहता था लेकिन... लेकिन... लेकिन.... अगर कोई काम आपके लिये बहुत ज़रुरी हो तभी आपका मोबाईल आपसे अपनी सभी तरह की दुश्मनी आपसे निकालने पर तुला रहता है। जितनी बार मेसेज बोक्स खोलने की कोशिश कर रहा था, फोन हैंग हो जाता था। गुस्सा तो इतना आ रहा था कि मन किया फोन को उठाकर पटक दूं। मगर उसके अलावा और कोई दुसरा चारा भी तो नहीं था उस वक़्त मेरे पास। तीन बार फोन को रिस्टार्ट किया तब कही जाकर मेसेज बोक्स खुला। मेसेज सानिया का ही था लिखा था - सौर्री, कल से मेरा फोन काम नहीं कर रहा था। पापा ने दुकान मे रख छोड़ा था, आज रात को आते समय पापा इसे वापस लेते आये। मैं जानती हूँ तुम परेशान हो रहे होगे, जब जागो तो एक बार फोन कर लेना। मैं मोबाईल लेकर घर से बाहर भागा। दौड़ते हुए हीं उसका नम्बर मिलाने लगा। घंटी बजी, उसने फोन उठाया और मेरे कुछ बोलने के पहले ही बोल पड़ी सौर्री सौर्री सौर्री सौर्री सौर्री सौर्री सौर्री सौर्री सौर्री मैं तुम्हें बता नहीं पायी मुझे माफ कर दो। मैं बोला मै तुमसे नाराज़ नहीं हूँ, हाँ मगर थोड़ा डर जरूर गया था की तुम सही तो हो या नहीं मगर चलो जब तुम ठीक हो तो बाकी सब भी ठीक ही होगा।

सुनो तुमसे एक बात कहनी है। ऐसा है कि मुझे एक बहुत अच्छी नौकरी मिली है। लेकिन उसके लिए मुझे कलकत्ते से बाहर जाना पड़ेगा। नौकरी बहुत अच्छी है, और मैं जाना भी चाहता हूं लेकिन जाने के पहले तुमसे कुछ पूछ लेना और समझ लेना चाहता हूँ। पूछना यह है कि क्या तुम भी मुझसे सच्चा प्यार करती हो? देखो हम दोनों को एक दूसरे से बात करते हुए लगभग ४ महीने हो चुके हैं। लेकिन आज तक ना तुमने मुझसे मिलने की इच्छा जताई और ना ही मैं तुमसे मिलने की बात हीं कर पाया। लेकिन अब, क्योंकि मैं यह नौकरी कर लेना चाहता हूं और अपने पांव पर ढंग से खड़ा होना चाहता हूं, तो तुमसे एक बात पूछनी है। क्या तुम मेरा इंतजार कर पाओगी? क्या हमारा यह प्यार दूरियों में भी रह पाएगा? और सबसे बड़ी बात कि क्या तुम मुझसे शादी करना चाहोगी? 

मैं जानता हूं कि यह बातें तुम्हें अटपटी लग सकती है। लेकिन इसके पहले कि मैं यह शहर छोड़ कर जाऊं और दूसरे शहर में अपना आशियाना जमाने की सोचूं। क्या मैं तुम्हें उस आशियाने में अपने साथ रखने की गुस्ताखी कर सकता हूं? वह सिर्फ सुनती रही कहा कुछ नहीं। जब मैं अपनी बात बोल चुका तब उसकी खनकदार हंसी मेरी कानों में पड़ी। वह अचंभित थी कि मैंने उससे सीधे-सीधे शादी की बात कर ली। अभी तक तो हम दोनों एक दूसरे से मिल भी नहीं पाए थे। और एक दूसरे को ढंग से समझ भी नहीं पाए थे। और एक मैं हूं कि बिना सोचे समझे उससे शादी की बात कर रहा था । मुझे लगा था कि शायद वह मेरे बात से नाराज हो जाएगी। लेकिन हुआ ठीक इसका उल्टा। उसने झट से मुझे हाँ कर दी। 

उसने कहा कभी फिल्मों में ही मैंने देखा और सुना था कि सच्चा प्यार का दिल से होकर आंखों तक पहुंचता है। लेकिन यह मेरे साथ हो जाएगा मैंने कभी सोचा नहीं था। चलो एक बार इसे मौका देकर देखते हैं। वैसे कितने दिनों के लिए तुम जाने वाले हो महीने, 2 महीने, साल भर या फिर पूरी जिंदगी के लिए? मैंने कहा - अगर पूरी जिंदगी के लिए भी जाता हूं तो भी क्या ही फर्क पड़ेगा, मैं तुम्हें अपने साथ लेकर जाना चाहता हूं। मैं तुम्हें अपने साथ रखना चाहता हूं। मैं अपनी जिंदगी तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूं। लेकिन उसके पहले मैं यह जानना चाहता हूं, कि क्या तुम भी मेरे साथ जिंदगी का यह सफर पूरा करना चाहती हो? या नहीं। उसकी एक हाँ ने मेरे अंदर एक नया जोश डाल दिया। मैंने सोच लिया कि अब मैं जितनी जल्दी हो सके यहाँ से बाहर निकल कर खुद अपने पैरों पर खड़ा होकर उसके घर वालों से बात करूंगा। और शादी के लिए उसका हाथ मांग लूंगा। पर कहानी यहीं खत्म नहीं होती। सबकुछ इतना ही आसान होता, और सच्चा प्यार इतनी आसानी से मिल जाता, तो फिर वो प्यार नहीं होता। ऐसा सिर्फ अरेंज मैरिज में होता है। लव मैरिज में कभी नहीं। लव में तो मैरिज की बात ही अंतिम चरण होती है।

हम जिस जेनेरशन से आते है ना उस जेनेरशन मे लौंग डिस्टेंस रिलेशनशिप का कोई कौंसेप्ट नहीं होता। मुझे जाना हीं था इसिलिये मैंने सानिया से वादा ले लिया की वो मुझसे शादी करना पसंद करेगी या नहीं। मुझे पता था की मेरे जाने के बाद उसका मन बदल जाना कोई बडी बात नहीं होगी। पर जब उसने हाँ कह दी तो मेरे दिल का डर थोड़ा कम गया। अगली सुबह मैं घर से चला तो साथ में मोबाईल भी लेता चला उस फोन में सिर्फ तीन हीं नम्बर थे एक घर का, दुसरा मेरे दोस्त का जिसने मुझे काम के लिये बुलाया था और तीसरा सानिया का। 

आज मुझे घर से दूर जाने का कोई दुःख नहीं था। बल्कि मेरे आंखों में सपने थे जिसे मैं जल्द से जल्द पूरा करना चाहता था। मुझे मालूम था कि मैं बहुत जल्द यहाँ लौटने वाला नहीं हूँ एक बार काम मे फंस गया तो फिर जाने कब मौका मिले आने का। मगर लौटुंगा जरूर ये भी जानता था। दिल्ली पहुंच कर सबसे पहले मैंने सानिया को फोन किया की मैं सही-सही दिल्ली आ चुका हूँ। फिर कहीं जाकर मैंने मां को काल किया। इंटरव्यु से लेकर पोस्टिंग तक की हर एक जानकारी मैं सानिया को बताता रहा। हर घंटे एक बार बात करता रहा। अंतत: जब मैं सूरत के ऑफिस पहुंच कर अपना कार्यभार सम्हाला तो उसे फोन करके सभी बात बतायी।

यहाँ मैं अपने दोस्त (आदित्या ) से मिला और उसकी जगह ले ली। दिन अच्छे से बित रहे थे। लेकिन कहते है ना कि जब सबकुछ ज्यादा हीं सही हो तो मान लो की मुसीबत अपना मुंह बाये आपकी राह तक रही है। कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ एक दिन सानिया का नंबर आदित्या के हाथ लग गया। बस फिर क्या था उसके पास से दूसरे के पास और फिर तिसरे के पास। दोस्त, भाइसाहब, दोस्त कितने कमिने होते है ये बात बताने वाली तो है नहीं। तो मेरे भी दोस्त कमिनेपन मे कुछ कम नहीं थे। मुझे मालुम नहीं था की उसने मेरे गैर जानकारी में सानिया से बात की है। और वो भी मेरा नाम लेकर। लेकिन जब मुझे इस बात का पता चला तो मुझें गुस्सा कम और हँसी ज्यादा आयी। आदित्या हद से नहीं गुजर सकता था। मगर वो जो कलकत्ते में बैठा था ना, मुझे उसका कोई भरोसा नहीं था । 

वो कमिना लड़की पटाने में माहिर था। उसका चरित्र बिल्कुल "मुझसे शादी करोगी" के सन्नी के जैसा था। जिसे दोस्त की गर्ल्फ्रेंड चुराने में और उसे पटाने मे बहुत मज़ा आता था। जब मैंने इससे पुछा की क्या तूने विजय को भी सानिया का नम्बर दे दिया है क्या? तो उसने हाँ मे सर हिला दिया। उसका सिर हिलाना मेरे दुनिया हिल जाने के बराबर था मैंने झट से सानिया को फोन लगाया और कहा कि अगर तुम्हें कोई अंजान नम्बर से फोन करके कहे की उसे तुम्हारा नम्बर मुझसे मिला है तो उससे बात मत करना। वो मेरा दोस्त है। और साला बहुत हरामी है। तुम उससे बात करोगी तो तुम्हे भी अपने जाल मे फँसा लेगा। मेरी बात खत्म होने के पहले हीं वो बोल पडी - जैसे तुमने मुझे अपने जाल में फंसाया है, वैसे? सानिया का ये कहना मेरे लिये चेतावनी थी की बात मेरे हाथ से बाहर की हो चुकी है। 

मैं उसे जानता था, लड़कियों के सामने खुद को पेश करने का जो तारिका विजय को मालूम था वो हर किसी में नहीं होता। वो खुद को ऐसे पेश करता था जैसे इस दुनिया मे उससे ज्यादा समझदार, वफादार, होनहार और प्यार करने वाला कोई और मौजूद हीं नहीं है। साथ ही साथ वो मुझको (या किसी भी दूसरे लड़के को उसके प्रेमिका के सामने) ऐसा बतायेगा की जैसे मेरे बाद भगवान के दगाबज़ों के कारखाने पर ताला हीं लगा दिया हो। बात अगर झूठ कहने तक सिमित रहती तो और बात थी। मगर वो सामने वाले को इस तरह से अपने शीशे में उतार लेता है की लड़की को उसकी बातों के आगे बाकी सब की बातें बेबुनियाद लगने लगती है। इतना हीं नहीं वो दोनो के बीच इस तरह से गलत फहमी पैदा करवा सकता है कि दोनों एक दूसरे से बात तक करना छोड़ दे। और जब तक दोनों को अपनी गलती का आभास हो तब कामदेव अपना काम कर तमाम कर चुके होते हैं। मेरे सामने हीं उसने एक दफ़ा कालेज मे हमारे एक दोस्त की प्रेमिका को चुराकर अपना काम निपटा लिया था।

हुआ यूं की कालेज मे हमारे एक दोस्त को एक लड़की पसंद आने लगी थी। जो की दूसरे सेक्शन की थी। हम कामर्स मे और वो आर्ट्स मे थी। देखने में ठीक-ठाक थी। कद काठी भी अच्छी थी। वो मगर हमारे भाइ को घांस नहीं डाल रही थी। उसने बहुत कोशिश करी मगर उसके हाथ कोई सफलता नहीं लगी। पहले तो उसने किसी को भी ये बात नहीं बताई थी। मगर जब बात उसके हाथ से निकलने लगी तो उसने हमें इस बारे में बताया। लड़का अच्छा था, कभी किसी लड़की के चक्कर में नहीं पड़ा था। आज के पहले कभी उसके बारे में कोई कहानी भी नहीं सुनी थी हमने। तो जब उसने हमें बताया तो सबसे पहले हमने ये देखा की वो कितना संज़िदा है इस लड़की को लेकर। उसकी हालत को देखकर हमारा तो मन पसिज गया और हम उसकी मदद को तैयार हो गये। 

हममें से सबसे शाना और लड़की बाज़ वही था( विजय)। लेकिन वो इतना कमीना भी था ये तो हमने तब जाना जब उसने वो कर दिया जो कमिने-से-कमिना इंसान भी अपने दोस्त के साथ नहीं कर सकता। जब पहली बार इस बिचारे ने हमें अपनी पसंद दिखाई तो उसके मुंह से तो जैसे पानी हीं टपकने लगा। उसे देखते हीं एक झटके मे मदद करने क तैयार हो गया। हम ये सोच रहे थे की दोस्त है मदद करेगा। अपनी दोस्ती निभायेगा। शुरुआत मे उसने किया भी कुछ ऐसा हीं। दो दिन के अंदर उसने लड़की का आगा-पीछा सबकुछ जान लिया। कहाँ रहती है, कहाँ पढ़ती है, घर मे कौन-कौन है, क्या पसंद है क्या नापसंद है सब कुछ दो दिन में ही जान लिया। हमारा हौसला बढा की चलो हम में से किसी एक की लव स्टोरी तो शुरु होगी। जब ये पुरी जानकारी उसने हमसे सांझा की तो हमें लगा अब तो अपने बंधू की नैय्या पार हो गयी। ये भी लगा की दो चार दिन के अंदर हीं इस सागर की सेटिंग भी हो जायेगी। हम सब खुश थे की हम सब में एक तो ऐसा है जो की लडकी पटाने मे सक्षम है। चलो आज इसका हुआ है कल हमारा भी हो जायेगा। हमने उसे अपना गुरु बना लिया और उसके चरणों मे नत्मस्तक हो गये।

मामला जमता हुआ नज़र आ रहा था। मगर तभी एक दिन जब हम कालेज पहुंचे तो देखा की हमारा दोस्त सागर, विजय से हाथा-पाई पर उतारु हो रक्खा है। बात हमारे समझ से बाहर की थी। क्युंकि कल तो सागर विजय के पैर धोकर पीना चाह रहा था। मगर अब एकदम से उससे मार-पिटाई की राह पर क्युं जा रहा है। विजय हमारा अच्छा दोस्त था। कम से कम सागर से तो ज्यादा ही अच्छा दोस्त था। तभी हमने भी आव देखा ना ताव और सागर को दबोच लिया। और दे लात, दे घूंसे लगा दिये उसे। लेकिन तभी मैंने देखा की सागर चाहे जितनी भी गालियां दे रहा हो विजय कुछ बोल ही नहीं रहा। उसने तो हमें भी उसे मारने से रोका था। यह देखकर हमने सागर से कहा - देख इस लद के को, तू इसके एहसान का बदला ऐसे चुका रहा है? जिसने तेरे लिये जाने क्या-क्या किया है। 

मैं उस समझाने की कोशिश मे थ। मगर वो तो जैसे किसी की भी बात सुनने को तैयार हीं नहीं था। उसके सिर पर एक ही सनक चढा हुआ था बस विजय को मारने की। मामला हाथ से जाते देख आदित्या ने झट दे सागर को फिर से दबोच लिया। कहीं प्रिंसिपल के पास हमारे लडाई की बात ना पहूंच जाये यही सोचकर हम सब ( मैं, सागर, विजय और आदित्या ) कैंटीन की तरफ बढ लिये। जाते हुए पूरे कारिडोर मे सागर विजय को गालियां बकता जा रहा था। मैं और आदित्या चाहे जितना भी उसे रोकने की कोशिश करते सागर का गुस्सा और भी चढ़ता ही जा रहा था। जब हम कैंटीन पहुँचे तो आदित्या ने सबको इस तरह से बिठाया की विजय और सागर आमने सामने हो। और आदित्या और मैं आमने सामने ताकि कहीं बात ज्यादा बढे तो भी उन दोनों मे हाथा पायी ना होने पाये। आदित्या ने सबके लिये चाय और समोसा आर्डर कर दिया क्युंकि सागर की सबसे बडी कमज़ोरी उसकी भूख ही थी। जब चाय की पहली चुसकी और समोसे का पहला निवाला सागर के पेट मे गया तो उसका गुस्सा थोड़ा कम हुआ। हमने जब दोनो को थोड़ा शांत होते देखा तो सागर से पुछा की उसके नारज़गी की वजह क्या है? क्युं हम सब दोस्त आपस में बिना किसी कारण के लड रहे है?

हमारी बात के जवाब मे सागर ने कहा की मुझसे नहीं इससे पूछ की क्युं मै इससे लड़ रहा था। और क्युं ये मुझसे मार खाकर भी कुछ कह नहीं रहा था। हम दोनों की निगाह विजय पर जाकर टिक गयी। विजय के चेहरे पर इस समय कोई भी भाव नहीं थे। ना तो वो क्रोधित था नहीं दुखी और नाहीं खुश ही लग रहा था। हमें देखते हुए उसने कहा, यार देखो, जब तुम बिल्ली को मलाई की रखवाली करने का काम दोगे, तो इसमें गलती तो तुम्हारी ही है ना? ये बात आदित्या के समझ मे नहीं आई मगर मुझे लगा हो ना हो ये सागर की गर्ल्फ्रेंड के विषय में हीं बात कर रहा है। ये सोचते ही मेरी तो पहले हंसी निकल आयी। मैं अपने जगह पर बैठे-बैठे हीं लोट-पोट होने लगा। आदित्या भी मुझे देखकर और मेरे इशारों को समझते हुए जोर से हंसने लगा। 

हम दोनो को लगा की शायद विजय ने सागर की प्रेमिका को अपने झांसे में फंसा लिया है। ये सोचकर हम सब हंसने लगे। ये देख सागर वहां से उठ कर चला गया। उसके जाने के लगभग दस मिनट तक हम दोनों हंसते रहे। मगर विजय गम्भीर था। उसे गंभीर देखकर हमने सोचा की मामला संगीन जान पडता है। जब हमने उससे पूरी बात पुछी तब समझ में आया की मामला क्या है? दरअसल हुआ यूं की पहले दो दिन मे लड़की के बारे में सबकुछ पता कर लेने के बाद विजय का मन बदल गया। उसने सागर की जगह खुद ही उस लड़की के सामने अपने प्रेम का प्रस्ताव रख दिया। वो लड़की जिसने कभी सागर को आंख उठा कर देखा भी नहीं था। वो एक दम से विजय के प्रेम मे गिर पड़ी । 

अब इसमें उस लड़की को गलत माने या विजय को किस्मत वाला पता नहीं। मगर इस चक्कर में सागर का दिल टूट गया था। विजय ने उस लडकी को पटाने मे अपनी पुरी ताक़त झोंक दी थी। पिछले एक हफते में उसने उस लड़की को अपने बारे में इतनी अच्छाइयां बताई और सागर के बारे में इतनी बुराई करी की अगर कभी उस लड़की के मन मे सागर के लिये आधा अधूरा प्यार जागने वाला भी था तो अब तो वो उसे मिलने से भी मना कर रही थी। जो सबसे बड़ी और सबसे झटके वाली बात थी वो ये थी की विजय भाई साहब बिन पुजा किये भोग भी लगा चुके थे और प्रसाद भी खा चुके थे। 

आप मेरे कहने का मतलब तो समझ ही गये होंगे। बात अगर सिर्फ लड़की को पटाने की होती और सागर को रास्ते से हटाने की होती तो शायद मैं उसे गलत मानने से इंकार कर भी देता। क्युंकि अक्सर ऐसा हो हीं जाता है की कोई किसी दूसरे की बात बनाने जाये मगर खुद उसकी बात बनाकर लौटे, दोस्तों मे तो ये अक्सर हीं होता है। मगर यहाँ तो बात उससे भी तीन कदम आगे निकल चुकी थी। विजय ने ना सिर्फ सागर को धोखे में रक्खा था, बल्कि उसके प्यार की बलि भी चढ़ा दी थी। मैं और आदित्या दोनों एक दूसरे का मुंह ताकते रह गये। किसे क्या कहे? सागर के प्रति दया की भावना थी, तो विजय के प्रति मिश्रित भावना। अब आप सोच रहे होंगे के विजय के प्रति हमारी भावना मिश्रित क्युं थी? अरे भाइ साहब थे तो हम सब दोस्त हीं ना, और एक दूसरी की काटने मे उस्ताद थे हम सब। 

जिसको जब जैसे जिसकी काटने का मौका मिलता था, काट देते थे। हम विजय से नाराज़ इस लिये थे क्युंकि उसे कम से कम सागर को बता देना चाहिये था। इससे उसकी दोस्ती बनी रहती। हाँ वो उस लड़की के मत्थे सब मढ भी सकता था मगर उसने ऐसी नहीं किया और खुद ही पूरी ज़िम्मेदारी ले ली। हम मज़े इस लिये ले रहे थे की साले ने एक झटके मे उस लड़की को पटा कैसे लिया? भाइ कुछ तो बात थी उसमें। इस घटना के बाद हम दोनों ने(मैने और आदित्या ) ने ये सोच लिया था की कभी भी अगर हमने कोई लड़की पटाई तो विजय से उसे तब तक बचा कर रखेंगे जब तक की उससे मिलाने की ज़रूरत महसूस ना हो। 

हमने उसे ऐसा करते हुए कई बार देखा था। वो कभी भी किसी एक पर टिकता ही नहीं था। आज यहाँ तो कल किसी और पर डोरे डालते हुए दिख जाता था। साला था भी किस्मत का धनी। उसके जीवन मे कभी लड़की नामक बरसात का सुखा नहीं पड़ा । कालेज के इस घटना के बाद सागर हम से दूर होता गया और फिर एक दिन उसने कालेज भी छोड़ दिया। ना, पढ़ाई नहीं छोड़ी बस कालेज बदल लिया। और दोस्त भी बदल लिये उसने। अब हम तीनों मे से उसकी दोस्ती बस मुझसे से ही थी। वो विजय से इतना नाराज़ था की जब २०१० मे उसने शादी की तब भी उसने विजय को शादी में बुलाया नहीं। मुझे बुलाया तो था मगर मैं तो उस समय अपने ही तंगहाली से परेशान हो रक्खा था।

अब लौटते है फिर से साल २००७ वाली घटना पर। तो जब आदित्या ने मुझे बताया की उसने विजय को भी सानिया का नम्बर दे दिया है तो मुझे उसपर बहुत गुस्सा आया। मैंने उससे पूछा की उसने ऐसा क्युं किया? उसने इस बात का कोई ठोस जवाब तो नहीं दिया मगर बस इतना कहा, मुझे लगा तु इसके साथ बस टाइम पास कर रहा है। ये बात उसके समझ मे भी थी कि उसने गलती कर दी थी मगर अब इसे बदला तो नहीं जा सकता था ना। उस दिन मैंने आदित्या को बहुत गालियां दी और जाने कितनी तरह की बातें कह गया। लेकिन उसका कोई फायदा तो होना नहीं था। उस रात मैं लगातार सानिया से बात करने की कोशिश करता रहा। मगर उसने फोन नहीं उठाया। 

अगले दिन मैंने विजय को फोन लगाया और उससे पूछा कि उसने सानिया से क्या कहा है? मुझे बिगड़ते देख उसने कहा - भाई ऐसा कुछ भी नहीं कहा की वो तुझसे ब्रेकअप कर ले। बस थोड़ा चिड़ाने की कोशिश की थी। खैर अब मैं तुझसे वादा करता हूँ की मैं उससे बात नहीं करूंगा और तेरा पैचअप भी मैं ही करा दूंगा। चल एक काम करता हूँ, मैं अगले हफ्ते तेरे शहर आने वाला हूँ वहीं तुम दोनों से एक साथ बात करके मामला सुलझा दूंगा। मैं उसकी बातों मे आ गया क्युंकि आखिर था तो दोस्त। यहीं पर मेरी किस्मत मुझसे नाराज़ हो गयी। उसके आने मे अभी एक हफ्ते थे और इन एक हफ़्तों में सानिया ने मुझसे एक बार भी बात नहीं की। 

मैंने उसे ना जाने कितनी दफा फोन किया लेकिन एक भी बार उसने मुझे जवाब नहीं दिया। झक मार कर मुझे उसके दोस्त से बात करनी पड़ी । उससे मैंने कितनी मिन्नतें की कि वो बस एक बार सानिया से मेरी बात करवा दे। ताकि मैं उसकी नाराज़गी को कम तो कर सकूं। मेरी हालत को देख कर सानिया की सहेली को दया आ गयी। और उसने मुझे सानिया के घर जाकर. उसके कमरे मे बैठ कर उससे मेरी बात करवाई। पहले तो उसने मुझसे सिधे मूंह बात तक नहीं करी मगर जब मैंने उससे विजय के बारे मे सारी कहानी सुनाई और ये सब भी बताया की उसने मेरे बारे मे उससे क्या-क्या कहा होगा तो बात उसके समझ में आने लगी। कुछ नरम गरम बातों के बाद अब हम दोनों एक बार फिर से नोर्मल हाल पर वपस लौट आये थे। 

फिर से एक बार हमारे बीच सबकुछ पहले जैसा होने में थोड़ा तो समय लगने हीं वाला था। जो की सही भी था। मैं भी किसी तरह की जल्दबाज़ी मे नहीं था। क्युंकि घाव भरने मे जो समय लगता है अगर वो उसे नहीं दिया जाय तो ये नासूर बन जाता है। फिर से हमारी गाडी पटरी पर आ रही थी। मगर इस बार मैं कोई रिस्क लेना नहीं चाहता था तभी जब आदित्या ने मुझसे इस बारे मे पुछा की क्या मेर और सानिया के बीच सब कुछ नोर्मल हो गया है? तो मैंने कहा की अब हम दोनों साथ नहीं रहे। मेरे और आदित्या के बीच बात यहीं खत्म हो गयी। उसे भी कालेज के पुराने दिन याद थे। तो उसने पुरानी बातों को फिर से छेडना सही नहीं समझा।

अगले हफ्ते आदित्या की इस आफिस से विदाई होने वाली थी। उसे हेड आफिस में प्रोमोट कर दिया गया था। और यहाँ मुझे उसिके स्थान पर कार्यभार दिया गया था। वो तो चला गया मगर मैं यहाँ अकेला हो गया। उसके जाने के बाद मैंने सोचा की अब मेरे और सानिया के बीच में कोई भी नहीं आ सकता। अब मैं रोज़ उससे बातें करता था। दिन रात सुबह शाम जब भी वो मुझे काल करती मैं उसे जरुर काल बैक किया करता। इस तरह से हम फिर से एक दूसरे के नज़दिक आने लगे थे। मगर धिरे-धिरे यहाँ काम का प्रेशर बढ़ने लगा और मुझे इतना समय नहीं मिल रहा था की मैं सानिया को पूरा समय दे सकूं। यहाँ काम सुबह के नौ बजे से शुरु हो जाता था। और रात को कब खत्म होगा इस बात का कोइ भी सही समय नहीं होता था। हर समय मेरे सामने कम से कम दस लोग बैठे होते थे, अपना काम करवाने को। जब भी मुझे समय मिलता मैं उसे काल ज़रूर कर लिया करता था। ना तो उसने कभी मुझसे इस बात की शिकायत की और ना हीं मैंने कभी उससे बात ना कर पाने के लिये माफी हीं मांगी। 

समय बीतता गया और फिर वो समय भी आया जब की विजय का मेरे शहर में आना हुआ। पहले तो मैं उससे बहुत हीं नाराज़ था। मगर भला अपने बचपन के दोस्त से कोई कितने दिन ही ख़फ़ा रह सकता है? तो मैंने भी पुराने सभी गिले शिकवे भुला दिये और उससे मिलने के लिये उस होटल में चला गया जहाँ वो ठहरा हुआ था। मैं उसे अच्छे से जानता था की वो कभी भी होटल मे अकेले नहीं रुकता। हमेशा उसके साथ कोई ना कोई होती जरूर है। वो कालेज के जमाने से हीं बड़ा सांड रहा है। जब पैसे नहीं होते थे तो जुगाड़ से काम चलाता था। और अब जब की उसके पास पैसे होने लगे थे तो पैसे देकर काम चलाता था। यही सोच कर मैं उससे दिन में मिलने गया ताकि अगर उसका कोई प्रोग्राम हो भी तो मैं उसे और वो मुझे परेशान ना करें। बात शर्मिंदगी की नहीं थी क्युकि हम दोस्त थे। हम एक दूसरे के चाल चलन से पुरी तरह वाक़िफ़ थे। मगर वो साला दूसरों को अपने पाप में घसिटने का आदी था। और मैं उसके बस इसी काम से ज़रा बचकर रहना चाहता था।

जब मैने उसके कमरे की घंटी बजायी तो उसने ही दरवाजा खोला। कमरे के अंदर से सिगरेट की तेज़ महक आ रही थी। लग रहा था अभी तक वो चार से ज्यादा सिगरेट पी चुका था। मैं कमरे अंदर गया और एक सरसरी नज़र उसके कमरे पर दौड़ाई। कहीं भी मुझे कुछ ऐसा नहीं दिखा जिससे किसी लड़की के होने का एहसास हो। जब मैं निश्चिंत हो गया तो मैंने उससे पुछा की भाई आज तेरे बगिचे में कोई फूल नहीं खिल रहा, क्या बात है? उसने बड़ी हीं साधारण लहज़े में कहा अभी दो तीन घंटे मे आती ही होगी। तू आने वाला था इसिलिये मैंने उसे २ बजे के बाद आने को कहा है? तू एओ सब छोड़ , चल खाना खाते है। इतना कहते हुए उसने खाने का मेन्यु मेरी तरफ खिसका दिया। फिर हमने खाना खाया और कुछ देर बातें की। हम लगभग तीन घंटे साथ रहे मगर एक बार भी हम दोनों मे से किसी ने भी सानिया के बारे में बात नहीं की। 

मैं चुप था क्युकि दोस्ती में खटास नहीं बढ़ाना चाहता था। वैसे भी मेरी ज़िंदगी में दोस्तों की बहुत ज्यादा संख्या नहीं थी। वो चुप था क्युंकि शायद उसे अपने गलती का एहसास था। हम दोनों ही अपनी दोस्ती को खोना नहीं चाहते थे। कभी-कभी चुप रहना हीं बडे-से-बडे झगरे का हल होता है। जब दो बजने को आये तो विजय बोला, भाई अब तुझे जाना चाहिये क्युंकि वो आने वाली है। एक बार तो मेरी इच्छा हुई की देखुं तो किस माल को बुलाया है इसने। फिर सोचा जब ये खुद ही मुझको जाने को कह रहा है तो मैं भी जाने के बारे में सोचूं। मैं जाने को तत्पर हुआ और मेरे उठते ही वो बोला - अर्रे सून तेरे पास ४००० होंगे क्या? मेरे पास पैसे थोड़े कम है। मैं घर जाते ही तेरी मां को ये पैसे दे दुंगा। मैंने जेब से ४००० निकाले और उसे देते हुए कमरे के बाहर चला गया।

जब मैं कारिडोर से गुजर रहा था तो सामने से एक लड़की आती हुई दिखी। रंग गोरा, घुंघराले बाल, कद यही कोई चार फिट आठ इंच के आस-पास। नीले रंग के लेग्गिंस के साथ हल्के पिले कलर का सुट। एक हाथ मे सफेद बैग़ और आंखों पर चश्मा। मेरे पास से जब गुजरी तो बडी आकर्षक सी खुशबू उडाती चली गयी मैंने उसे जाते हुए देखा और पाया की वो विजय के कमरे के अंदर जा रही थी। कभी-कभी कोई चेहरा एक झलक में ही आपको याद रह जाता है और ये ऐसा हीं एक चेहरा था जिसे एक बार देखने के बाद आप भूल नहीं सकते।

विजय से मिलकर मैं आफिस लौटा तो सीधे सानिया को फोन मिलाया, उसकी बहुत याद आ रही थी। दरसल जब से मैंने विजय के माल को देखा था तब से मेरे दिमाग मे बस सानिया जी घूम रही थी। अगले दिन विजय कलकत्ते के लिये रवाना हो गया। अपने कहे अनुसार उसने मेरे घर जाकर मेरी मां की हथों में छ: हजार रुपये दे दिये। चार मेरे और २ अपने तरफ से मगर कहा मैंने हीं भेजे है। जब दो दिन बाद मेरी मां से बात हुई तो उन्होंने बताया की विजय उसे छ: हजार रुपये दे गया है। मैंने उनसे कुछ नहीं कहा मगर विजय को मन ही मन बहुत धन्यवाद किया। अब मेरे साथ सब कुछ सही हो रहा था। मेरे दोस्तों की मुझसे बन रही थी, और मेरी प्रेमिका भी मेरे साथ सही थी। 

घर में भी सब सही ही चल रहा था। लेकिन सब कुछ सही चलना हीं मेरे डर का असली कारण था। मेरे साथ कभी भी सबकुछ सही नहीं हो सकता। अगर हो रहा है तो इसका मतलब है की कोई बड़ी मुसीबत मेरी रास्ता देख रही है। मन में एक बेचैनी सी लगी रहने लगी। मैं समझ नहीं पा रहा था की ये सब क्या हो रहा है। क्युं सभी कुछ ठीक होना मुझे परेशान कर रहा है आखिर क्या बात है? जो मेरे नज़रों के सामने होते हुए भी मैं उसे देख नहीं पा रहा हूँ। पहले लगा ये सब मेरे मन का वहम है मगर जब ये बेचैनी बढ़ने लगी तो मुझसे रहा नहीं गया और मैंने इस बेचैनी का निदान खोजने की ठानी। मैं अकारण ही बेचैन तो नहीं रह सकता ना?

मुझे इस शहर मे आये लगभग तीन महिने हो गये थे। और अब मुझे मेरे घर की याद आ रही थी। बहुत दिनों से मैं मां को याद कर रहा था। तो सोचा १५ अगस्त की छुट्टी का फायदा उठाया जाय और घर घूम के आया जाय। चुकी १५ अगस्त सोमवार को था तो मैं शनी वार की रात को अगर ट्रेन पकड़ता तो रविवार की दोपहर तक मैं अपने घर होता फिर सोमवार की रात को ट्रेन पकड़ कर मंगलवार के दोपहर तक वापस काम पर आ सकता था। यही सोचकर मैंने घर जाने का टिकट कटवा लिया। ये बात मैंने अपने किसी जान पहचान वालों को नहीं बताया सोचा अचानक मिलकर सबको चौका दूंगा। इसीलिये मैने मां, भैया, विजय, आदित्या किसे से भी ये बात नहीं बतायी। और तो और मैंने सानिया को भी ये बात नहीं बतायी की मैं कलकत्ते आ रहा हूँ। क्युंकि अभी तक उससे मिलने का कोई प्लान नहीं था। 

शनिवार की रात को जब मैं ट्रेन पर बैठा तो मन में खयाल आया की शायद ये सही मौका है सानिया से मिलने का। क्युं ना उससे मिलने की बात करूं, अगर वो चाहे तो मिल ले वर्ना उसकी मर्ज़ी। ट्रेन में बैठे हुए ही मैंने उसे फोन लगाया और पूछा की क्या वो १५ तारीख को मुझसे मिलना पसंद करेगी? पहले तो उसे लगा की मैं मज़ाक कर रहा हूँ। मगर जब मैंने उसे अपने कलकत्ते आने की बात बतायी तो थोड़ा सोचकर वो मुझसे मिलने को तैयार हो गयी। ये जान कर मैं बहुत खुश हुआ की चलो शायद अब वो साडी कडवाहट खतम हो जायेगी। और हो सकता है की मैं उससे शादी की बात भी छेड दूं। 

अगले दिन दोपहर को मैं जब अचानक से घर पहुचा तो मां एक दम से दंग रह गयी। उसके आंखों मे खुशी के आंसू छलक पडे। मुझसे गले मिलते हुए वो मुझे पुचकारने लगी। मैं घर का सबसे छोटा बच्चा था और इसी कारण सभी मुझसे बहुत प्यार करते थे। मां तो वैसे भी छोटे बच्चे को सबसे ज्यादा प्यार करती है। भैया भी मुझसे मिलकर बहुत प्रसन्न लग रहे थे। भाभी भी खुश हीं नज़र आ रही थी। मगर मां का रोना रुक ही नहीं रहा था। शाम को खाना खाने के बाद जब मैं मां के कमरे में गया सोने के लिये तो मैं उन्हे बताया की मैं आफिस के काम से आया हूँ वो भी सिर्फ एक दिन के लिये घर आया हूँ। कल सुबह ही मैं वापस चला जाऊंगा। पहले कलकत्ता आफिस में काम की रिपोर्ट दूंगा फिर वहीं से ट्रेन के लिये रवाना हो जाऊंगा ये सुनकर मां पहले तो जरा उदास हो गयी मगर फिर समझ भी गयी। 

उसी रात को मैंने मा से सानिया के बारे मे बताया और उससे बात भी करवाया। दोनों मे काफी अच्छी बन रही थी। ये देखकर मुझे अपना मामला जमता हुआ लगा। अगले सुबह जब मैं घर से चला तो सभी को ये बता कर चला की मैं दोपहर की ट्रेन से वापस जा रहा हूँ। जबकी मेरी ट्रेन शाम की थी। घर से निकलते हीं मैंने सानिया को फोन लगया और उसे मिलने का समय और जगह बताया। फिर मैं अपने घर से और वो अपने घर से निकले। हम दोनों कलकत्ता मे स्थित एसप्लेनेड मेट्रो स्टेशन में मिलने वाले थे फिर वहा से सोचते की कहाँ जाना है? खैर जब मैं रास्ते में ही था तभी विजय का फोन आया और उसने मुझसे पुछा की भाई तो कलकत्ते में है और मुझसे मिला नहीं। ये बात मुझे थोड़ी अटपटी लगी क्युकि मैंने तो किसी को भी बताया नहीं था की मैं यहाँ आने वाला हूँ। मैं ये सब सोच ही रह था की तभी वो खुद हीं बोल पड़ा डर मत मैं तो मजाक कर रहा हूँ। मैं खुद ही पुणे मे हूँ त बस यूं ही जी चाहा तो तुझसे बात कर लिया। सब ठीक तो है ना?

मैंने उसके बात को ज्यादा तवज़्ज़ो नहीं दिया। क्युंकि उस समय मैं सानिया से मिलने को इतना बेचैन था। मुझे किसी भी बात का कोई फर्क़ नहीं पड रहा था। मैं तो बस उससे मिलने की धुन मे खोया हुआ था। घर से ट्रेन, ट्रेन के बाद बस, फिर मेट्रो और फिर उसका इंतज़ार। हमें मिलना था एसप्लेनेड मे। मगर वो सेंट्रल मे उतर गयी। मैंने फोन किया तो वो उसने कहा की वो अपने सहेली के साथ है। उसका भी बायफ्रेंड आज उससे मिलने आ रहा है, तो उसे लेने के लिए वो उतरे थे। अब बस से आ रहे है। मैं वही उनकी राह देखता रहा। जब तीन-चार बसें गुजर गयी तो मैंने फिर से उसे फोन किया और पुछा की वो कहाँ है? तो उसने बताया की वो फिर से मेट्रो पकड़ कर मैदान जा रहे है। 

जब मैंने उनसे पुछा की किस स्टेशन से वो मेट्रो पकड़ रहे है तो उसने एसप्लेनेड का नाम लिया। मैं बोला मैं भी वहीं खडा हूँ बाहर की तरफ तुम बाहर आ जाओ हम साथ में टैक्सी पकड़ कर चलेंगे। वो बोली ठीक है, मैं बाहर आ रही हूँ। मगर मुझसे रहा नहीं जा रहा था तो मैं भी निचे की तरफ बढने लगा। वो नीचे से उपर आ रही थी और मैं उपर से नीचे जा रहा था। हरेक मेट्रो स्टेशन मे दो से ज्यादा प्रवेश द्वार होते है मगर एसप्लेनेड मे तो छ: द्वार है। हम दोनो इतने बेचैन थे की कोई ये नहीं बता रहा था कि कौन किस द्वार से आ रहा है या जा रहा है। वो पुरब की तरफ से आती तो मैं पश्चिम के तरफ से जाता। फिर वो उत्तर की तरफ और मैं दक्षिण के तरफ। इस दौरान हम दोनों तीन बार एक दूसरे के विपरीत ट्रैक से भी गुजरे मगर देख नहीं पाये। 

जब तीन चार बार ऐसा हो गया तो मैं उससे कहा की एक काम करो तुम किसी एक जगह रुक जाओ। या तो मेट्रो स्टेशन के अंदर या तो बाहर। फिर मुझे उसके आस पास की कोई चिन्हासी बताओ ताकी मैं तुम तक आ सकूं। नहीं तो ऐसे ये सारा दिन निकल जायेगा और हम मिल नहीं पायेंगे। उसने भी सोचा यही सही होगा फिर उसने मुझे बाटा वाले गेट पर मिलने को कहा। वो आधे सिढी पर खड़ी थी और मैं उपर आ रहा था। सिढियां गिनकर कुल बीस-पच्चीस ही रही होंगी। मगर ये इतनी ज्यादा लग रही थी की जैसे खतम होने का नाम ही नहीं ले रही हो। आने जाने वाली हरेक लड़की में मुझे सानिया दिख रही थी। जिसकी भी नज़र मुझपर पड़ती या मेरे तरफ देखती मुझे लगता ये वही है। मैं जाने कब से सिढियां चढ़ रहा था पता हीं नहीं चला कब मैं उसके पास से गुज़र गया। 

बेताबी इतनी बढ़ रही थी की मैं उसके पास खड़ा होकर भी उसे ढूंढ रहा था। और वो मेरे पास से गुजर रही थी मगर समझ नहीं पार रही थी। लेकिन जब मैं बाटा वाले गेट पर पहुंचा तो देखा दो लड़कियां एक साथ खड़ी है। एक थोड़ी सांवली सी है, गोल मटोल चेहरा, हल्की भूरी आंखे, रंग दबा सा है मगर चेहरे का पानी चमकदार है। दूसरी तरफ एक गोरी सी लड़की, घुंघराले से बाल, सफेद पोशाक और थोड़ी लंबी। वो लोग मुझे आते देख रही थी और मैं उन्हे सिढिया चढते हुए देख रहा था। हम दोनों के ही मन मे कशमकश थी के क्या ये वही है जिसे हम ढूंढ रहे है? जैसे-जैसे मैं सामने आते गया मुझे यकिन होने लगा की ये वही है। मगर पास आकर भी हम बात नहीं कर रहे थे। जब इंसान जरूरत से ज्यादा उत्सुक होता है तो बुद्धी काम करना छोड देती है।

मैं दो सिढियां नीचे रुक गया और सोचने लगा की अब क्या करूं? और वो उपर खडे सोच रही थी कि क्या करे? दोनो आगे आकर मिल नहीं रहे थे। और तो और उसकी सहेली भी चुपचाप खड़ी थी कुछ बोल नहीं रही थी। तभी नीचे से एक भीड़ आ गयी जो की अभी अभी आने वाले ट्रेन से निकली थी। हम सब अपने-अपने जगह में जमें हुए थे। इसी सोच में की अगर इस भीड़ के गुजरने के बाद भी अगला यहीं खडा रहा तो फिर उससे बात करेंगे। भीड को गुजरने में तीन मिनट का समय लगा और तब तक मेरी नज़र बस उन दोनो लड़कियों पर जमी रही। लेकिन जैसे हीं भीड खत्म हुई मैं देखा की उन दोनो के साथ एक लड़का जुड़ चुका था। और तीनों आपस मे बातें कर रहे थे। मुझे लगा की अब मुझे जाना चाहिये मगर तभी मेरे फोन की घण्टी बजी। मेरी नज़र फोन से पहले उस लड़की पर गयी जो अपने कान पर फोन टिकाये हुए थी। मैंने उसे देखते हुए इशारों मे पुछा की क्या तुम ही फोन कर रही हो? उसने भी इशारे मे कहा क्या ये फोन तुमने पकड़ा है? फिर मैंने ये बात पक्की करने के लिये की उसने ही फोन किया है।

मैंने फोन रिसिव कर लिया और बात करते-करते अपना हाथ उठाया तो उसने भी अपने हाथ से इशारा कर दिया। ये वही लड़की थी जो पहले उस लड़के से बात कर रही थी। गोरी वाली (जो की मुझी बिल्कुल पसंद नहीं आ रही थी)। मैं अपनी हैसियत जानता था की मुझे इस तरह की लड़की नहीं मिल सकती। मैं थोड़ा सा उदास तो जरुर हुआ मगर प्यार तो प्यार होता है भाई साहब। और मैं सिर्फ तन की सुंदरता पर जाना नहीं चाहता था। लेकिन मेरा इशारा पाकर उसने फोन उस लड़की को पकड़ा दिया जो इस वक़्त दूसरे लड़के से बात कर रही थी। जब उसने पहली बार फोन पर हेल्लो कहा मुझे सुकून मिला। मैं झट से उस तरफ बढ़ने लगा और वो मेरी तरफ पांव बढ़ाने लगी।

मन तो कर रहा था की दौड़ कर उसे गले से लगा लूं। मगर पबलिक प्लेस पर ऐसा करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। जब मैं वो और वो बिल्कुल नज़दिक पहुंचे तो उसने सबसे पहले जो बात कही वो थी, कैसे हो? और मैंने कहा जैसे तुमने दो दिन पहले सुना था। उसकी आंखे छलक ही जाती अगर उसकी सहेली ने उसे आवाज़ ना लगाई होती। खुद को रोकते हुए उसने कहा चलो अब चलते है। चलते हुए मैं बहुत कुछ पूछता रहा और वो बहुत कुछ बोलती रही। पर एक बात मेरे पुछने के पहले हीं उसने बता दिया की ये लड़का उसकी सहेली का प्रेमी है। 

अभी वो मेरे पास थी, मेरे साथ थी। मैं चाहता था की मैं उसका हाथ पकड़ लूँ और साथ चलूँ । मगर वो थोड़ा संकोच मे थी। स्टेशन से बाहर निकले तो मैं बोला सुनो मुझे बहुत भूख लग रही है। उमसे मिलने की खुशी में मैं सुबह से कुछ भी खाया नहीं है। वो हंसी और बोली तुम सच में ऐसे ही हो जैसे फोन पर होते हो। अक्सर जब भी हम फोन पर बात करते थे तो मैं उसे अपने आदतों के बारे में बताया करता था। जिसमें से एक मेरे खाने की बात है कि मैं भूखा नहीं रह सकता। उसने अपने बैग से एक टिफिन निकाला और कहा लो खा लो मैंने तुम्हारे लिये मां से बनवाया है। मुझे मालूम है की तुम भुखे ही रहोगे। 

मैंने एक निवाला निकाला और उसे खिलाने की इशारा किया तो वो थोड़ा घबराते हुए बोली अभी नही, अभी बस तुम खाओ। मैंने खाते हुए उससे पुछा की क्या उसने अपनी मां को हमारे बारे में बता दिया है? तो वो बोली नहीं अभी नहीं। वैसे मेरी मां समझ तो रही है की मेरा किसी के साथ प्यार का चक्कर तो है। मगर मुझसे पुछा नहीं। आज जब मैं तुमसे मिलने के लिये आ रही थी और उनसे कहा की मुझे टिफ़िन मे कुछ खाने को दे दो तो थोड़ा हंसी फिर ये बनाकर दे दिया। मेरी मां मेरी बहुत अच्छी दोस्त है वो समझती है और समझाती भी है। रास्ते मे चलते हुए ही मैंने टिफिन खाली कर दिया और उससे रुमाल लेकर हाथ भी पोंछ लिया। हम एक दूसरे के साथ ऐसे थे जैसे हमारा रोज़ का मिलना हो वैसे इसमें झूठ भी तो नहीं है, हम मिलते तो रोज़ ही थे बस एक दूसरे को देख नहीं सकते थे। फिर हमने टैक्सी पकड़ी और निकल पड़े मैदान मेट्रो के पास जहाँ एक नया पार्क खुला था। पार्क का नाम अभी मुझे याद नहीं आ रहा है। टैक्सी मे हम दोनों पास पास बैठे थे। पहले मैं फिर सानिया फिर उसकी दोस्त और फिर उसकी दोस्त का प्रेमी। लगभग दस मिनट के बाद जब हम पार्क पहुंचे तब तक हम दोनों एक दूसरे का हाथ पकड चुके थे। पार्क जाकर देखा तो भयंकर भीड लगी थी। एक तो १५ अगस्त का दिन और उपर से वहां कोई अलग से इवेंट हो रहा था। कुल मिलाकर अकेले में बात करने का मौका ही नहीं मिल रहा था।

वैसे बात करने के लिये कुछ नया नहीं था तो नहीं। मगर बस अकेले मे मिलकर उसके सामने अपने प्यार का इज़हार करना चाहता था। मगर ऐसा हो नहीं पा रहा था। अभी दोपहर के तीन बज चुके थे और मुझे पांच बजे तक ट्रेन पकडने के लिये निकलना था। यहाँ अभी तक हम एक दुसरे से अकेले में मिलने को तरस रहे थे। खैर जब पार्क में जगह नहीं मिले तो मैंने उनसे कहा की क्युं ना हम किसी रेस्टोरेंट चले, कुछ खा भी लेंगे और ए.सी के ठंडे हवा में बाते भी कर लेंगे। सभी मान गये और हम वही हल्दीरम के अंदर चले गये। छोले कुल्चे के साथ ठंडी लस्सी और फिर एक कुल्फी। यहाँ भी जब हम बैठने के को हुए तो सानिया और उसकी सहेली एक तरफ हो लिये और मैं और वो लड़का दुसरी तरफ। अब बस मेरा सबर टूट गया मैंने सानिया को कहा की वो मेरे पास आकर बैठे। और उसकी सहेली को उसके दोस्त के साथ बैठने को कहा। तब कहीं जाकर मुझे थोड़ा सुकुन मिला। 

हम साथ बैठे और बातें करने लगे। जब खाना आया तो मैंने पहला निवाला उठाया और सानिया के तरफ बढा दिया। पहले तो उसने मना किया मगर फिर खा लिया। अब मैं ये सोच रहा था की शायद वो भी मुझे अपने हाथो से खिलायेगी मगर उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया। ये बात मुझे जरा चुभी तो थी मगर फिर मैंने सोचा की शायद वो सबके सामने ऐसा नहीं करना चाहती तो मैंने भी उसपर जोर नहीं दिया। हाँ जब सब खा चुके और लस्सी पिने को हुए तो मैंने उसके गिलास से एक घूंट लस्से ज़रूर पी ली। अब तक चार बज चुके थे और मेरे जाने का समय होने लगा था। मैंने सानिया से कहा की क्या वो बस दो मिनट के लिये मेरे साथ थोड़ा आगे तक अकेले चल सकती है, मुझे उसे कुछ देना है। इस बार वो भी मान गयी और बोली हाँ देना तो मुझे भी तुमको कुछ है।

 इतना कहते हुए अपने पर्स से एक छोटा सा डब्बा निकाला। उसे देते हुए कहने लगी की कल पुरी रात मैं नस यही सोचती रही कि तुम्हारे लिये क्या तोहफा लूं और फिर जाकर मैंने सोचा की क्युं ना तुम्हें एक कलम तोहफे में दिया जाये। तुम इतनी अच्छी-अच्छी बातें करते हो, मुझे लगता है की तुम्हें लिखना चाहिये। अगर तुम लिखोगे तो बहुत अच्छे लेखक बन सकते हो बस अपनी ये मासूमियत मत खोना । उसकी ये बात मेरे मन को भा गयी। अब मेरी बारी थी मैंने अपने जेब से उसे एक अंगूठी निकाल कर दी और कहा – सानिया अगर मुझे देखने के बाद और मुझसे मिलने के बाद भी तुम्हारा प्यार मेरे लिये पहले जैसा ही है तो ये अंगूठी लेकर मेरे प्यार को पुरा कर दो। हाँ अगर मेरी शकल देखने के बाद तुम्हारे सपनों के राज कुमार की छवि बिगड़ गयी है तो तुम मुझे यहाँ अभी और इसी समय नकार सकती हो, मैं थोड़ा भी बुरा नहीं मानुंगा। उसने मेरी तरफ देखा और बोली तुम्हे याद है जिस दिन तुम इस नौकरी के लिये जा रहे थे उसकी पहली रात को तुमने मुझसे पुछा था की क्या मैं तुमसे शादी करना पसंद करुंगी? मैंने कहा हाँ याद है लेकिन तब तो हम दोनों ने एक दूसरे को देखा नहीं था। मुझे बिच में ही टोकते हुए वो बोली रौनी मैंने तुम्हारे सुरत से नहीं तुम्हारे सिरत से प्यार किया है। और जब प्यार रुहानी हो तो उसे बदन के लिहाफ से कोई फर्क़ नहीं पड़ता । मैं अभी भी तुम्हें उतना ही प्यार करती हूँ जितना चार घंटे पहले करती थी।

इतना कहते हुए उसने मुझे उस अंगुठी को अपने रिंग फिंगर में पहनाने का इशारा कर दिया। मेरे लिये ये पल मेरी ज़िंदगी का सबसे खुशी वाला पल था। मैं आज भी उस दिन को, उस पल को भूल नहीं पाता हूँ। मैं उसके गले लगना चाहता था मगर बीच सड़क पर ऐसा करना सही नहीं लगेगा यही सोचकर मैंने उसे गले नहीं लगाया। फिर हम दोनों हाथ मे हाथ लिये बस स्टाप तक आये। मुझे जाना था मगर जाने का दिल नहीं कर रहा था। मेरा मन कह रहा था की ये पल बस यु हीं ठहर जाये। और मैं उसे अपने बाहों मे ले लूं। बस हम चले बाकी यह सारी दुनिया बुत बन जाये। हम यहाँ होकर भी सभी के नज़रों से ओझिल हो जाये। ये पुरी दुनिया हम दोनों मे से होकर गुजर जाये मगर हमें महसूस ना कर पाये। पर ऐसा हो नहीं सकता था। 

समय ना तो कभी रुका है और ना हीं कभी रुकेगा वो तो चलता ही रहेगा। और हम बस उसके हाथ की कठपुतली की तरह बस अपना किरदार निभाते रह जायेंगे। मेरी बस आ चुकी थी और मुझे उसका हाथ छोड़कर उसपर चढ़ना था। मगर वो हाथ छुट ही नहीं रहा था। तब उसने बस पर चढ़ने मे मेरी मदद की मुझे चढाते हुए बोली – जाओ और कुछ बनकर ही लौटो। तब ही मै तुम्हे अपने मां-बाबा से मिला पाऊंगी। मैं तुम्हारे आने की राह तकुंगी। तुम निश्चिंत होकर काम मे मन लगाओ। इतने में बस आगे बढ़ने लगी और सानिया पिछे छुटने लगी। मैं बस के दरवाज़े पर लटकता हुआ उसे देखता रहा और वो बस के मुडने तक मुझे हाथ दिखाती रही। 

ज़िंदगी में पहली बार मुझे कुछ पाने और खोने का मिला-जुला एहसास एक साथ हो रहा था। जैसे हीं बस ने मोड़ लिया मैं अंदर जाकर बैठ गया अब मुझे मेरे घर की याद आने लगी। मुझे महसूस हुआ की मैंने घर वालों को ट्रेन में बैठनी की बात नहीं बतायी थी। तो मैं एक-एक करके सभी को फोन कर दिया। सबसे पहले मां को बताया की मेरी ट्रेन छुट चुकी है और मैं सही सलामत हूँ। फिर भैय्या को बताया और फिर अपने आफिस में फोन करके कहा की मैं ट्रेन में बैठ चुका हूँ और कल दोपहर तक अपने काम पर लौट आऊंगा। तभी मुझे याद आया की आज सुबह ही मुझे विजय का फोन आया था और वो मुझसे मेरे कलकत्ता आने के बारे में पुछ रहा था।

मैंने उसे फोन किया मगर उसका फोन बिजी आ रहा था। जब दो तीन बार में भी उसने फोन नहीं उठाया तो मैंने सोचा की बाद में बात कर लूँगा । यही सोच कर मैं अपने बर्थ पर औंधे मूंह लेट गया। फिर मन में आया क्युं ना सानिया से बात कर ली जाये पता तो चले की आज की मुलाक़ात के बाद उसके मिज़ाज़ कैसे है। जाने क्युं मेरे मन मे शंका थी की वो मेरे सामने तो मुझसे बात कर रही थी मगर उसके मन मे कुछ और ही बात चल रहा था। जब उसे फोन मिलाया तो उसका फोन भी बिजी आ रहा था। मैं फोन रखकर सोने की कोशिश करने लगा। ट्रेन चलने में अभी दस मिनट का समय था तो बस युं ही लेट जाने की इच्छा हुई। सामने से एक चने वाला जा रहा था तो उससे चने बनवाने लगा। फिर मन किया क्युं ना दोबारा कोशिश की जाये? फिर से ट्राई किया तो फोन लग गया। इस बार रिंग भी नहीं बजी और ना सानिया ने हल्लो ही कहा मगर वो किसी से बात तो कर रही थी। ये क्रास कनेक्शन हो गया था सानिया किसी और से बात कर रही थी पहले के तीन ३० सेकेंड्स वो कहती रही। इधर मैं हल्लो, हल्लो कहत रहा मगर उसके तरफ से मुझे कोई जवाब नहीं मिल रहा था। वो तो दुसरे किसी से बात कर रही थी। मुझे लगा की शायद मुझे फोन काटकर दोबारा मिलाना चाहिये मगर जैसे हीं मैंने फोन काटना चाहा दूसरे तरफ से एक लड़के की आवाज़ आयी।

दोनों बातें कर रहे थे - और बताओ? वो चला तो गया ना? साला मुझे बिना बताये हीं यहाँ आ टपका। तुमने उसे कुछ समझने तो नहीं दिया ना? सानिया बोली - नहीं उसे कुछ समझ मे तो नहीं आया क्युंकी जाते समय उसने मुझे एक रिंग भी गिफ़्ट की है। लगता है वो सच मे मुझसे बहुत प्यार करता है। मगर तुमने जो उसका पास्ट बताया है उसके बाद उससे कोई भी रिश्ता रखना मेरे लिये संभव नहीं है। तुमने मुझे डूबने से बचा लिया विजय। चलो अब आज के बाद उससे बात करने की कोई वजह नहीं रही। कहाँ हो तुम अभी? विजय बोला यही हावरा स्टेशन के पास भीमसैन होटेल में ठहरा हुआ हूँ। कमरा नंबर ७ चली आओ मिलकर मस्ती करेंगे।

ये सब सुनकर पहले तो मुझे अपने कान पर भरोसा नहीं हुआ। मगर जब विजय की आवाज़ सुनी तो पुरी बात मुझे एक झटके में समझ में आ गया। सानिया मुझसे मिलने तो आई थी मगर ब्रेकअप करने के लिये लेकिन विजय के कहने पर उसने मुझसे कुछ भी नहीं कहा। लेकिन ये साला मामला क्या है? मैं यही सब सोच रहा था मगर तभी ट्रेन की सिटि बज गयी और उसने अपने चलने का संकेत दे दिया। मैं समझ नहीं पा रहा था की क्या करूं? जी करता की अभी-अभी होटल जाकर उन दोनों को रंगे हाथों पकड़ लूं और दोस्ती और प्यार का सारा झूठा खेल ही खतम कर दूं। मगर मुझे मेरी नौकरी बुला रही थी। नौकरी या छोकरी बस इसी के उधर बून मे फंसा हुआ था। 

मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी, आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे पीठ मे छुरा मारा हो और मेरे मुंह मे कपड़ा ठूंस दिया हो। दिमाग मे एक हीं साथ अपने दोस्ती और अपने प्यार के सभी यादें घुमडने लगी। दोनों का चेहरा एक साथ दिमाग में दौड़ने लगा। काश की आज मैं उससे मिला हीं नहीं होता, काश मैंने उनकी बातें नहीं सुनी होती। काश के ये सब मेरा वहम होता। मगर मैंने तो दोनों की आवाज़ सुनी थी। वो भी साफ-साफ अगर ऐसा कुछ नहीं है तो फिर वो दोनों मेरे बारे में क्युं बात कर रहे थे? यही सभी बाते मेरे मन मे चल रही थी की तभी ट्रेन ने हरक़त कर दी। ट्रेन स्टेशन छोड़ रही थी और मेरा सब्र छूट रहा था। दिल और दिमाग में एक अजीब सी जंग छिड़ी हुई थी। एक को प्यार की पडी थी तो दुसरे को रोटी की। और जैसा कहते है ना प्यार आदमी को निकम्मा बना देता है। उसी तरह उस एक पल ने मुझे भी बेकार बना दिया। दिल ने दिमाग को मात दे दी और मैं अपना बैग लेकर चलती ट्रेन से उतर गया। मेरे उतरने और ट्रेन के प्लैटफोर्म छोड़ने का अंतर सिर्फ ३ सेकेंड का ही था।

मुझे मालुल था की होटेल भीमसैन स्टेशन के दस कदम के फासले पर है। मुझे यहाँ से वहाँ जाने में बस उतना हीं समय लगने वाला था जितना की स्टेशन से बाहर निकलने मे लगता। लेकिन मैं थोड़ा सब्र से काम लेना चाहता था। सानिया जब बात कर रही थी तब वो बस में थी। उसका बस उस समय लेक टाउन के पास था। उस समय कंडक्टर किसी से बात कर रहा था और उसे उस जगह का नाम बता रहा था। अभी उसे आने में कम से कम ४० मिनट तो लगते हीं। मैं सबसे पहले जाकर अपना टिकट कैंसिल करवाया। जो पैसे मिले उसमे कुछ और पैसे लगा कर अगले दिन की हवाई जहाज की टिकट बूक करवाई। क्युकि मैं समझ चुका था की आगे मुझे जो भी दिखने वाला है वो मेरे लिये सही नहीं होगा। तो अब इस झूठे प्यार के लिये मैं अपनी नौकरी तो नहीं गवा सकता था ना? 

लेकिन ये तो ठान हीं लिया था की इन दोनों को एक साथ पकड़ना जरूर है। ताकी मुझे भी इस क़ैद से रिहा होने का कोई ठोस बहाना तो मिले। पहली बार मुझे ऐसे सदमें से बाहर आने में पूरे एक साल लगे थे, और मेरी पढ़ाई चौपट होते-होते बची थी। अब मैं थोड़ा समझदार हो गया था और फिर से खुद को बर्बाद नहीं कर सकता था। फ्लाईट की टिकट होते हीं मैं सिधे उस होटेल गया जहाँ दोनो मिलने वाले थे। किसी तरह करके मैंने कमरा नम्बर ८ अपने लिये लेने में कामयाब रहा। मैं वो कमरा इस लिये लेना चाहता था ताकि मैं आते या जाते समय में से किसी भी समय सानिया को देख सकूं। और फिर दोनो को साथ मे रंगे हाथों पकड़ सकूं। मैंने अपना सामान कमरे में रक्खा और वही कोर्रिडोर में उनके आने का इंतज़ार करने लगा। 

खुद को छुपाने की ज़रा भी कोशिश नहीं थी मेरी क्युंकि मैं चाहता था कि दोनों में से कोई एक मुझे आते या जाते हुए देख ले, मज़ा तो तभी आता ना। मैं इस तरह से बैठा की आने जाने वाल हरेक आदमी मुझे देख सके लेकिन मैं उसे देख सकता हूँ उन्हें ऐसा ना लगे। करीब दस मिनट के बाद सानिया होटल पहुंची उसे देखते ही मुझे उस दिन की याद आयी जब मैं विजय से मिलने उसके होटल गया था। उस दिन भी जो लड़की आयी थी वो बिल्कुल ऐसी हीं तो थी। वही चाल, वही कद, वही डिल-डौल मुझे खुद को समझाने में देर नहीं लगा की ये वही है। पर मेरे मन में शक़ हुआ की कहीं अगर ये सानिया नहीं हुई तो क्या होगा। इसलिये मैंने उसे फोन लगाया। वहीं दूर से देखा की उसने फोन देखा फिर काट दिया। अब बात साफ हो चुकी थी की मेरा अनुमान गलत नहीं है। 

मन किया की वही उसे रोक कर उससे इस बेवफाई का कारण पूछूं । मगर फिर सोचा की जबतक दोनों मिल नहीं जाते कुछ भी करना सही नहीं होगा। सानिया के विजय के कमरे तक जाने का इंतजार किया। करमा नबर ७ के दरवाजे पर उसने आवाज लगायी। विजय ने अंदर से दरवाजा खोला और उसे अंदर खिंच लिया। फिर उसने बाहर झांकते हुए देखा की कोई आस पास है तो नहीं? बस यही वो समय था जब मैं दोनों को एक साथ पकड़सकता था। विजय को देखकर मुझे फिर से कालेज के दिन याद आ गये मगर इस समय खुद को सम्हालने का था। अपने गुस्से को काबू में रखते हुए मैं भी कमरा नम्बर ७ तक जा पहुंचा। घंटी बजाने के लिये दो बार हाथ उठाया मगर फिर खुद को रोक लिया। दो बार दरवाजे के सामने तक जाकर लौट आया। मन में अजीब सी कशमकश चल रही थी। फिर मन को थोड़ा मजबूत किया और दरवाजे पर दस्तक दे दी। अंदर से विजय निकला, कमर पर तौलिया लपेटे हुए। 

मुझे देखते ही उसका मुंह खुला का खुला रह गया। उसने कभी उम्मीद भी नहीं की थी की मैं इस तरह से उससे मिलूंगा। थे तो हम दोनों दोस्त हीं, और एक दूसरे को बहुत अच्छे से जानते थे। उसे समझने में देर नहीं लगी की मैं सानिया के पीछे यहाँ तक आया था। तो मामले को और बिना उलझाये उसने मुझे अंदर बुला लिया। सानिया अंदर बेड पर बैठी हुई थी बिल्कुल वैसे हीं जैसी अंदर आयी थी। बस मुझे देखकर थोड़ी सी घबरा जरूर गयी थी। दोनों में से किसी को भी ये भनक नहीं थी की मैं उन्हें इस तरह से रंगे हाथों पकड़ लूँगा । हम तीनों के बीच ना तो बहस हुई और ना हीं हाथापाई। विजय ने मुझे देखते ही कहा भाई इसे देखकर मैं अपने मन पर काबू नहीं रख पाया। तू तो जानता हीं है की मुझे ऐसी लड़कियों को पटाने मे कितना मजा आता है। इस समय विजय को अपने अंदर का कालापन बाहर आने का भी कोई डर नहीं था। 

मैं विजय से नाराज़ नहीं हो सका क्युंकि मैं उसकी फितरत से वाक़िफ था मगर मैं सानिया से जरा दु:खी था उसे मुझे इस तरह से अंधेरे में नहीं रखना चाहिये था। मैंने उससे बस यही कहा की अगर मैं तुम्हारे लिये बस टाईम पास था तो मुझे पहले हीं समझा देती। इस तरह से अंधेरे मे रखकर तुमने बस मेरा भरोसा नहीं खोया बल्कि प्यार के नाम से मेरे मन में घिन्न डाल दी है। ना तो मैं तुमसे नाराज़गी जाहिर करुंगा और नाही किसी तरह के इमोशनल ड्रामा ही करुंगा। इसे तो मैं जानता हूँ कमिना साला, हमेशा अपने दोस्तों के गर्लफ्रेंड्स को फंसाने मे इसे मज़ा आता है। इसने वही किया जो ये हमेशा से करता आया है। दोस्त के पिठ पर छुरा मारा है इसने। मगर तुम? तुमसे तो मैंने पहले ही पुछ लिया था ना की क्या हम साथ रह सकते है। क्या हमारे रिश्ते को कोई नाम मिल सकता है? अगर साथ नहीं रहना था तो बता देती, इस तरह से दो दोस्तों को आमने सामने लाने से तुम्हे क्या हीं मिला होगा? खैर छोडो, तुम्हारी भी क्या गलती है? जो चीज तुम्हे चाहिये थी वो उतनी दूर से मैं दे नहीं सकता। और जो मैं देना चाहता था वो तुम्हे चाहिये नहीं तो बात यहीं खत्म। 

इतना कहते हुए मैं अपने कमरे में चला गया। मुझे वहीं पास वाले कमरे मे जाते देख सानिया और भी ज्यादा घबरा गयी और तुरंत होटेल से अपने घर ले लिये चली गयी। विजय ने मुझसे कुछ भी नहीं कहा। उसे लगा की शायद मुझे अभी अकेला छोड देने में ही उसकी भलाई है। अगले दिन सुबह-सुबह मैं अपने कमरे से निकला और एयरपोर्ट के लिये रवाना होने को तैयार हुआ। रिशेप्सन पर जब चेक आउट करने को गया तो वहां मुझे मेरे नाम का एक खत मिला। खत विजय का था, लिक्खा था – भाई मुझे मालूम है कि मैंने जो भी किया वो सब गलत किया शायद तु मुझे कभी इसके लिये माफ भी नहीं करेगा। ना कर, करना भी नहीं चाहिये। मगर मैं भी अपने इस गलती की माफी नहीं मांगूंगा। तुझे थोड़ा समय लगेगा मुझे माफ करने में तो अगर कभी माफ कर सका तो फिर मिलेंगे और नहीं कर सका तो शायद कभी भी ना मिलें। 

हाँ मगर एक बात याद रखना हमारे निज़ी ज़िंदगी मे होने वाले उथल-पुथल का प्रभाव हमारे घर तक नहीं जाना चाहिये। मां को ये बात पता नहीं चलनी चाहिये, ना तेरी मां को और नाहीं मेरी मां को। उनके लिये हम दोनो अलग नहीं है, एक हीं है। मैंने चिट्ठी पढी और उसे जेब मे रख लिया। एक वो दिन है और एक आज का दिन फिर मैंने कभी उन दोनों से बात नहीं की। मैं अपने काम पर लौट आया मगर अब इस काम में मेरा मन नहीं लगता था। आदित्या के कारण ही ये सब कुछ हुआ था, उसने हीं सानिया का नम्बर विजय को दिया था। यही सब बातें मेरे मन मे चलती रहती थी। बस एक दिन इस शहर से मन भर गया और मैंने वो नौकरी छोड दी। “सानिया” इस नाम को मैंने अपने ज़िंदगी से ऐसे मिटाया की दोबारा कभी इसके बारे में सोचा तक नहीं। अपने जीवन के इस अध्याय को मैं एक थैले में बंद करके मन के गम्भीर सागर में डुबो दिया। 

विजय उसके बाद भी कई दिनों तक मेरे घर जाता रहा। मगर फिर उससे मेरा मिलना नहीं हो पाया। ना ही मैंने कभी इस बारे में अपने मां को बताया और नाहीं उसने कभी बताया। आज इस बात को १५ साल हो चुके है लेकिन इन पंद्रह सालों मे कौन कहाँ है मुझे नहीं पता। सानिया के बारे में पता करने की जरूरत नहीं थी और विजय के बारे में कभी जानना नहीं चाहा। एक बार मां ने कहा था कि वो कलकत्ते से किसी और शहर में जाकर बस गया है। उस समय उसकी शादी हो चुकी थी। आदित्य अभी भी शायद उसी कमपनी में होगा या नहीं भी होगा। अब किसी से मुलाक़ात नहीं होती। मैं भी भूल चुका हूँ और शायद वो भी भूल चुके होंगे।

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                                     "ट्रेन प्लेटफोर्म से निकल गयी"

 प्रियंका

बडे बुज़ुर्ग कह गये हैं की दूध जला मट्ठा भी फूंक कर पिता है। और जिसका मुंह दो बार जला हो वो तो पानी भी पिने के पहले उसका तापमान जांच लेता है। मेरे साथ भी ऐसा ही है जिस उमर में आम तौर पर लड़के अपना पहला प्यार पाने के तड़पते है उस उमर तक आते-आते मेरा दिल दो ठोकर खा चुका था। धोखा इसलिये नहीं कहूंगा क्युंकि दोनों ही बार मुझे ये मालूम था की सामने वाले ने किस वजह से मेरा साथ छोडा था। अगर बात पाखि की करुं तो मुझे पहले से मालूम था की उससे प्यार मिलना मेरे लिये कभी भी आसान नहीं होने वाला। मैं पहले से उसके प्यार के बारे में जानता था और फिर उसने भी सामने से खुद मुझे अपने साथी के बारे में बताया। उसने मुझे धोखा नहीं दिया और नाही किसी तरह का दर्द हीं दिया मैं ही बेवकूफ था जो सबकुछ जानते हुए भी अजय देवगन बनने चला था और सोच रहा था की वो एक दिन अपने पुराने प्रेमी को छोड़ कर मेरे पास काजोल की तरह दौड़ती हुई चली आयेगी मैं उस समय अपने एक तरफा प्यार के खुमार में था मगर असल जिंदगी में कभी भी फिल्मों जैसा क्लाईमैक्स नहीं होता जहाँ अंत में सबकुछ सही हो जाये। फिर मैं पाखि को धन्यवाद भी देना चाहता हूँ कि उसने मुझे सही से प्यार करने का तरिका बताया और ये सिखाया की अगर आप थोड़ी से हिम्मत करो तो फिर दुनिया आपकी बात जरूर सुनती है। उसने भी हिम्मत दिखायी और अपने मा-बाबा से अपने साथी को मिलाया। 

उसके जैसी हिम्मत वाली लड़की मैंने आज तक कभी नहीं देखी वो जिस तरह से अपनी बात खुलकर सामने रखती थी उस तरह से मैं आज भी अपनी बातें नहीं रख पाता। मेरा बचपन का पहला प्यार भले हीं अधूरा रह गया मगर उसने मुझे ये समझा दिया की समय रहते हीं अपने मन की बात कह देनी चाहिये वरना कोई और आपके प्यार के निंव पर अपने सपनों का महल खडा कर देगा। सच कहूं तो आज भी मैं पाखि को याद करता हूँ। उसके साथ बिताये बचपन के वो पल मुझे आज भी बिल्कुल शिशे की तरह साफ दिखाई देते है उन यादों पर आज तक मैंने धूल नहीं जमने दिया है हर रोज़ उन यादों का एक हिस्सा अपने मन में जीता हूँ हर रोज़ उनमे से कोई एक लमहा चुराकर अपने प्यार को निहार लेता हूँ। काश मुझे एक मौका मिलता उन यादों को फिर से दोहराने का, उसके साथ खेलने का, उसे स्कूल छोडने का और उसके लौटने तक उसका इंतज़ार करने का। पर समय कभी मुड़ता नहीं और कुछ यादें सिर्फ यादों में ही अच्छी लगती है। हम चाहे जितना भी किसी लम्हे को हू-ब-हू दोहराने की कोशिश कर लें उसमें कुछ ना कुछ चुक तो रह ही जायेगी और फिर वो पुरानी यादों पर एक दाग बन कर रह जायेंगे। तो यादों को यादें ही रहने देते है और आज की असल जिंदगी से अपना वास्ता बनाये रखने की कोशिश करते है। 

मैं सानिया को भी गलत नहीं मानता क्युंकि वो भी मुझे धोखा नहीं देना चाहती थी। उसने कभी भी मुझसे कोई मांग नहीं की जब उसे मेरे किसी बात का बुरा लगा तो उसने मुझसे नाता तोड़ना ही सही समझा जोकि कोई भी लड़की करती वो उसने भी किया। मुझे उससे कोई शिकायत नहीं बल्कि उसने मुझे यही सिखाया की कभी भी किसी पर आंख बंद करके भरोसा मत करना क्या पता जिसे आप अपना राज़दार समझ रहें हो वही आपके राज़ को जगजाहिर करके अपना उल्लु सिधा करने लगे। वो प्यार तो मुझसे करती थी, सच्चा और बहुत गहरा मगर जब आपके अपने ही दोस्त आपकी बजाने पर तुले हो तो किसी लड़की को दोष देकर क्या ही फायदा हो सकता है। सानिया का मुझसे रूठ जाना इस बात का सबूत था की पहले वो मुझसे सच में प्यार करती थी शायद मुझसे भी ज्यादा मगर जब से उसका पाला आदित्या और विजय से पड़ा तो उसका मन मेरे तरफ़ से उचट गया था। वो खुलकर मुझे ना भी नहीं कह पा रही थी पर मेरे साथ रहना भी नहीं चाहती थी उसकी ये मजबूरी भी मैं समझ सकता हूँ। उसे मालूम था की मैं उससे सच्चा प्यार करता हूँ इसलिये वो मेरा प्यार पर से भरोसा तोड़ना नहीं चाहती थी मगर वो मुझसे इंसाफ भी नहीं कर पा रही थी फिर क्या पता हो सकता है की शायद उस दिन जब मैंने उन दोनों को एक साथ होटल मे देखा तो वो विजय से अपना रिश्ता तोड़ने जा रही हो। हो सकता है ना? 

मगर मैंने हीं उसे कुछ कहने का मौका नहीं दिया और ना हीं फिर कभी उससे दोबारा मिला हीं। इस पूरे मामले में मैंने उसे अपना पक्ष रखने का मौका नहीं दिया अब ये सही था या गलत था मालूम नहीं मगर जो भी था समय और परिस्थिति के अनुसार था। हाँ मुझे ठोकर जरूर लगा और मुझे दर्द भी हुआ बचपन से लेकर जवान होने तक में मेरा दो प्यार अधुरा रह गया। शायद मेरे नसीब मे प्यार था ही नहीं। अब जब मेरे पास ना तो प्यार था और ना हीं नौकरी थी तो मेरी हालत उस मुसाफिर की तरह हो गयी थी जिसकी कोई भी मंज़िल नहीं थी मगर सामने रास्ता बहुत लम्बा द्ख रहा था। कहाँ जाना है और कब तक चलना है मालूम नहीं। मुझे समझ में नहीं आ रहा था की मेरे साथ ही ऐसा क्युं हो रहा है। मेरे जीवन में ठहराव नहीं था बस बहते हुए नदी की तरह मैं कभी ऊंची तो कभी निची राहों में भटक रहा था जाने मेरा समंदर कहाँ है पता नहीं। लगभग छ: महिने बीत गये पर मैं कुछ कर नहीं पा रहा था ना तो नौकरी मिल रही थी और ना ही नौकरी मिलने की उम्मीद। मैं पिछले छ: महिनों से घर भी नहीं गया था किसी को मेरे बारे में कोई जानकरी नहीं थी की मैं कहाँ हूँ और कैसा हूँ। बस सब यही सोच रहे थे की कहीं से बस मेरे ज़िंदा होने की खबर उनतक पहुंच जाये और मैं सोच रहा था की किसी तरह मुझे कोई नौकरी मिल जाये ताकि मैं अपने ज़िंदा होने की खबर अपनों तक पहुंचा सकूं।

जिंदगी तुम्हारा हाथ पकड कर कब कहाँ और क्युं लिये जाती है कोई नहीं जानता। इसका अपना अलग तारिका और अंदाज़ होता है मेरे साथ भी ज़िंदगी कुछ ऐसा ही खेल खेल रही थी। एक रोज़ सुबह जब मैं नौकरी की तलाश में भटक रहा था तो मैंने एक दिव्यांग स्कूल का विज्ञापन देखा जहाँ एक ट्रेनर की जरूरत थी। महिना कम था मगर रहने की सुविधा दी जायेगी ऐसा उस विज्ञापन में लिखा हुआ था। बस फिर क्या था मैं उस स्कूल पहूंच गया और इंटर्व्यु दे आया। ये एक दिव्यांग बच्चों का स्कूल था , कुछ खास बड़ा नहीं था मगर मेरे लिये तो बस इतना ही काफी था की मुझे रहने की जगह मिल जायेगी और मन लगाने को काम भी। पिछले छ: महीनों में मैं अपनी सारी बचत खपा चुका था। ज़िंदा है तो भूख लगेगी हीं और भूख मिटाने ले लिए खाना भी खाना पड़ेगा आप भले किसी पेड़ के नीचे रात बिता लो मगर खाने के बदले पत्ते तो नहीं खा सकते ना। इस स्कूल मे मुझे बहुत कम तनख्वाह मिलने वाली थी मगर मुझे मंज़ूर था मैं तो बस खुद को फिर से समेटने की तैयारी कर रहा था। इंटर्व्यु के तीन दिन के अंदर ही मुझे नौकरी मिल गयी और फौरन काम पर आने को भी कह दिया गया। मुझे ऐसा लगा जैसे मानो किसी को तपते रेगिस्तान में एक बहुत ही छायादार पेड़ मिल गया हो जिसके डाल पर फल भी लगा हो और तने से पानी भी रीस रहा हो। मैं अपना सामान लेकर स्कूल के क्वार्टर चला आया। यहाँ आकर देखा की कमरे मे पहले से दो बिछावन लगे हुए थे शायद मेरे साथ कोई और भी रहने वाला था। चलो कम से कम मेरा अकेला पन कुछ तो दूर होगा। 

मुझे कमरे तक लाने वाले से पुछा की भैया मैं अपना सामान कहाँ रख दूं? मुझे देखते हुए उसने कहा अभी यहाँ और कोई है नहीं जिसे आना है वो कल से आयेगा तो आप चाहे जहाँ भी अपना सामान रख सकते है और जो चाहे बिस्तर चुन सकते है। इतना कहते हुए वो बाहर चला गया। मैंने अपने मन का बिस्तर चुना, अपना बैग वही बिस्तर के नीचे खिसका दिया और लेट गया। अभी दोपहर के तीन बज रहे थे मगर लेटते हीं मुझे निंद आ गयी और मैं कब सोया पता नहीं चला। मेरी निंद उसी आदमी के बुलाने से खुली जो मुझे कमरा दिखाने आया था। मुझे ऊठाता हुआ पूछ रहा था की मैं खाना बाहर से लाकर खाऊंगा या फिर उसके हीं साथ बनाकर खाऊंगा। मैंने उससे पुछा की टाइम क्या हो रहा है? वो बोला अभी रात के आठ बज रहे है। मुझे आश्चर्य हुआ की मैं पांच घंटे तक सोया रह गया। खैर, अब मैं थोड़ा हल्का महसूस कर रहा था तो मैंने कहा चलो मिलकर खाना बनाते है और खाते है। लेकिन रुको, मैंने तो तुम्हारा नाम पुछा हीं नहीं – तुम्हारा नाम क्या है? उसने मुझे देखते हुए कहा नाम में क्या रक्खा है मगर जब आप पुछ ही लिये तो सुन लिजिए, मेरा नाम सूरज है, सूरज सिंह, और हम राजपुत नहीं भुमियार है।

दो रोटी दाल के साथ खाकर मैं फिर से सोने के चला गया मगर बिस्तर पर पड़ते ही मुझे बीते दिनों की यादों ने घेर लिया दिमाग मे सारी पुरानी यादें घुमडने लगी। निंद नहीं आ रही थी तो मन ने कहा चलो थोड़ा बाहर शैर कर आते है जरा इस शहर के रात का नज़ारा तो देखा जाये। अभी सर्दियां शुरु ही हुई थी ये मौसम दिवाली के बिल्कुल बाद का था हल्की गुलाबी ठंड पर रही थी। लोग स्वेटर तो नहीं पहन रहे थे मगर एक हल्की सी चादर जरूर लेकर चल रहे थे। यहाँ लगभग आठ बजे के बाद ही सडक सुनसान सी हो गयी थी ना कोई बंदा ना किसी बंदे की जात कुछ भी नहीं दिख रहा था। कही दूर से लोकल ट्रेन के गुजरनी की आवाज़ आ रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे की स्टेशन यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है। स्टेशन पर बोलने वाली महिला की आवाज़ साफ-साफ सुनाई दे रही थी। नुक्कड पर एक चाय की दुकान खुली हुई थी उसे देखकर चाय पिने का मन किया तो मैं तेज़ कदमों से चलता हुआ वहाँ तक जा पहुंचा। तीन चार लोग और भी थे जो वहाँ चाय पी रहे थे मैं इस शहर के लिये नया था और यहाँ के रहन सहन से वाक़िफ भी नहीं था तो जब मैं उस दुकान पर पहुंचा तो मुझे देखकर ही चाय वाला समझ गया। पहले मुझे उपर से नीकाह्तय क गौर से देखा और फिर बोला – क्या चाहिये भाई? मै बोला ये चाय की दुकान है ना? उसने हाँ में सिर हिला दिया, तो फिर मुझे चाय चाहिये, मिलेगा? मेरे चुप होने के पहले हीं वो बोल पड़ा

कौन सी चाय? दूध वाली या बिना दूध वाली?

मैंने कहा दूध वाली,

अदरक या इलायची?

दोनों

चिनी या बिना चिनी?

चिनी

कुल्हर या कप?

कुल्हर

छोटा या बड़ा ?

छोटा

स्पेशल या नार्मल

स्पेशल

गर्म या भट्टी स्पेशल?

गर्म

पीना है ले जाना है?

पना है

लेकिन इसके पहले वो दुसरा सवाल पूछता मैंने कहा दोगे या जाऊं?

वो हंसते हुए बोला, नाराज़ क्युं हो रहे हो भाई? वो क्या है ना की आप यहाँ के लगे नहीं मुझे तो इसी लिये आपको समझने के लिये ये मज़ाक मै कर रहा था। यहाँ के लोग इतना जवाब नहीं देते वो तो दूसरे सवाल पर ही फटकार लगाकर चुप करा देते है। वैसे यहाँ घुमने आये हो या रहने के लिये? दोनों मे से कुछ भी नहीं मुझे यहाँ स्कूल मे नौकरी मिली है- मैं बोला। अच्छा वो दिव्यांग वाले स्कूल मे? मैं थोड़ा चौंका मगर उसे समझने नहीं दिया। फिर उससे पूछा आपको कैसे पता? अरे भाई यहाँ तो हर महिने एक नया ट्रेनर आता है कोई भी टिकता नही। अब आप सोचोगे की मैं इतना सब कुछ कैसे जानता हूँ? इस स्कूल का हर ट्रेनर हमारी टपरी पर ही तो चाय पिने आता है। स्कूल के अंदर की वो बातें जो प्रिंसिपल भी नहीं जानता मुझे पता होती है। सब दोस्त है मेरे, इतना कहते हुए उसने चाय मेरी तरफ बढा दी। मैं चाय लेते हुए उससे चाय की कीमत जानना चाहा तो वो बोला, आज के दिन आप मेरे मेहमान हो, और फिर आप तो स्कूल में पढाने आये हो, तो मेरी तरफ से ये चाय आपको बिना किसी शुल्क के। बस किसी को बताना नहीं।

मैं चाय खतम करके उसे दोबारा पैसे देना चाहा तो उसने कहा - आज की ये चाय मेरी तरफ से। वैसी भी आप मास्टर जी हो आपसे पैसे कैसे ले सकते है, मगर कल से जरूर लेंगे। उससे बाते करके मुझे अच्छा लगा, इस लिये नहीं की उसने पैसे नहीं लिये बल्कि इस लिये क्युकि उसका स्वभाव मुझे सही लगा। वैसे भी काफी दिन हो गये थी किसी से खुलकर बाते करते हुए। अपने कमरे में लौटकर मैंने कपड़े बदले। अभी तक वही कपड़े पहने हुए था मैं। फिर अपने मोबाईल पर रेडिओ लगाया और कान मे हेडफोन ठूंसकर बिस्तर पर लेट गया। कुछ पुराने और कुछ नये गाने सुनते हुए जाने कब मुझे निंद आ गयी। जब आंख खुली तो घड़ी सुबह के पांच बजने का इशारा कर रही थी खिड़की से बाहर झांका तो देका चारो तरफ कुहासा पसरा हुआ था। एक बार मन किया की बिस्तर छोड़ देता हूँ मगर फिर मन ने हीं अपना मन बदल लिया और मैं वापस सो गया। एक बार फिर मेरी निंद खुली तो देखा की साढे-पांच बज रहे है दोबारा सोने को हुआ तो निंद नहीं आई। वैसे भी नये स्थान पर पहली रात मुझे ढंग से निंद नहीं आती है। तभी कमरे के बाहर से मुझे कुछ समान उठा-पटक होने की आवाज़ मिली। सोचा की जाकर देखूं की क्या हो रहा है मगर फिर सोचा मुझे करना ही क्या है? मैं खुद ही यहाँ नया हूँ जो कुछ भी होगा सूरज खुद ही देख लेगा। तभी कमरे का दरवाज़ा खुला और एक लड़का कमरे में घुसा। मुझे लेटे देख उसने साथ वाले बिस्तर पर अपना सामान रक्खा और मेरी तरफ देखते हुए बोला - हाय, मैं अनिल, अनिल कुशवाहा, और बस इतना बोलते ही वो एक पल में ही सो गया। 

मुझे लगा बड़ा अजीब बंदा है, भला ऐसे कोई कैसे एक हीं सेकेंड मे सो सकता है। खैर मैंने उसे छेडा नहीं, मैं उठा और नहा-धोकर तैयार हो गया। अभी तक घड़ी मे साढे-छ: बज चुके थे और स्कूल चालू होने मे अभी एक घण्टे की देरी थी। मुझे लगा की नाश्ते का इंतजाम देख लिया जाए और यही सोचकर मैं सूरज को ढूंढने निकल पडा। दो आवाज़ मे हीं सूरज सामने से आता हुआ दिखा। मेरे पास आकर वो बोला भाई सुबह के नाश्ते का जुगार तुम्हें खुद हीं करना पड़ेगा । स्कूल की तैयारी में नाश्ता बनाने का मौका नहीं मिल पाता है मेरे सवाल का जवाब बिना पुछ हीं मिल चुका था। मैं बाहर निकल कर नाश्ते की तलाश करने लगा। जेब में पैसे ज्यादा थी नहीं तो जो कुछ भी खाना था वो ऐसा खाना था जिसमे पैसे भी ज्यादा नहीं लगे और पेट भी भर जाये। यही सोचते हुए मैं चाय के टपरी तक जा पहुंचा। मुझे देखते ही चाय वाले ने पुछा कौन सी चाय पिनी है वही कल रात वाली या फिर कुछ और? मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा नहीं मैं अभी तक कुछ खाया नहीं हूँ और खाली पेट चाय पिने से मुझे गैस हो जाती है। ये सुनकर पहले तो वो मुझे बड़े गौर से देखता है फिर थोड़ा सा मुस्कुराता हुआ कहता है। इसमें कौन सी बड़ी बात है, वो कचौरी की दुकान दिख रही है तुम्हें? वहां चले जाओ, मस्त की हींग वाले कचौरी बनाता है वो और उसके कचौरी का दाम भी कम है। साफ सफाई भी रखता है। तुम अपना खाता भी खुलवा सकते हो और हाँ एक और बात वहां तुम्हें ट्रेनर होने कारण कुछ छुट भी मिल सकता है। 

मैं उसकी बातें सुनता रहा और सोचता रहा की इस आदमी को मेरे स्थिती के बारे में इतना सबकुछ कैसे पता? कही ये कोई जासूस तो नहीं है कल रात भी मुझसे बडे प्यार से बात कर रहा था। फिर सोचा अभी इस बात से क्या ही फर्क़ पडने वाला है? मैं कौन सा बडा आदमी हूँ जो ये मेरी जासूसी करेगा? मैं कचौरी वाले के पास गया और कहा की मेरा खाता खोल दे। एकदम से एक नये आदमी को सामने देखकर वो जरा सोच मे पड गया? फिर मुझसे पुछा की कौन है आप साहब, क्या करते है, कहाँ रहते है? मुझे मेरी गलती का एहसास हुआ, मैं थोड़ा रुककर और थोड़ा सहज भाव से पहले अपना परिचय दिया और फिर कहा चाचा मैं अभी यहाँ नया-नया आया हूँ, सामने वाले स्कूल में पढाने की नौकरी मिली है, और स्कूल के ही कैम्पस मे रहता हूँ। फिर उसका दुसरा सवाल आया की आपको यहाँ किसने भेजा? मैंने चाय वाले के तरफ इशारा करते हुए सारी बात बता दी। उसने मेरे नाम से एक डायरी बनाइ और मुझे पकड़ाते हुए कहा हर महीने के ६ तारीख तक हिसाब साफ कर देना तो ये डायरी काम करती रहेगी नहीं तो अगले महिने से यहाँ खाता बंद हो जायेगा। एक बात और, बिना डायरी के कोई सामान नहीं मिलेगा ये बात समझ लो। फिर उसने मुझे मेरे अनुसार कचौरियां दी जिन्हें मैं खाकर स्कूल के लिये रवाना हो गया।

ठीक सात बजे स्कूल की घंटी बजी, सभी बच्चे एक कतार में आकर खड़े हो गये। मैं एक छोड़ पर खड़ा था और दूसरे छोड़ पर स्कूल के पुराने सभी ट्रेनर खड़े थे। अभी तक मेरी उन सबसे पहचान नहीं हुई थी प्रार्थना के बाद प्रिंसिपल सर मुझे स्टाफ रूम मे अपने साथ ले गये और सभी से मेरा परिचय भी करवाया। यहाँ मेरे अनिल और एक और ट्रेनर के अलावा सभी महिला ट्रेनर थी। दरसल महिला कहना सही नहीं होगा क्युकि मेरी ही तरह वो सभी कुंवारी थी तो हम तीन लड़के और बाकी सभी लड़कियां । आम तौर पर प्राईवेट स्कूल्स मे ऐसा हीं होता है। चुकि लड़कियां थोड़े कम पैसो में ही पढ़ाने को तैयार हो जाती है और लड़के थोड़े से पैसे में आते ही नहीं तो महिला ट्रेनर ही ज्यादा रख्की जाती है। वहां सबसे सिनियर ट्रेनर थी सुपर्ना वो एक मात्र ऐसी ट्रेनर थी जो की महिला थी और उम्रदराज भी थी। उसके बाद पायल, रंजिता, बिंदु, कल्पना, अनिल, संजय और मैं। हम सभी लगभग एक ही उमर के थे सिर्फ जो पहले से पढ़ा रहा था उसे सिनियर कहा जाता था। तो फिलहाल मैं और अनिल हींब सबसे जुनियर थे । चुकी मैं नया था तो मुझे सबसे पहले बिल्कुल छोटे बच्चों के क्लास का जिम्मा दिया गया। पहले उस क्लास की जिम्मेदारी कल्पना की थी। मैंने भी इस क्लास को लेने से मना नहीं किया, अभी मुझे काम और रहने की जगह दोनों की सख्त जरूरत थी तो जो भी काम मुझे सौंपा गया मैंने उसे अपना लिया वैसे भी ये काम बहुत कम मेहनत और बहुत ज्यादा इज्जत का है। अगर आप एक बार बच्चों के मन में बैठ गये तो फिर सभी गार्जियन भी आपकी ज्यादा इज्जत करने लगते है।

लंच टाईम मे सभी ट्रेनर स्टाफ रूम मे बैठकर बातें करते थे और लंच करते थे चुकी मैं नया था और आज मेरा पहला दिन भी था उस पर मैं लंच लेकर भी नहीं आया था तो मुझे लगा की आज मुझे स्टाफ रूम मे नहीं बैठना चाहिये। लेकिन अनिल, वो भी नया था मगर वो तो झट से सभी के साथ घूल-मिल गया ऐसा लग ही नहीं रहा था की लोग उसे नहीं जानते। खैर, मैं स्कूल से बाहर जाकर चाय पिने की सोच रहा था तभी स्कूल के पियुन यानी सूरज ने मुझे चाय बढाते हुए पुछा पिना है? मैं हाँ मे सिर हिलाया और एक कप ऊठा लिया। लंच के बाद फिर से क्लास और फिर डेढ बजे छुट्टी। बस यही सिलसिला अगले दो हफ्तो तक चलता रहा। इन दो हफ्तों मे मैंने किसी भी दूसरे ट्रेनर से बात नहीं की ना तो जेंट्स से और ना हीं लेडिज से ही यहाँ तक की मैं तो स्टाफ रूम मे भी नहीं बैठता था। मुझे डर था की कही मैं उनके साथ बैठा तो मेरा दर्द उन्हे पता चल जायेगा। क्युंकि संग बैठेंगे तो बाते होना तय है, फिर एक दुसरे के बारे में जानना, दोस्ती और फिर सब कुछ एक दिन बिखर जयेगा। मैं पहले भी दो बार प्यार करके पछता चुका हूँ और दोस्ती में भी ठोकर खा चुका हूँ । इतना सब कुछ देखने के बाद अब मैं फिर से अपने आप को और तकलीफ में नहीं डाल सकता था। मैं तय कर चुका था की अब ना तो दोस्ती होगी और ना हीं प्यार ही करुंगा। लेकिन हम लड़के है जनाब और हमारा दिल हमारे दिमाग की बात कभी नहीं मानता है। जहाँ भी सुंदर चेहरा और मिठी आवाज मिली वहीं पर फिसल जाता है इसिलिये मैने अपने लिये एक दायरा बना लिया था की चाहे जो हो जाये इस बार गलती नहीं दोहराउंगा। बस यही सोचकर हीं मैं स्टाफ़ रूम में नहीं बैठता था। खुद को अपने झूठे और बनावटी अहंकार के परत से ऐसा ढंक लिया की कोई भी व्यक्ति मुझे एक बार देख ले तो यही समझे की ये तो बडा घमंडी है इससे बात करना ही बेकार है। और मैं इसमें सफल भी हुआ, क्युंकि जब मैंने किसी से बात नहीं की तो किसे ने मुझसे बात नहीं की।

किसी भी मनुष्य का चुप हो जाना उसके उपर बिते असह्य वेदना को दर्शाता है। कोई भी व्यक्ति जन्म से चुप्पी लिये पैदा नहीं होता। हमारे समाज मे तो अभी-अभी जन्मे बच्चे को तो बस इस लिये ही रुला देते है ताकी पता चल सके की उसमे बोलने की क्षमता है भी या नहीं। जन्म से ही रोता हुआ बच्चा बडा होकर अपने हर भाव को शब्दों के सहारे प्रकट करने की कोशिश मे लग जाता है। हमारे हर क्रिया के लिये कोई ना कोई शब्द जरूर है। इस दुनिया में आने से लेकर जाने तक के हरेक काम केलिये कोई ना कोई शब्द तय किया हुआ है हम सब उसी नाम से उसे जानते और समझते है। बस एक ही ऐसी भावना है जिसे ना तो कहा जा सकता है और ना हीं समझाया हीं जा सकता है और वो भाव है ठगे जाने का भाव। क्युंकि ये वो भाव है जिसके विषय में हर व्यक्ति बस यही सोचता है की वो तो कभी भी ठगा नहीं जा सकता। वो इतना चतुर और चालाक है की उसे ठगने वाला अभी तक इस संसार मे आया हीं नहीं है। मगर जब ऐसा आदमी ठगा जाता है तो उसे अपने मन की पीड़ा किसी से भी बांटने में शर्म आती है इसी कारण वो मौन साध लेता है। इस मौन के पिछे की छटपटाहट को कोई देख नहीं सकता। उसका मौन रहने वाला व्यवहार अक्सर लोगों का उसके प्रति नज़रिया बदल देता है लोगों को लगता है की शायद वो व्यक्ति अकडू या अहंकारी है। कोई उससे उसकी मन की बात पुछता तक नहीं बस उसे देखकर खुद ही अपना रास्ता बदल लेता है। मैंने भी अपने चारों तरफ ऐसा आवरण बना लिया था जिससे की कोई मेरे व्यक्तित्व के अंदर झांकने की कोशिश भी ना करे। किसी से बात करना तो दूर मैं तो किसी के आस-पास बैठने से भी खुद को बचाने लगा था। पूरे क्लास के दौरान मेरी बात सिर्फ बच्चों से हीं होती थी मुझे बच्चे वैसे भी बहुत पसंद थे और बच्चों को मेरे पढाने और खेलाने का तारिका बहुत पसंद आने लगा था। मेरे पहले यहाँ जो भी ट्रैनर रहे थे सभी से बच्चे डरते थे मगर मुझसे वे सभी स्नेह जताने लगे थे। कुछ दिनों में ही मैं स्कूल के प्रिय ट्रेनर मे शुमार हो गया था। स्कूल के बाहर भी जब भी कोई बच्चा मुझे देख लेता तो मुझसे मिले बिना अपने रास्ते जा नहीं सकता था। मेरी अच्छी कटने लगी थी, मैं फिर से धीरे-धीरे अपने पुराने जीवन की तरफ लौटने लगा था अभी तक मैंने खुद के चारो तरफ जो दीवार बनायी थी वो दोस्ती और प्यार को मेरे तरफ आने से रोकती थी और मुझे उसके तरफ बढ़ने से भी हमेशा बांधे रखती थी। इसिलिये चार महिनों में भी मेरी स्कूल के दूसरे ट्रेनर के साथ कोई खास बातचीत नहीं हो सकी थी।

प्यार हो या दोस्ती जबतक पहल दोनों तरफ से ना हो तबतक वो सफल नहीं हो सकते। इन दोनों ही जज़बातों को मैंने एक अंधेरे डिब्बे मे बंद करके किसी नदी मे बहा दिया था। इन दोनों शै का मेरी ज़िंदगी में लौट कर आना मुम्किन नहीं था। मेरे लिये जैसे ये किसी कोमप्युटर मे बने कैश फाइल्स थे जिन्हे अगर समय सम मे साफ नहीं किया जाये तो ये मेरी ज़िंदगी को धिमा और आलसी बना सकते थे। तो मैंने इन दोनों ही ज़ज़बातों के फाइल्स को एक साथ सिलेक्ट करके शिफ्ट डिलिट मार दिया था। मगर जब कोई आपके डिलिट फाइल्स को फिर से रिकवर कर दे तो क्या होगा? और उसे रिकवर करने के लिये वो आपके पूरे सिस्टम मे छान बिन का प्रोग्राम चला दे तब? जब कोई बिल्कुल आपके जैसा हीं आपके सामने आ जाये और आपके मन के दरवाजे पर जोर-जोर से दस्तक देने लगे तो आप क्या करेंगे। लड़के ये बात एक झटके में समझ जाते है की सामने वाला लड़का दोस्ती करने मे कोई रुची नहीं ले रह है तो वो भी आपको छेड़ने की कोशिश नहीं करते मगर लड़कियां ये बात बर्दाश्त ही नहीं कर सकती। तो हुआ यूं की जब मैं चार महिने तक बिना किसी लडकी ट्रेनर से बात किये बिता दिये तो उनको ये बात हजम ही नहीं हो पायी। चुकी बाकी के दोनो जेंट्स ट्रेनर अनिल और संजय उनसे बहुत घुले मिले हुए थे उनका खाना पीना, हंसी मजाक सब कुछ संग मे चलता था और वही मैं जो इन सबसे बिल्कुल ही कटा हुआ सा रहता था जैसे की मैं वहां होते हुए भी नहीं हूँ, ये व्यवहार उनके समझ के बाहर का था। शायद आज तक उन्हे एक भी ऐसा आदमी नहीं दिखा हो जो इतना बेरंग और फिका हो। 

कभी-कभी नकरात्मकता लोगों को अपने तरफ ज्यादा आकर्षित करने लगती है तभी इनके साथ भी ऐसा ही हुआ तीन लेडिज ट्रेनर मे से सबसे चंचल और सबसे सिनियर थी पायल शर्मा। उसे मेरा युं कट कर रहना तनिक भी रास नहीं आ रह था तो एक दिन उसने खुद ही मुझसे बात की। मैं अकेला था उदास था मगर बद्तमिज़ तो बिल्कुल भी नहीं था जब उसने मुझसे बात करी तो मैं भी उससे सही से पेश आया। करिब दस मिनट की मुलाक़ात मे उसने अपने बारे में सबकुछ बता दिया और मैंने सब कुछ जान लिया। पर ना तो मैंने खुद से उसके बारे में कोई बात पुछी और न हीं अपने बारे में कोई जानकारी हीं दी। इसके बाद उसका एक सिलसिला सा अन गया था। वो रोज़ मुझसे बात करने के लिये कम-से-कम दस मिनट का समय निकाल हीं लेती थी। इस तरह से उसने मुझे अपने बाकी की ट्रेनर से भी मिलवाया और घुलने मिलने का सिलसिला चल निकला। सबको लगता था की मैं उनके साथ नोर्मल हूँ, जो की मैं था भी मगर कभी भी किसी को अपने मन के नजदीक आने नहीं दिया। सबके साथ बस मूंह का व्यवहार ही रक्खा। मैं दूध का जला था पानी भी थोडी देर ज़मिन पर रख कर पी रहा था। इस दौरान मैंने अपने अंदर दो वयक्ति बना लिये थे। एक जो सबसे मिलने जुलने और साथ रहने लगा था और दुसरा जो हर रात मुझे ये समझता था की इनमें से किसी को भी अपने मन तक नहीं आने देना है। 

१९९७ मे एक फिल्म आयी थी जिसमे रोमांस के किंग शाहरुख खान, करिश्मा कपूर, माधुरी दिक्षित और अक्षय कुमार इत्यादी कलाकार थे। आप समझ तो गये ही होंगे के मैं किस फिल्म की बात कर रहा हूँ। नहीं मैं आपको फिल्म की कहाँई नहीं सुनाने वाला क्युंकि आप मे से बहुत से लोग जो मेरे उमर के होंगे उनका तो बचपन ही इस फिल्म के गाने सुन-सुन कर बीता होगा। बात यहाँ उस फिल्म के एक डायलोग की है जिसमे शायद माधुरी जी कहती है "जब आप प्यार से दूर भागते है ना तो प्यार आपको खुद ही ढूंढ लेता है" या शायद ऐसी ही कोई बात कही थी। मेरे साथ भी यही होने वाला था अभी तक मेरी सभी ट्रेनर के साथ अच्छी व्यवहारिकता वाली दोस्ती हो चुकी थी खास तौर पर पायल और मैं अच्छे दोस्त बन रहे थे। मैं सचेत था की मुझे दोस्ती से आगे का कोई भी रिश्ता नहीं चाहिये था और वो भी ये बात अभी तक समझ चुकी थी। हम दोनो एक दुसरे को समझ चुके थे तभी उस रास्ते के बारे में कभी सोचा हीं नहीं। इसी बिच इंदू की शादी तय हो जाती गयी और उसे स्कूल छोडना पडता है। उसके स्थान पर एक नये ट्रेनर की ज़रूरत महसूस हो रही थी। दो हफ्तों के अंदर ही एक नयी ट्रेनर मिल भी गयी चुकी प्रिंसिपल सर का कहना था की रखना तो लेडी ट्रेनर ही है इस लिये उन्होंने प्रियंका को चुना। प्रियंका पांडे नाम था उसका अब आप ये सोच रहे होंगे की इसके पहले की दोनो कहानियों में मैंने किसी भी किरदार का पूरा नाम नहीं लिया मगर इस बार मैं हर किरदार का नाम और उपनाम दोनो ही ले रहा हूँ, ऐसा क्युं। 

ऐसा इसलिये क्युंकि अब मैं थोड़ा ज्यादा परिपक्व हो गया हूँ लोगों को समझने और परखने भी लगा हूँ और सबसे बड़ी बात जिस स्थान पर मैं नौकरी कर रहा हूँ वहां आपका चरित्र बहुत मायने रखता है और आपके चाल चलन का असर सीधे बच्चों पड़ता है। मैं यहाँ अपना पहले जैसा लापरवाही और मनचला व्यवहार बनाये नहीं रख सकता। यहाँ आपको अपके पूरे नाम से या फिर उपनाम से हीं पुकारा जाता है और वैसे भी किसी को भी सम्मान देने से हमें कोई नुकसान तो नहीं होता हाँ एक और वजह है इसके पीछे जो आपको आगे चलकर पता चलेगा। प्रियंका जब स्कूल मे आयी तो बाकी के सभी ट्रेनर उसके साथ घुलने मिलने लगे बल्कि अनिल और संजय सर तो उसे इम्प्रेस्स करने के लिये पुरी जान तक लगा दिये थे। पर उसकी नज़र मुझपर पडी ये तो बिल्कुल ऐसी वाली प्रतिक्रिया थी कि "ये कौन है जिसने पू को पलट कर नहीं देखा"। सभी जेंट्स ट्रेनर से भाव पाने वाले प्रियंका को मेरे उदासीनता बेचैन कर गयी थी। पहले कुछ दिनों तक मुझे बारिकि से समझने की कोशिश करने के बाद भी जब उसे मेरे तरफ से कोई हलचल नहीं दिखाई दिया तो उसने पायल से मेरे बारे मे जानकारी जुटाने की कोशिश की। पायल ने उसे मेरे प्रकृति के बारे में पूरे विस्तार से समझा दिया और साथ में यह भी बताया की मेरे उपर ट्राई करने का कोई फायदा नहीं होने वाला मैं उसे घास भी नहीं डालूंगा। वो सही भी थी बेशक़ मैं ऐसा ही करता अगर प्रियंका वैसी नहीं होती जैसी की वो असल मे थी।

दिखने मे ठिक-ठाक और मुझसे भी ज्यादा पढी लिखी प्रियंका की सीरत उसके सुरत के बिकुल अलग थी। उसके चारो तरफ भी एक अनदेखा सा आवरण था जो किसी और को दिखाई नहीं देता था और यही हाल मेरा भी था। हम दोनों की आंखें बहुत कुछ बोलती थी मगर उसे महसूस कर पाना हर किसी के बस की बात नहीं थी हम दोनों के ही अंदर बहुत लावा भरा हुआ था जो की बाहर आना चाहता था मगर कभी किसी ने उसे निकलने का मौका हीं नहीं दिया। जब पहली बार मैंने उसे देखा तो उसने पिली रंग की सलवार सुट पहन रक्खी थी। गहरी काली आंखे, लंबे सुनहरे बाल, हल्की पिंक कलर की होट लाली, दाये हाथ पर घडी और बाये हाथ मे पर्स थामे वो प्रिंसीपल के कमरे से निकल रही थी। हम एक दुसरे के रास्ते मे आ गये थे और एक दुसरे को जाने का रास्ता देने की कोशिश कर रहे थे। फिर उसने ही मुझे आगे जाने का रास्ता दे दिया। मैं इतने समय में ही उसे पुरी तरह से देख चुका था पर उसे समझने नहीं दिया पता नहीं उसने मुझे सही से देखा या नहीं पर कुछ कहा नहीं। जब लंच में प्रिंसिपल सर ने उसका सबसे परिचय करवाया पर इससे पहले की वो मुझ तक आते मैं स्टाफ रूम के बाहर निकल गया। यहीं से उसके मन में मेरे लिये बेचैनी बढने लगी। कुछ अजीब तो मेरे साथ भी हो रहा था, लेकिन क्या, पता नहीं पर जब कभी भी वो मेरे आस पास होती तो मुझे उसके होने का एहसास होने लगता। हम दोनो मे कुछ तो था जो हम दोनों को एक दुसरे की तरफ खींच रहा था जब भी कभी मेरी और उसकी नज़रे टकरा जाती तो दो पल के लिये हम दोनों ही स्तब्ध हो जाते। 

ये अजीब था क्युंकि ये एहसास मुझे पहले कभी भी नहीं हुआ था। इसके पहले भी मैं कई लड़कियों से मिला था चाहे वो पाखि हो सानिया हो य फिर कोई और हीं क्युं ना हो? अब इस स्कूल की बात ही कर लो यहाँ भी पायल थी बिंदु थी रंजिता थी और भी एक दो लडकिया आती जाती रही मगर पायल को छोडकर मैं किसी और से बात हीं नहीं करता था। पायल के साथ भी मुझे कभी इस तरह की एहसास नहीं हुआ जैस की इसके सामने आने से हीं जाग गया था। जब भी उसे देखता मुझे लगता की इस लडकी के अंदर भी एक तुफान छुपा हुआ है जो बाहर आने को बेताब है मुझे उसके हंसते चेहरे के पिछे का दर्द साफ दिखता था। पर क्या उसे भी यही सब दिखता होगा? बस यही सोच कर मैं अपने आप को काबू मे रख लेता था। खुद को फिर से उसी रास्ते पर चलने से रोकने का अथक प्रयास मेरे अंदर चल रहा था। हाल तो उसका भी कुछ ऐसा ही था उसे भी पहले दिन से मुझपर जाने कैसे और क्युं आकर्षण हो गाया।एक दिन मुझे ये बात पायल ने बतायी, उसने मुझसे कहा की पिछले छ: महिनो से हम तुम दोस्त है मगर तुमने कभी मुझे यह तक नहीं बताया की तुम इतने गुमसुम क्युं रहते हो मगर उस नई ट्रेनर को दो दिन में ही अपने सारे राज़ बता दिये। मैने बडे आश्चर्य से उसकी तरफ देखते हुए कहा -क्या बकवास कर रही है। तु जानती है ना की मैं किसी से भी बात नहीं करता और फिर उससे मैं कब मिला? २४ दिन हो गये उसे आये हुए पर मैंने उससे आज तक हाय भी नहीं कहा तो मैं उससे भला अपने राज़ क्या ही कह सकता हूँ।

२४ दिन की बात सुनकर पायल और खीझ कर बोली तुम्हे तो उसके आने का दिन तक याद है। जाओ ये बात मुझे पसंद नहीं आयी कम से कम तुम अपने दोस्त से ये बात तो बता हीं सकते थे। खैर तुमने तो दोस्ती निभाई नहीं मगर उसने मुझे तुम्हारा हर राज़ बता दिया है। मैं थोड़ा मूंह बनाते हुए बोला कहो क्या बताया है उसने? मैं भी तो जानु की मेरे कुछ कहे बिना ही उसने कैसे तुम्हे मेरे बारे बता दिया। मेरे इतना कहते हीं वो बोली तुम्हारा दिल टूटा है ना? धोखा खाया है तुमने अपनों से है ना? तभी तो किसी को अपने पास फटकने तक नहीं देते ये जो तुम्हारी आंखें है ना ये सब बताती है। शायद उसने तुमसे बात करते हुए तुम्हारी आंखें पढ ली है। मैं सन्न सा रह गया मेरे रोंगटे खडे हो गये ये तो बिल्कुल वही बातें है जो मैं उसके बारे मे सोचता था, तो क्या वो भी मेरे बारे में ऐसा ही सोच रही है। क्या उसकी मानसिक तरंगे मेरे मानसिक तरंगो से टकरा रही है और सूचनाओं का आदान प्रदान कर रही है। ऐसा इस लिये कह रहा हूँ क्युकि जब भी मैं उसके बारे में सोच भर लेता था वो मेरे सामने से गुजर जाती थी या फिर मैं उसके सामने से गुज़र जाता था। बिना कारण, बिना मक़सद के ही हम दोनों कई बार एक दूसरे के रास्ते मे आ जाते थे। पायल मुझसे शिकायत किये जा रही थी और मैं इस उधरबून मे फंसा हुआ था अभी मेरे और पायल की बातें खत्म ही नहीं हुई थी इतने मे प्रियंका वहां चली आयी। मुझे और पायल को बाते करते देख थोडी दूर ही खडी होकर पायल को आवाज़ लगायी। 

दोनों में कुछ बातें हुई और फिर दोनों वहीं से अपने अपने क्लास की तरफ चलीं गयीं। उस दिन के बाद जब भी हम दोनों एक दुसरे को देखते तो कुछ कहने को होते मगर फिर अपने अपने रास्ते चले जाते और कुछ कह नहीं पाते। मैं ये समझना चाहता था की वो मुझे कैसे समझती है और साथ हीं ये भी की जो मैं उसके बारे में सोचता हूँ उसमें कितनी सच्चाई है? ये दोनों हीं बातें मेरे लिये बहुत जानलेवा बनती जा रही थी। हम अक्सर स्टाफ रूम मे एक दुसरे के आमने सामने बैठे रहते कभी-कभी एक दूसरे को देखते मगर कुछ कहते नहीं बस एक दूसरे को आंखों के जरिये कुछ समझाने की कोशिश करते रहते। फिर एक दिन प्रियंका स्कूल नहीं आयी जाने क्युं उस दिन सुबह से हीं मेरे मन में बेचैनी हो रही थी स्कूल मे उसे नहीं देखा तो मन और बेचैन हो गया पर किसी से कुछ पुछा नहीं। अगले दिन भी वो नहीं आयी तो मेरी बेचैनी और बढने लगी फिर भी मैंने किसी से कुछ नहीं पुछा। पर जब तिसरे दिन भी वो नहीं आयी तो मैं पायल से उसके बारे मे जानकारी करने की कोशिश की। पता चला की उसके पिता जी बेहद बिमार हो गये है और उन्हें हस्पताल में भर्ति करवाना पड़ा है। प्रियंका भी वही अपने मां और छोटे भाई की साथ है। मन किया के एक बार पायल से पूछ लूं के वो किस हसपताल में है मगर फिर खुद को रोका। अपने आप से कहा कि मुझे क्या इन सब बातों से वैसे भी वो मेरी क्या लगती है जो मैं उसके लिये इतना फिकरमंद हो रहा हूँ। फिर मुझे अपने पिछले रिश्तों की भी याद आ गयी और मैं उसके बारे में भुलने का मन बन लिया।

जब कभी भी दिल और दिमाग मे जंग छिडती है ना तो हम अक्सर दिल की मानते है। फिर दिल की बात मानकर सारीउमर पछताते रहते है मगर जब कभी हम अपने दिल की बातों को नज़र अंदाज़ कर देते है तो ये दिल हमें इतना परेशान करत है की झक मारकर हमें उसकी बात माननी हीं पडती है। मेरा दिमाग इस बार भी मुझे रोक रहा था की मैं उसके बारे में ना सोचू उसकी फिकर ना करून मगर ये साला कमिना दिल बार बार मुझे उसका मासुम और दर्द से भरा चेहरा दिखा रहा था। चौथे दिन भी जब वो नहीं आयी तो मैं स्टाफ रूम मे जाकर ट्रेनर रजिस्टर से उसका नंबर निकाल लिया। सोचा उससे फोन पर बात करके हाल चाल पूछ लुंगा मगर जब फोन लगाया तो उसके छोटे भाई ने उठाया और कहा की दिदि अभी पापा के लिये दवा लेने गयी है। उसके भाई से बात करते हुए सोचा की हसपताल का पता ले लिया जाये ताकि कभी मैं उनसे जाकर मिल सकूं यही सोचकर मैं उससे बात करने लगा। जैसे मुझे हस्पताल का पता मिला मुझे इससे मिलनी की तमन्ना जाग गयी अब मुझे उससे अभी मिलना था। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे वो मुझे मन-ही-मन बुला रही है, जैसे वो चाहती है की मैं उससे मिलने के लिये अभी आऊं। दिमाग मुझे रोकता रह गया मगर अंत में दिल ने बाजी मार ली और मैं उससे मिलने के लिये निकल पड़ा । पूरे रास्ते ऐसा लग रहा था जैसे वो मेरे साथ साथ हीं है और मुझे रास्ता बता रही है मैं कभी भी उससे खुलकर बात नहीं की थी मगर आज उसके पिता जी को देखने के लिये हस्पताल जा रहा था। 

जब उसिसे खुलकर नहीं मिला तो उसके मा और भाई को कैसे पहचानूंगा और उन्हें कहाँ ढूंढूंगा लेकिन सब कुछ मेरे लिये आसान लग रहा था मेरे अंदर से जैसे वो आवाज दे रही थी की अब कहाँ जाना है और किधर मुड़ना है किससे और कहाँ मिलना है ये सब मेरे अंदर से वो मुझे बता रही थी। मेरे लिये ये बडा अजीब था मगर सब सच था। जब मैं उसके भाई के बताये हुए वार्ड मे पहुंचा तो देखा की उस वार्ड मे कम-से-कम तीस मरिज लेटे हुए थे। मैं किसी को नहीं पहचानता था तो किससे क्या पुछु? उसे फिर से फोन लगाया तो उसका फोन ओफ मिल रहा था। वार्ड से निकल कर मैं कारिडोर में इधर उधर देखने लगा। वही पास बैठे एक दस साल के लड़के पर मेरी नज़र पडी मैं उसके तरफ बढ़ने लगा की शायद यही उसका भाई हो मगर मेरे बढते ही पिछे से एक आवाज़ ने मुझे रोक लिया। ये आवाज़ मुझे मेरे नाम से पुकार रहा था और आवाज़ जानी-पहचानी भी लग रही थी। पिछे मुडा तो देखा प्रियंका मुझसे चार कदम की दुरी पर ख़डी थी। पिछले चार दिन से एक पैर पर चक्कर काटने वाली लड़की जो अपने मां और भाई को सम्हाले हुए थी और उन्हे रोने नहीं दे रही थी मुझे देखते हीं उसके आंसू निकल पडे। वो दवाओं के पोटली लिये दौडती हुई मेरे तरफ भागी और सिधे मेरे सिने से आकर चिपक गयी। मुझसे चिपक कर ऐसे रोने लगी जैसे की जाने कब से वो मेरे आने की राह तक रही थी। मैं इस परिस्थिति के लिये तैयार नहीं था समझ ही नहीं पा रहा था की क्या करूं। उसे सम्हालू और साहस बढ़ाऊँ या फिर उसे अपने से दूर कर दूं। फिर सोचा रो लेने देता हूँ उसको कम से कम उसका थोड़ा मन तो हल्का हो जायेगा। वो पांच मिनट तक मुझसे चिपकी रही और रोती रही। फिर एकदम से दूर हटती हुई बोली तुम जाना मत मैं ये दवाई देकर अभी आती हूँ।

मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था की कैसे एक लड़की जिसने मुझसे कभी खुलकर बात तक नहीं की वो एक झटके मे मेरे गले लग सकती है। अपना सारा दु:ख मुझे देखकर आंसुओं मे बहा देती है ऐसा लग रहा था जैसे उसको मेरे आने की चाह थी मगर वो कह नहीं पा रही थी। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है? मैं खुद को सम्हालू या उसे मेरे समझ के बाहर हो रहा था। इतने मे वो लौट आयी और मुझे देखते हुए बोली मुझे लग रहा था की कोई आये ना आये तुम ज़रूर आओगे पता नहीं क्युं मगर मै भी यही चाहती थी की तुम आओ तुम आ गये तो अब मुझे थोड़ी सी हिम्मत मिल रही है। मैं उसकी तरफ अचरज भरी नज़रो से देखते हुई बोला तुम्हे ऐसा क्युं लग रहा था की मैं जरूर आऊंगा? वो बोली देखो हमारे बीच कुछ तो ऐसा जरूर है जो हमें जोडे हुए है तभी जब से हम मिले है एक दुसरे के लिये इतने बेचैन रहते है। मुझे भी नहीं मालुम ये सब क्या है और क्युं है मगर हम दोनों के बीच एक रिश्ता तो है। एक बार पापा ठिक हो जाये तो इस उलझन को भी सुलझा लेंगे। मगर तुम आये मुझे अच्छा लगा ऐसा लगा की मेरी खोई ताक़त मेरे पास लौट कर आ गयी है। मैं सही था, बिल्कुल सही वो चाहती थी की मैं इससे मिलने आऊं, पूरे रास्ते ये मुझसे बात भी करती आयी थी। तो क्या ये मेरे प्रति इसका प्यार है? क्या ये सच मे बिल्कुल मेरे जैसी हीं है और मेरे समान इसके भी जीवन में उथल-पुथल है? मुझे इन सभी सवालों का जवाब चाहिये था पर ये समय और स्थान सही नहीं था।

घर वापस आने के बाद कई घंटों तक जहन मे यही सवाल घूमता रहा आखिर ये सब था क्या? जो भी हुआ उसका कारण क्या था? कुछ भी पल्ले नहीं पड रहा था। अगले दिन जब स्कूल पहुंचा तो पता चला की प्रियंका एक हफ्ते की छुट्टी पर चली गयी है। इस बार उससे मिलने जाने का कोई भी कारण दिख नहीं रहा था। पहले से हीं परेशानियां कम नहीं थी जो एक और नयी मुसिबत अपने गले डाल लूं। इस रास्ते पर चलकर कुछ हासिल नहीं होने वाला था हाँ मगर दोबारा बिखरने का मौका ज़रूर था अपने दिल को बहुत मुश्किल से मनाया और दिमाग से काम लिया। सबसे पहले तो उसका नम्बर मोबाईल पर सेव किया ताकि उसका काल आये तो अंजाने में मैं उसे रिसिव ना कर लूं कई बार अंजान नम्बर वाले ही अपने निकल जाते है। एक बार फिर से खुद को वैसा ही बनाने की सोच ली जैसा मैं छ: महिने पहले था वो क्या शब्द है अंग्रेजी में..... हाँ..... "आइसोलेट" कर लिया। मेरे पास एक हफ्ते थे खुद को उसके चंगूल से बचाने के लिये तो मैंने अपनी पुरी ताक़त खुद को उससे बचाये रखने में लगा दिया। जिस रास्ते मे चलकर आप्को सिर्फ तकलिफ और मुश्किलें ही मिले उस रास्ते को होश रहते हुए कैसे चुना जा सकता है। अगले एक गफ्ते तक ना तो उसकी कोई खबर आयी और ना हीं वो ही आई मेरे लिये बार बार किसी दूसरे से उसकी खबर लेना भी सही नहीं था। 

प्रेम एक खुशबू की तरह होता है जो छ्लकता तो कही और है मगर उसकी महक चारो दिशाओ मे एक समान और एक हे रफ्ता से फैल जाती है। जो भी इसकी महक की जद में आता है इसके अपने हिसाब से मायने निकालने लगता है। कोई इसे बस सूंघता है तो कोई इसके महक मे अपनी भी थोडी सी कलाकारी मिलाकर उसे बदबूदार बना देता है। फिर जितने मूंह उतनी बाते होने लगती है। मेरे और उसके होस्पिटल मे मिलने वाली बात जाने कैसे स्कूल के सभी ट्रेनर को पता चल गयी थी। फिलहाल इन सभी बातों से मुझे बचकर रहना था ऐसी बातें अक्सर आग की तरह जंगल में फैल जाती है कोई यह नहीं देखता की इसके पिछे भी एक पहलू हो सकता है। सब अपने अपने हिसाब से अपनी अपनी राय बनाने लगते है। मैं अपने लिये नहीं डर रहा था बल्कि इसमे बदनामी स्कूल की होगी इसलिये डर रह था। इस समय इस नौकरी की मुझे सबसे ज्यादा जरूरत थी इसे जाने देना मेरे सेहत के लिये बिल्कुल भी अच्छा नहीं होने वाला था। मैंने प्रिंसिपल से कहकर मेरा तबादला दूसरे सेक्शन मे करवा लिया। अभी तक मैं मार्निंग मे पढ़ाता था जिसकी छुट्टी १२ बजे के आस पास हो जाती थी और दूसरे सेक्शन का समय दस बजे से साढे तीन बजे तक का था। तो अब हम दोनो के आने जाने का समय अलग हो गया था । जब उसके जाने का समय होता तब मेरे आने का समय होने वाला था। मुझे पुरी उम्मिद थी के इस तरह से हम दोनों दूर रह पायेंगे।

एक हफ्ते बाद जब वो लौटी तो स्कूल मे उसे कुछ तो कमी सी लगी। वो सबसे पहले मुझी से मिलने के लिये आयी पर मैं तो था ही नहीं। बहुत देर तक मुझे खोजा मगर मैं दिखा ही नहीं पायल और रंजिता से जब मेरे बारे मे जानकारी लेनी चाही तो उन लोगों ने उल्टे उसे ही सुना दिया। पायल नाराज़ थी क्युंकि उसके कारण मैंने अपना तबादला करवा लिया था उसका एक दोस्त उससे दूर हो गया था। पायल की नाराजगी के कारण रंजिता भी नाराज थी लेकिन सभी जेंट्स ट्रेनर खूश थे क्युंकि उनका एक प्रतिस्पर्धी कम हो गया था। जब किसी ने कुछ नहीं बताया तो उसने मुझे फोन किया और मैंने उसका फोन काट दिया। एक नहीं दो नहीं पूरे तीन बार काट दिया ऐसा करने के पिछे मेरी सोच थी की शायद वो मेरे ऐसा करने से नाराज़ हो जायेगी और मुझसे बात करना ही बन्द कर दे। जब हम उबाल देते दूध को ढंकने की कोशिश करते है तो वो और भी ज्यादा उबाल मारता है और अपने उपर धरे बर्तन को गिराने के लिये अपनी जान लगा देता है इसी तरह अगर आप एक तरफा प्यार को दबाने की कोशिश करेंगे तो आपको उसके दुष्प्रभाव भी साफ-साफ दिखने लगते है। आम तौर पर प्यार मे पागल हो जाना लड़कों का काम होता है मगर जब कोई लड़की प्यार मे पागल हो जाये तो उसे समझा पाना बहुत मुश्किल होता है। 

जब लड़की प्यार मे बाग़ी हो जाने को तैयार हो जाये तो उसे रोक पाना किसी के बस की बात नहीं। वो तो तेज़ आंधी की तरह बन जाती है जो किसी भी बंधन मे बंध नहीं सकती उसे रोकने वाले जरूर उसके साथ बह जाते है। सुबह के दस बजे तक उसने खुद को कैसे भी करके रोके रक्खा मगर जब दस बजे मुझे स्कूल मे देखा तो खुद को रोक नहीं पायी। उसके होने का एहसास मुझे पहले ही हो गया था तो मैं सिधे अपने क्लास मे चला गया। मुझे क्लास मे देखकर वो कुछ बोल नहीं सकी और मैंने भे उसे ऐसे इग्नोर किया जैसे उसे देखा हीं नहीं हो। बारह बजे उसका क्लास ओवर हो चुका था मगर मेरे अभी कई क्लास बाकी थे। मै जानता था की वो मुझसे मिले बिना जायेगी नहीं इसिलिये मैं लंच करने भी नहीं आया। पहले उसे मुझसे मिलने की बेचैनी थी जो लंच तक बेकरारी में बदल गयी थी मगर जब मैं लंच में भी स्टाफ्फ रूम मे नहीं आया तो उसका इंतजार गुस्से मे बदलने लगा। मुझे इसका आभास हो रहा था की अब वो कुछ तो करेगी, और, उसने किया भी ठिक बारह बजकर पंद्रह मिनट पर वो मेरे चलते क्लास मे आ धमकी। उसे देखते हीं सभी बच्चे खडे हो गये और उसका अभिवादन किया उन्हे बिच मे ही रोकते हुए उसने कहा की तुम सब बैठ जाओ मैं थोड़ा सर से बात करना चाहती हूँ । उसे देखकर मैं थोड़ा गुस्से मे आ गया तो मुझे शांत करती हुई वो बोली मैं तुम्हे परेशान नहीं करना चाहती मुझे बस तुम्हारे दस मिनट ही चाहिये जब तुम स्कूल से निकलो तो चाय की टपरी पर मैं तुम्हें मिलूंगी, मुझसे मिले बिना जाना मत। मैंने उसके बातों को सुना अनसुना कर दिया। जब स्कूल से छुटा तो मैं पिछले दरवाजे से निकल कर सीधे अपने कमर मे चला गया ताकि वो मुझे देख ना ले मैं उससे मिलना नहीं चाहता था उससे बात भी नहीं करना चाहता था क्युंकि मैं अपने दिल से मजबूर होने लगता। मुझे पता था की अगर अब मैं उससे एक बार भी और मिला तो मेरा दिल मुझे धोखा दे-देगा। वो मुझे फिर से उसी रास्ते पर ले जायेगा जहाँ बस तकलिफ, दर्द और पछ्तावे के सिवा कुछ भी नहीं मिलता। मैं खुद को तो रोक ही रहा था साथ ही साथ उसे भी बचा रहा था, पर इश्क़ के मारों को कौन समझाये। जब मैं दो घंटे तक नहीं आया तो वो वापस स्कूल की तरफ आ गयी देखा की स्कूल का दरवाज़ा बंद है। महौल बिकुल शांत है, एक परिंदा तक नहीं तो उसे समझ आया की मैं तो अब आने वाला नहीं। 

आज पहली बार मुझे किसी लड़की से डर लग रहा था वो भी एक ऐसी लड़की से जिसे मैं ढंग से जानता भी नहीं था। जो कल तक मेरे लिये बिल्कुल अंज़ान थी जिससे मैंने कभी सही से बात तक नहीं की वो मेरे लिये इतनी गम्भीर कैसे हो सकती है। ना तो मैं इतना हैंडसम हूँ की उसने मुझे देखा और मेरे प्यार मे गिर गयी ना हीं मैं उससे ज्यादा पढ़ा लिखा हीं हूँ तो फिर वो ऐसा क्युं कर रही है। लगता है मेरा उससे मिलने जाना हीं गलत हो गया, मुझे अपने दिल की माननी हीं नहीं चाहिये थी। ये कम्बखत हमेशा मुझे फंसा देता है कितनी मुश्किल से तो ये नौकरी मिली है अगर किसी बदनामी के कारण ये चली गयी तो क्या होगा? नौकरी तो अलग बात है बच्चों की सामने मेरा चरित्र कैसा बनेगा। दिमाग सुन्न था और धडकन इतनी तेज़ भाग रहा था जैसे कहीं मुझे हर्ट अटैक ही ना आ जाए। मुझे डर लग रहा था की कही वो मुझे ढूंढते हुए घर तक ना चली आये पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। रात भर बडी बेचैनी से काटी मैंने और सुबह होते ही ये सोच लिया की इससे पहले की बात हाथ से निकल जाये मैं ये क़िस्सा ही खत्म किये देता हूँ। मुझे उससे बात करके इस मामले को यहीं अफा दफा कर देना चाहिये और फिर भी अगर मामला नहीं सुलझा तो इसके पहले के स्कूल वाले मुझे निकाले मैं खुद हीं ये स्कूल छोड़ कर चला जाऊंगा कम-से-कम अपने बच्चों की नज़र में सही इंसान तो बना रहुंगा। 

यही सब सोचते हुए मैं स्कूल गया तो देखा वो पहले से ही मेरी राह तक रही थी इससे पहले की वो कुछ बोलती मैं खुद ही बोल पड़ा - देखो मुझे तुमसे कुछ बात करना है मगर यहाँ नहीं करना। हमारे आपस के मसले को आपस मे हीं सुलझा लेना सही होगा, बात उसे समझ मे आ गयी और बोली - सही है मैं भी यही चाहती थी। तो फिर ठीक है आज शाम को स्कूल के बाद हम चाय की टपरी पर मिलते है और वही बात करते है। अब कही जाकर मैंने उसकी आंखों मे संतोष देखा उसका चेहरा सौम्य हो गया और वो एकदम से सामान्य हो गयी। शाम को जब मैं चाय के दुकान पर मिले तो देखा वो पहले से हीं वहां खडी थी अब मेरा डर निकल गया और उसका स्थान एक नाकाम और बेतुके से घमण्ड ने ले लिया। उसे दूर से देखकर मुझे लगा- आज पहली बार मुझसे मिलने के लिये कोई लड़की इतनी बेचैन हो रही है जरूर मुझमें कुछ तो बात होगी जो ये इस क़दर मुझपे फिदा हो गयी। लगता है पहली बार मेरे साथ कुछ अच्छा होने वाला है लेकिन मुझे इतनी जल्दी इसे ढील नहीं देनी चाहिये थोड़ा तड़पाऊंगा और फिर कही जाकर बात करुंगा। ये होता है लड़के का असली मन जो एक ही पल मे सीधे सिर के बल खडा हो जाता है। अभी तक वो जिस लड़की से डर रह था अब उसपर अपना रौब जमाने की सोचने लगा ऐसा मन सोच से बिल्कुल दिवालिया होता है।

खैर मैं उस तक जाते ही कह पड़ा जो भी कहना है जल्दी कहो नहीं तो मैं चल जाऊंगा मुझे रोकती हुए वो बोली देखो उस दिन मैंने जो कुछ भी किया वो बिल्कुल भी सोच-समझ कर नहीं किया। मैं वैसी नहीं हूँ, जो हुआ वो नहीं होना चाहिये था पता नहीं तुम मेरे बारे में क्या सोचते होगे लेकिन इसके पहले की तुम अपने मन में कुछ भी गलत भावना पाल लो मैं तुम्हे ये बता दूं की जो कुछ भी हुआ बस एक कमज़ोर घड़ीमें की गयी गलती थी जि मुझे नहीं करनी चहिये थी। मैं उसके लिये तुमसे माफी मांगना चाहती हूँ और साथ ही साथ ये भी साफ कर देना चाहती हूँ की तुम भी उस बात को भूल जाओ और इसके बारे में किसी को भी बताना मत देखो अगर तुमने ये बात किसी को भी बतायी तो मेरी बहुत बदनामी हो जायगी। मेरे पापा वैसे हीं बहुत बीमार है उन्हे मैं और परेशान नहीं कर सकती। ये सब सुनकर मैं तो जैसे एक दम से ज़मीन पर आ गिरा मुझे लगा की जिन सभी बातों से मैं डर रहा था वो भी इन सभी बातों से डर रही थी। मन को शांत करते हुए मैंने उससे कहा की सच कहूँ तो मुझे भी यही सब बातें तुमसे करनी थी मगर कैसे कहूँ समझ नहीं आ रह था। अब जब दोनो के अंदर एक ही बात को लेकर बेचैनी थी और वो साफ हो चुकी है तो हम इस बात को यहीं रफा दफा कर देते है। 

मगर ये बात स्कूल के ट्रेनर को पता तो चल चुका है और इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है ये मैं पहले ही बता देता हूँ। मैं खुद ही इस बात से परेशान हूँ की उन्हे कैसे पता चा ये सब। उसके चेहरे पर चिंता की एक लकीर दिखी पर फिर बोली अगर तुमने नहीं कहा तो मेरे तरफ से तुम्हे कोई परेशानी नहीं होगी बाकी जो भी होगा देखा जायेगा। मेरे मन से एक बोझ उतर गया और उसका डर भी निकल गया सोचा अब तो कोई खास बात नहीं होने वाली कल से सब कुछ नार्मल हो जायेगा। मगर हुआ इसका बिल्कुल उल्टा, और हुआ क्या? हुआ ये की अगले दिन से हम एक दूसरे से बचने की जगह बाते करने लगे हंसने लगे संग मे लंच करने लगे। जब की उस दिन हमने ये सोचा था की अब हम फिर से एक दूसरे को इग्नोर करेंगे मिलेंगे नहीं बातें नहीं करेंगे दूसरों की नज़रों मे नहीं आयेंगे मगर सब कुछ बिल्कुल उल्टा होने लगा था। पहले हम अजनबी थे मगर अब हम यार होने लगे थे वो भी ऐसी यारी जिसे समाज की परवाह नहीं थी। अब मेरा दिमाग मुझे रोक नहीं रहा था, मेरा मन मुझे डरा नहीं रहा था धिक्कार नहीं रहा था पता नहीं उन्हे क्या हो गया था। दोनों ने ही अपने हाथ खडे कर लिये थे और जैसे कह रहे हो जिसने ठान ही लिया है कि उसे कुएं मे कुदना है उसे रोक कर भी क्या ही हो जायेगा। तो क्या इस बार मुझे मेरे हिस्से का प्यार मिलने वाला है? तो फिर क्या इस बार मेरी प्यार की नैया पार हो जायेगी? तो फिर क्या मुझे सच में अपना प्यार पुरा करने का मौका मिलेगा।

मजे की बात यह रही की इस बार मैंने कोई भी कदम नहीं उठाया बल्कि हर सीमा उसिने लांघी। दोस्ती भी उसी ने शुरु की फिर प्यार का इज़हार भी उसिने किया। जिसे अंग्रेजी मे कहते है ना प्रपोज़ करना वो भी उसिने किया। सब कुछ सही चलने लगा था मगर यही तो दिक्कत है ना मेरे साथ की जब सबकुछ सही होने लगी तो कहीं दूर मेरी बदकिस्मती मेरी राह देख रही होती है। मैं तक़रिबन डेढ़ साल से अपने घर वालो से नहीं मिला था और नाहीं किसी को मेरे होने की जानकारी नहीं थी मगर एक दिन जब मैं बज़ार मे था तो मुझे मेरे अपने घर के एक पडोसी ने देख लिया। मुझे देखते ही उसने मुझे ऐसे जकड लिया की जैसे कोई अपने बच्चे को भीड मे खो जाने के डर से पकडता है। जब मैं उसे देखा तो दंग रह गया क्युंकि इस शहर मे उसका होना नामुमकिन था। मुझे देखते ही सबसे पहले वो मुझपर चीखने लगा की क्युं मैंने किसी को अपनी खबर नहीं भेजी और तब मुझे पता चला की मां कई दिनों से बहुत बिमार है और मुझे बहुत याद कर रही है। बात जब मां की आई तो मैं एक दम से घर जाने को मचल गया। उसी रात को मैंने ट्रेन पकडी और यहाँ बिना किसी को कुछ भी बताये अपने घर चला आया। अपने घर मे अपनो से मिलने का जो सुख होता है वो सुख आपको बस वही बता सकता है जो कई दिनों से अपने घर नहीं गया हो। 

डेढ साल बाद मां को देखा तो लगा जैसे मैं किसी और औरत को देख रहा हूँ मां बिल्कुल काली पड़ गयी थी खाना पिना सब छोड चुकी थी ना कही आना और ना हीं कही जाना उसने तो एक साल से किसी से बात भी नहीं की थी। खाना पिना सब छोड चुकी थी और इसी वजह से बिस्तर पकड लिया था। भैया भी उसे लेकर काफी परेशान थे उनका भी स्वास्थ्य कुछ सही नहीं था। घर मे सबकुछ बिल्कुल सुना-सुना सा था। बस एक ही अच्छी बात हुई थी की की मुझे एक भतिजी हुई थी जो की अभी छ: महीने की ही थी। मां से मिलकर और अपने शहर आकर मैं बहुत खुश था इतना खुश की मैं स्कूल और प्रियंका के बारे में पुरी तरह से भूल ही चुका था। मैं अब घर से कहीं जाना हीं नहीं चाहता था कुछ दिन मा के साथ बिताये तो मां का स्वास्थ ठिक होने लगा भैया का भी बोझ थोड़ा हल्का होने लगा घर में सुकून आने लगा। लगभग दस दिनों के बाद मेरे पास एक फोन आया दूसरी तरफ प्रिंसिपल साहब थे पूछ रहे थे की मुझे क्या हुआ है मैं स्कूल क्युं नहीं आ रहा हूँ मुझे अब पढ़ाना भी है या नहीं और इन सभी सवालों का मैंने एक ही जवाब दिया " सर आई ऐम वेरी साडी पर अब मैं वापस नहीं आ रहा हूँ"। मेरे इतना कहते ही सर ने फोन काट दिया। अब मुझे याद आया की मेरे बारे में तो और भी लोग सोच रहे होंगे उन्हे फोन करके अपने बारे में बता देता हूँ। सबसे पहले पायल को फोन किया मगर उसका फोन लगा नहीं। फिर संजय और अनिल को फोन किया उन्होने ने भी ढंग से बात नहीं करी। फिर चाय वाले को फोन किया उसने बहुत चैन से बात की और सभी का हाल बताया और साथ मे ये भी पुछा की क्या मैंने प्रियंका से बात की या नहीं वो दो-तीन बार मुझे ढूंढते हुए उसके पास आयी थी। मैं एकदम से सन्न रह गया क्युंकि मैं प्रियंका को तो एकदम ही भूल गया था एक बार भी उसकी याद नहीं आयी मुझे। मैं ग्लानि बोध से घिर गया और इसी असमंजस मे रह गया की उसे कैसे फोन करूं क्या कहूं कैसे कहूं।

करीब एक महीने के बाद मैंने सोचा की मुझे वापस जाकर स्कूल को ये बता देना चाहिये की मैं अब यहाँ लौट कर नहीं आने वाला और ना हीं यहाँ अब काम करने को इच्छुक हूँ। वैसे तो मुझे समझ मे आ गया था की स्कूल इतने दिनों के बाद मुझे खुद ही नहीं रखना चाहेगा मगर फिर भी अपने तरफ से एक आखिरी मुलाकात तो बनता ही था। मैं खुद से ही दूखी हो चुका था क्युंकि जो भी मैंने किया था वो एक समझदार लड़का नहीं कर सकता था ये तो किसी अपरिप्कव बालक के करने वाला काम था जो मैंने कर दिया था मगर इस नुकसान को जितना कम किया जा सकता था वो करने की कोशिश मैं कर रहा था। इस बार मैं मा को बता कर घर से निकला सब कुछ सच और सही सिवाय प्रियंका के। एक बार एक लड़की के कारण मुझे खुद से भी बेगाना होना पड़ा था मैं फिर से वही गलती मां के सामने नहीं दोहराना चाहता था। सोचा जब कभी अगर प्रियंका मिलेगी तो उसे समझा दूंगा पर ना जाने क्युं मेरे अंदर से ये आवाज़ आ रही थी की जैसा मैं प्रियंका को छोड कर आया था उसे दोबारा वैसा नहीं पाऊंगा। खैर, घर से चला तो मां से कहता गया की कुछ अधुरे काम छोड आया हूँ इसे ही पूरा करके आता हूँ मन में बोझ लेकर मैं ज्यादा दिन चल नहीं पाऊंगा। एक बच्चे के मन की बात एक मां हीं समझ सकती है मां ने बडे गंभिरता से मेरे आंखों मे देखा जैसे वो मेरे अंदर के दर्द को झांकने की कोशिश कर रही हो फिर बोली तेरे मन में इतना सूनापन पहले तो कभी नहीं देखा मैंने। 

खुद को इतना सुखा रखेगा तो एक दिन सुख कर काला पड़जायेगा। क्या हुआ जो एक बार तेरे मन के बगीचे को कड़ी धूप ने जला दिया, मौसम को मौका तो दे देख वो फिर से तेरे बगिया को हरा भरा कर देगा। इस तरह से खुद को हरा होने से रोक नहीं बच्चे तु जा और अपना काम पूरा करके वापस घर लौट कर जल्दी से घर लौट आ मैं यहाँ तेरे लिये एक अच्छी सी लड़की ढूंढ कर रखती हूँ अगर तुझे पसंद आ जाये तो तेरी शादी करवा दुंगी। अब मां को क्या पता की बेटे का मन को कहीं और ही लगा हुआ है और उसी के लिये मैं वापस जा रहा हूँ। पर मां को फिर से वही सब बताकर मैं कष्ट नहीं दे सकता था। मां का आशीर्वाद लेकर मैं घर से निकल तो पड़ा मगर आने वाले पल मे क्या होगा ये नहीं जानता था। पूरे सफर में मैं बस प्रियंका के बारे में ही सोचता रहा बिते कल की एक-एक यादें कुरेद-कुरेद कर उसे दोबारा से जीने की कोशिश कर रहा था। मन में बस यही खयाल चल रहा था की जाने वो कैसी होगी क्या कर रही होगी और मेरे बारे में क्या सोच रही होगी। बिते एक महीने में मैंने अपने संकोच के कारण उससे बात भी नहीं की इस पर वो नाराज़ तो बहुत होगी और होना भी चाहिये मेरे परेशानियों से भला वो क्युं अपना सुकून गवाये। उसे मेरे घरेलू जिंदगी से क्या वास्ता वो भला क्युं मेरे लिये अपने जिंदगी में जहर घोल ले। यही सब बातें चल रही थी और जाने कब मुझे निंद आ गयी।

जब निंद खुली तो देखा की बस मेरे मंज़िल के बिल्कुल पास ही खडी थी। मैं झट से उतरा और सबसे पहले स्कूल की तरफ भागा। अभी सुबह के नौ बजे थे वो तो स्कूल आ गयी होगी बस उसे एक बार अपना चेहरा दिखा दूं ताकि उसे चैन आ जाये की मैं ज़िंदा तो हूँ । स्कूल के पहले मैं चाय की दुकान पर गया तो पता चला चार हफ्ते तक मेरा इंतजार करने के बाद स्कूल ने पिछले दिनों ही एक नया ट्रेनर चुन लिया है। अब मेरी जगह एक नयी मिस ने ले ली है। मुझे यकिन था की ऐसा तो होना ही है मगर मेरी चिंता का विषय अभी वो तो बिल्कुल भी नहीं था। मैं और जानकारी ली तो पता चला की दो दिन पहले एक लेडिज ट्रेनर की शादी थी अब उसने भी स्कूल छोड दिया है। मुझे लगा की शायद रंजिता की शादी हो गयी क्युंकि मेरे रहते ही उसके शादी की बात तो चल रही थी या फिर शायद पायल की एक पल के लियी भी मेरे मन में प्रियंका के बारे मे खयाल नहीं आया मैंने उसे अभी तक फोन भी नहीं किया था सोच रहा था की अचानक स्कूल मे मुझे देखकर वो चकित हो जायेगी। चाय पिकर मैं स्कूल के तरफ बढा ही था की स्कूल के खिडकी से बच्चों ने मुझे देख लिया मुझे देखकर वो क्लास में शोर मचाने लगें सर आ गये सर आ गये।

उनकी आवाज़ सुनकर क्लास मे बैठी नयी मिस भी देखने के लिये खिड़की पर आ पहुंची की ये कौन से सर है जिसे देख सभी बच्चे इतने उत्साहित हो रहे है। जब तक मैं स्कूल के अंदर दाखिल होता तब तक तो पूरे बिल्डिंग में ही मेरे आने की खबर फैल चुकी थी। जब पायल को इस बात की खबर मिली तो वो सिधे प्रिंसिपल के आफिस जा धमकी, कारण, उसे पता था की मैं उसे वहीं मिलुंगा। पहले तो वो मुझे थोड़ा नाराज़ दिखी मगर अगले हीं पल उसके भाव में क्रोध की जगह क्षोभ ने ले ली थी। मै उसके भाव को पढ चुका था मगर समझ नहीं पा रहा था की ये क्युं है पायल को देखकर मैं सोचने लगा की अगर ये यहाँ है तो इसका मतलब हुआ की रंजिता की शादी हुई है वैसे भी वो मुझे दिख नहीं रही है। प्रिंसिपल सर से मिलकर मैंने उन्हे मेरे इस तरह से गायब हो जाने का कारण समझाया और साथ ही ये भी कहा की आपने मेरे जगह किसी और को रखकर सही ही किया क्युंकि मैं अब यहाँ पढा नहीं पाउंगा। मैं तो बस यही बात कहने और आप सब से इस तरह से गायब हो जाने के लिये माफी मांगने के लिये आया हूँ। हाँ आपसे एक पर्मिशन चाहता हूँ की क्या मैं जाते-जाते एक बार बच्चों से और ट्रेनर से मिल सकता हूँ। उन्होने मुझे सभी से मिलने की इजाजत दे दी।

लंच टाइम मे मैं सबसे पहले बच्चों से मिला और फिर जाकर स्टाफ़ रूम मे ट्रेनर से मिलने पहुंचा वहां सभी मौजूद थे सिवाय रंजिता और प्रियंका के। रंजिता को वहां ना देखकर मेरा शक़ यकीन मे बदलने लगा की शादी रंजिता की हुई है। जेंट्स ट्रेनर ने मुझसे मिलने में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई और मुझे भी उनसे मिलना नहीं था मैं तो मुख्य रुप से प्रियंका और पायल से मिलने आया था। प्रियंका तो थी नहीं मगर पायल थी वो तो प्रिंसिपल के केबिन मे भी मुझसे मिलने आयी थी उस समय कुछ भी बात हो नहीं पायी मगर अभी तो पूरा मौका था। चुंकी उस समय स्टाफ्फ रूम में और भी कई ट्रेनर थे तो पायल मेरे साथ स्कूल से बाहर चली गयी। चाय की टपरी पर बैठ कर हम बातें करने लगे वो अभी भी थोड़ा दु:खी लग रही थी उसे देखते हुए मैं बोला - साडी यार बिना बताये इस तरह से जाना पड़ा मगर मेरा जाना बहुत जरूरी था मुझे बीच में हीं टोकते हुए वो बोली इतना जरूरी था की तुमने स्कूल को भी नहीं बताया और मुझे भी नहीं बताया। एक फोन तो कर सकते थे ना तुम यार, एक महिने में तुम्हे एक भी दिन दस मिनट का समय नहीं मिला की तुम हम सबमे से किसी को भी फोन कर लो। यार मैं फंसा हुआ था मां की तबियत खराब थी और फिर और भी कई झमेले थे जिन्हे सुलझाने में मैं व्यस्त हो गया था। तुम अगर मेरे जगह होती तो समझती की उस समय सबसे जरूरी क्या था। खैर अब तो मैं आ गया हूँ ना, अब काहे की नाराज़गी। हाँ आ तो गये हो तुम मगर ये भी क्या आना हुआ के तुमने स्कूल हीं छोड दिया। तुम्हारे लिये तो बस प्रियंका ही मायने रखती है ना? तो जब वो ही स्कूल छोड चुकी है तो तुम भी क्या ही करोगे यहाँ पर। एक दम से मेरी हंसी रूक गयी और उसे बीच में ही टोकते हुए मैं पुछ बैठा - प्रियंका ने स्कूल छोड दिया? कब? क्युं? उसने मुझे बड़े अचरज भरी नज़रों से देखते हुए पुछा तुम्हे नहीं पता? नहीं - मैं बोला। तो क्या प्रिंसिपल सर ने तुम्हें उसकी चिट्ठी नहीं दी? कौन सी चिट्ठी, मुझे तो उन्होंने कुछ भी नहीं दिया, हाँ मगर सभी से मिलने के बाद और जाने से पहले मुझे उनसे मिलकर जाने के लिये ज़रूर कहा है।

तो जाओ और जाकर उनसे मिलो हो सकता है उसी चिट्ठी को देने के लिये उन्होने तुम्हे बुलाया हो। हाँ शायद तुम सही कह रही हो, यही बात होगी। चाय खतम करके हम फिर से स्कूल लौटे तो पायल अपने क्लास मे चली गयी और मैं प्रिंसिपल सर के केबिन में उनका इंतजार करने लगा। जब प्रिंसिपल साहब आये तो उन्होने मुझे एक लिफाफा थमाया मैंने उसे खोला तो उसमे मेरे बीते महिने की तंख्वाह और आधे साल का बोनस था। आम तौर पर पैसे देखककर लोग कुछ देर के लिये अपनी साडी तक़लिफ भूल जाते है मगर मुझे इस समय पैसो के लिफाफे से ज्यादा प्रियंका की चिट्ठी की लालसा थी। मैंने उस लिफाफे को एक तरफ रखते हुए प्रिंसिपल सर से पूछा सर क्या किसी ने मेरे लिये कुछ छोडा है? उन्होने अपने दिमाग पर थोड़ा ज़ोर लगाते हुए कहा हाँ प्रियंका ने अपनी शादी कार्ड दिया था आपके लिये मैं देना भूल गया फिर उन्होंने अपने डेस्क से कार्ड निकलते हुए मुझे थमा दिया। उस एक क्षण के बाद मुझे फिर उनकी कोई भी बात समझ नहीं आ रही थी क्युंकि मैं उन्हें ढंग से सुन हीं नहीं पा रहा था। एक हाथ मे उसके शादी का कार्ड और दुसरे हाथ मेरे सर पर ऐसा लगा जैसे मेरी कोई ट्रेन छुट गयी हो और मैं उसे पकड़ नहीं पाया। अभी कुछ दिन पहले हीं तो उसने मुझसे प्यार का इज़हार किया था तो फिर ऐसी कैसे एक महिने के अंदर हीं शादी कर ली उसने? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कार्ड का लिफाफा खोला तो उसमे एक पत्र मिला। इस समय मेरे मन में एक साथ कई भावनाओं का ज्वार भाटा चल रहा था। दिल कहता की मत पढ़ मेरे अंदर इसे सम्हालने की ताक़त नहीं है दीमाग कहता की जो हो होना था हो गया अब अफसोस करने से क्या फायदा कम से कम उसके शादी करने की वजह तो जान ले क्या पता जिसे तु प्यार समझ रहा था वो उसके लिये एक आकर्षण रहा हो और तेरे जाने के बाद उसका मन उसे यह समझाने में सफल रहा हो। अब जो भी हो कम से कम उसके मन की बात तो जान ले। पहली बार मैंने अपने दिल के बदले दिमाग की बात मानी और बड़ी हिम्मत के साथ चिट्ठी खोल कर पढ़ने लगा। पत्र में लिक्खा था -

प्रिय रौनी,

पता नहीं तुम कब, क्युं और कहाँ चले गये। मुझसे कुछ बताया भी नहीं शायद किसी बात से तुम नाराज़ रहे होगे। स्कूल मे भी तुम्हारे बारे में किसी को कुछ भी मालुम नहीं है कोई नहीं जानता की तुम कहाँ हो, ज़िंदा हो या नहीं मगर मैं जानती हूँ की तुम्हे कुछ नहीं हुआ है तुम जहाँ भी हो सही सलामत हो।

जिस दिन तुम्हे पहली बार देखा था तभी से तुम्हारे लिये मन में बेचैनी सी होने लगी थी। पता नहीं ऐसा क्युं था मगर लगता था जैसे हम दोनों के हालत बिल्कुल एक जैसे हीं है। जितना भी तुमसे घूलमिल सकी और बात कर सकी उसमे बस इतना ही समझा की कुछ तो दर्द तुम्हारे मन में भी दबा हुआ है जो बाहर आने से डरता है। मेरे ज़िंदगी में भी एक ऐसा हीं गहरा काला दर्द है जिसे मैं तुम्हारे साथ बांटना चाहती थी। ऐसा कभी किसी और के लिये नहीं लगा की उसके साथ मैं अपने दर्द बांटना चाहूँ। मुझे अच्छे से याद है की मैं तुम्हें पहले दिन से हीं पसंद करने लगी थी मगर कुछ कहने में संकोच होता था मुझे लगता था की तुम्हें भी मेरे बारे में ऐसा हीं लगता था। जब भी तुम मुझे देखते थे तो तुम्हारी आंखों में मुझे कई सवाल दिखाई देती थे उन सवालों में बहुत ही खामोशी और गहराई थी। जब भी मैं तुमसे नज़दिकियां बढ़ाने की सोचती तुम मुझसे और भी दरियां बढ़ा लेते कभी कभी तो तुम्हारे इस व्यवहार से मुझे बहुत क्रोध भी आता था मगर फिर सोचती की गलती तुम्हारी भी तो नहीं। मगर जब तुम मेरे पिताजी को देखने के लिये अस्पताल आये तो मुझे लगा की तुम भी मेरे बारे में वही सोचते हो जैसा मैं तुम्हारे बारे में सोचती हूँ। हाँ मुझे तुमसे एक झटके में गले लग जाने का थोड़ा अफसोस जरूर था मगर अब जो होना था वो ही हुआ। सच ये है की मैं तुमसे प्यार करने लगी थी पता नहीं क्युं और कैसे मगर मुझे लगता है की किसी से प्यार करने का कोई विषेश कारण नहीं होता। तुम्हारे शांत व्यक्तित्व ने मुझे तुम्हारी ओर आकर्षित किया था जब लोग तुम्हें घमंडी और अकडू समझते थे तब भी मैं जानती थी की तुम्हारे बाहरी आवरण के अंदर छुपा आदमी कहीं ज्यादा नर्म और प्यारा है। यही जान कर मैं खुद से आगे बढ़कर तुमसे अपने प्यार का इज़हार किया था। लेकिन फिर तुम चले गये, बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने शायद मेरा प्यार तुम्हारे लिये कोई मज़ाक था।

मगर मैं तुमसे सच्चा प्यार करने लगी थी इतना सच्चा की मैंने तुम्हारी तस्वीर अपने हाथो से बनाकर अपने कमरे मे टांग दिया। कहते है ना इश्क़ और मुश्क़ छुपाये नहीं छुपते मेरे साथ भी ऐसा हीं हुआ बीमारी के बाद जब पहली बार पापा मेरे कमरे में आये तो उनकी नज़र तुम्हारी तस्वीर पर पडी। वो एक नज़र में वो साडी बातें समझ गये मुझसे जब पूछा तो मैंने भी उन्हें सबकुछ सच-सच बता दिया। पहले तो वो नाराज़ हुए बहुत बिगडे की लड़का कुछ ढंग का नहीं करता और फिर हमारी बिरादरी का भी नहीं है मगर मेरे प्रेम को देखकर और अपनी यबियत के कारण उन्होंने तुम्हें स्वीकार कर लिया। वो हमारी मंगनी के लिये भी तैयार हो गये थे। लेकिन जिस दिन मैं तुम्हें ये बताने आयी तो तुम मिले हीं नहीं किसी को पता ही नहीं की तुम कहाँ हो। मैं मझधार मे थी की पिताजी को क्या बताऊं, तुम्हारी कोई खबर नहीं थी और पिताजी की तबियत इतनी सही नहीं थी की मैं उन्हे इन सभी बातों की जानकारी दे पाती। जब दो हफ्ते बाद भी तुम्हारा कोई समाचार नहीं मिला तो मैं समझ गयी की तुम्हारे जीवन मे मेरे लिये कोई भी स्थान नहीं है। फिर मैंने अपनी मां को सारी बात बता दी मां के समझाने पर पिता जी भी समझ गये मगर मुझे भी यह समझा दिया की प्यार करने का क्या हश्र होता है। इसके बाद पिता जी ने मेरी शादी झट से तय कर दी। मैं तुम्हें ये खत अपने शादी होने के एक हफ्ते पहले लिख रही हूँ बस इसी आस में के अगर तुम मेरे सिंदूर दान के पहले भी मुझ तक पहूंच गये तो मैं तुम्हारी पास चली आऊंगी मगर उसके बाद तुम मुझे हमेशा के लिये भूल जाना। कार्ड पर मेरे शादी की तारीख और पता दोनों है। ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ की वो तुम्हें सही सलामत रक्खे और उम्मीद करती हूँ की तुम्हें ये पत्र मेरी शादी के पहले मिल जाये।

शेष मिलने पर, तुम्हारी प्रियंका।

मैंने कार्ड पर शादी की तारीख देखी जो दो दिन पहले की थी। इस पत्र का एक-एक शब्द मेरे मन में तीर की तरह चुभने लगा खुद को कोसने के अलावा अब मेरे पास और कोई दुसरा चारा नहीं था। क्युं मैंने उससे बात नहीं की? क्युं उसका हाल समाचार नहीं पुछा? क्युं उसको अपने मजबूरी के बारे में नहीं बताया? मगर अब इस सबका क्या फायदा था? ट्रेन प्लेटफार्म छोड़ चुकी थी और दूसरे स्टेशन पर अपना आशियाना बना चुकी थी। मैं अकेला हारे मुसाफिर की तरह अपने समय को कोसते रह गया मेरे हाथ मे अब कुछ था नहीं जिससे मैं हालात को अपने तरफ मोड़ सकूं और फिर किसे के बसते हुए घर को तोड़ने का कोई मतलब नहीं बनता था बेकार में तीन ज़िंदगियां बर्बाद हो जाती। मगर एक बार फिर से मेरी प्यार की नैया पार लगते-लगते मझधार में ही डूब गयी। मैं उल्टे पांव लौट आया कभी ये जानने की भी कोशिश नहीं की कि उसकी शादी किसके साथ और कहाँ हुई? जानकर भी क्या ही कर लेता मैं, तो, जो जिस राह पर चल रहा है उसे उसी राह पर चलते छोड़ देने में ही सबकी भलाई है। मैं घर लौट आया और मां के गोद में सर रखकर बहुत रोया। पिछले १० साल में जो भी दर्द मुझे मिला था सब एक-एक कर निकल रहा था जाने रोते-रोते कब सो गया। कुछ भी कहा नहीं पर मां सब कुछ समझ गयी वो मां है ना बच्चे के मन की बात बिन कही ही समझ जाती है। वो पुरी रात मेरे सिरहाने बैठी रही सर पर हाथ फेरती हुई पंखा झलती हुई।

साल २०१५ मई का महीना मैं अपने बीवी और बेटी के साथ चिड़िया घर घूमने गया था मेरी बेटी अभी ५ साल की हो चुकी थी और साफ बात करने लगे थी। मैं उसे लेकर टिकट काउंटर पर टिकट लेने पहुंचा लाइन लम्बी थी तो उसे गोद में लिये ही मैं लाइन मे लग गया। रह-रह कर वो हंसती थी जब दो चार बार ऐसा किया तो मैं पीछे मूड कर देखा की वो हंस क्यों रही है तो देखा मेरे ठीक पीछे एक महाशय अपने बेटी के साथ खड़े है और टिकट पाने का इंतजार कर रहे है। दोनों बच्चे आपस में खेल रहे है मैं टिकट लेकर आगे बढ़ा तो मेरी नज़र उनके पीछे खड़ी उनकी पत्नी पर पड़ी । हम दोनों की नज़रें मिली फिर हम दोनों हीं एक दूसरे से अपनी नज़र हटा ली। मैंने उस बच्ची को बड़े प्यार से देखा और उसने मेरी बेटी को प्यार से देखा। फिर दोनों ने अपना मुंह घूमा लिया और अपने अपने रास्ते चल पड़े ।

समाप्त


 



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