AMAN SINHA

Drama Crime Thriller

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AMAN SINHA

Drama Crime Thriller

कलंक

कलंक

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आज कोर्ट रूम में बड़ी चहल पहल है । आज तीन महीनो के लगातार सुनवाई और गरमा-गर्म बहस बाजी के बाद इस मामले का फैसला सुनाया जाना था।  पिछले तीन महीनो में इस शहर के लोगों ने लगातार इस मामले के हर खबर पर अपनी नज़र बनाई हुई थी। हरेक समाचार पत्र और टीवी चैनल पर बस इसी मामले की चर्चा ही मुख्य विषय बना रहा था।  कभी यह मामला पीड़ित की तरफ झुकता तो कभी यह अत्याचारी की तरफ झुकता हुआ दिखता था।  मगर कई उतार चढ़ाव के बाद आखिरकार इस मामले का भी फैसला आने वला था।  इसे ही कहते है कि न्याय मिलने में भले देर लग जाए मगर न्याय मिलता तो ज़रूर है। मैं समीर, समीर रघुवंशी, वैसे तो मैं एक मामूली सा पत्रकार हूँ मगर इस मामले ने मुझे पत्रकार से एक जासूस में बदलकर रख दिया था। इस मामले की छान-बीन में मैं इतना रम गया था कि पिछले तीन महीनो में यह दुनिया कहाँ से कहाँ निकल गयी थी मुझे पता ही नहीं चला। अभी हाल ही में मेरी बहाली इस शहर के एक दैनिक समाचार पत्र में फिल्ड रिपोर्टर के तौर पर हुई थी।  

जिस तरह से दूसरे निजी संस्थानों में काम से ज्यादा आपके प्रदर्शन का दबाव रहता है ना उसी तरह से समाचार संस्थानों में नए और ताज़ा समाचार लाने का दबाव रहता है। यहां आप जिस दिन से जुड़ते है उसी दिन से आपसे ऐसी उम्मीद की जाती है कि आप हर रोज़ कुछ नया समाचार लेकर आएंगे जिससे कि उक्त संस्था का मान औरो से ज्यादा बढे। मगर हर रोज़ नयी खबर कहाँ से लाई जा सकती है? मगर लगता है कि पर वाला मुझपर थोड़ा मेहरबान था। दो दिन के भीतर ही मुझे इस मामले को सम्हालने की जिमेदारी दे दी गयी थी। मेरे सीनियर ने मुझे यह काम जानबूझकर सौंपा था ताकि मैं दो ही दिन में हिम्मत हार जाऊं और मुझे नींचा दिखाने का मौक़ा उन्हें मिल जाए। दरअसल जैसे कालेज के नए विद्यार्थी के साथ रैग्गिंग की जाती है ना उसी तरह से समाचार पत्र की दुनिया में नए बच्चो के साथ इसी तरह से रेग्गिंग की जाती है। अगर सबकुछ सही रहा तो उसका श्रेय आपके सीनियर ले जाते है और अगर कोई भी त्रुटि हुई तो उसका ठिकरा नए बालक पर फोड़ दिया जाता है।  मेरे साथ भी वही हुआ था।  

सभी को मालूम था कि इस मामले में अभियुक्त को सजा मिलनी ही है।  सभी सुबुत सभी गवाह उसके खिलाफ है। उसने खुद भी इक़बाल-ए-जुर्म कर लिया है। तो उसका बच पाना तो नामुमकिन था। मुझे तो बस इतना सा ही काम करना था कि कोर्ट रूम में जो भी बहस हो रही थी उसमे थोड़ा सा नमक मिर्च लगाकर और थोड़े चटखारे दार शब्दों के साथ अपने समाचार पत्र के लिए एक मज़ेदार लेख लिखना था। जिससे हमारे गिरते हुए साख को पर थोड़ा सा विराम लग सके। मगर मैं यह नहीं जानता था कि मेरी पहली कहानी ही मुझे एक पत्रकार से जासूस बनाकर जाएगी। बाकी सभी लोगो की तरह मैं भी कोर्ट रूम में जा पहुँचा था। आज इस मामले की तीसरी सुनवाई थी। पिछले दो सुनवाइयों में बस दोनों पक्षों के हलफनामे को सूना गया था।  आरोप तय हो चुके थे और अब यानी की आज इसकी पहली बहस होने वाली थी। यह मेरे जीवन का पहला कोर्ट का दौरा था।  इसके पहले अदालत को मैंने सिर्फ फिल्मो में ही देखा था।  मगर आज पहली बार अंदर से देखने का मौक़ा मिला रहा था।  और पहली बार में ही मुझे पता चल चुका था कि फ़िल्मी कोर्ट में और असली कोर्ट में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ होता है।  

जहां फ़िल्मी कोर्ट बड़े-बड़े कमरों के होते है जिसमे तमाम रौशनी और हवादार खिडकिया होती होती है वही असल कोर्ट की बात बिलकुल उलट थी। यहां हवा तो दूर की बात है मुकम्मल रौशनी भी आ पाना मुश्किल थी। मामले से जुड़े लोगों के अलावा बस कुछ चुनिंदा लोगो के लिए ही बैठ पाने की व्यवस्था होती है। जज साहब के सामने फाइलों का अम्बार लगा होता है। बस किसी तरह से उनके दर्शन हो जाते है। गर आपको अंदर जाकर मामले को सुनना है तो फिर द्वारपाल की जेब गर्म करनी पड़ती है। वो आपको एक सुरक्षित और साफ़ स्थान पर ले जा सकता है। मैंने भी द्वारपाल से बातचीत करके अपने लिए एक सही स्थान पहले से आरक्षित कर लिया। मैं पहली बार किसी भी तरह से इस मामले को अच्छे से सुनना चाहता था। छोटी से छोटी बातों पर ध्यान देना चाहता था ताकि मुझसे कोई भी जानकारी छूट ना जाये। मुझे अपने सीनियर्स को पहली बार में ही प्रभावित करना था।  भले ही वो मेरे पहले काम का श्रेय खुद ले लेते मगर यह तो समझ जाते कि मेरे अंदर काम करने की भूख है।  मेरे लिए तो उस समय बस यही काफी था। 

ठीक दस बजे जज साहब अपने कुर्सी पर आकर विराजमान हो गए।  पक्ष विपक्ष और बाकी वहाँ मौजूद सभी लोगो ने अपने स्थान से उठाकर उनका अभिवादन किया।  सबको उठते देखकर मैं भी खड़ा हो गया।  जज साहब का कद लगभग ६ फिट की थी। रंग सांवला, तन से स्वस्थ लगते थे मगर उन्हें मोटा नहीं कहा जा सकता।  आँखे बड़ी बड़ी और गहरी काली थी।  उसपर चश्मा लगाते थे।  उम्र ज्यादा नहीं थी यही कोई चालीस साल के थे।  पता करने पर ज्ञात हुआ कि यह तत्कालीन समय के सबसे युवा जज है।  वाणी भारी थी मगर शारीरक भाषा बिकुल मधुर और सरल जान पड़ती थी।  उनके आते ही पक्ष और विपक्ष के वकीलों ने अपने अपने कागज़ात सम्हालने शुरू कर दिए।  तभी संतरी ने मामले की संख्या और दोनों पक्ष का नाम लेकर सभी को कोर्ट के अंदर आने का आह्वान किया। मैंने देखा कि एक २०-२२ साल का लड़का हाथो में हथकड़ी लगाए हुए तीन सिपाहियों के साथ आकर कटघड़े में खड़ा हो गया।  दूसरी तरफ एक लड़की जिसकी उम्र भी लगभग बराबर ही थी वो भी आकर कटघड़े में खड़ी हो गयी।  दोनों ने एक दूसरे को देखा और फिर अपनी अपनी नज़र फेर लिए।  इस एक क्षण के मेल में ही दोनों के मन के भाव उनके चहरे पर छलकने लगे थे।  मैंने उन दोनों के ही मनोभाव को समझने की कोशिश की मगर अनुभवहीनता के कारण ज्यादा समझ नहीं पाया।


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