AMAN SINHA

Others

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AMAN SINHA

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स्वर्ग-ज़न्नत-ओंकार-हीवन

स्वर्ग-ज़न्नत-ओंकार-हीवन

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रायपूर से छुटने वाली गाडी के फर्स्ट क्लास के डिब्बा नम्बर ए.से०१ का कमरा। उस कमरे के अंदर हमारे समाज के चार अलग अलग समुदाय के लोग बैठे है। अब उनमे मे कौन किस समुदाय का है यह बाहर से देखकर समझना जरा भी मुश्किल नही था। कौन किस समुदाय से ताल्लुक रखता है यह तो उनके पहनावे से ही दिख जा रहा था। एक ने हल्के हरे रंग की पठानी कुर्ता और सलवार पहन रक्खी थी लम्बी दाढी, सफाचट मूंछ और सिर पर एक जाली दार टोपी। दुसरे ने गेरुए रंगे की कुर्ते पर सफेद रंग का पायजामा पहन रखा था। गले में एक हनुमान जी की माला लटक रही थी और हाथों मे एक मोटी सी रक्षा सुतरी की कलाई बंध पहनी हुई थी उसके मूंछ उसकी शान को बयान कर रहे थे। तीसरे के सिर पर पगडी बंधी हुई थी जिसका रंग सफेद था, हाथों मे कडा, साथ मे एक छोती खंजर नुमा तलवार भी साथ मे थी। चौथा आदमी एक सफेद रंग के ओवर कोर्ट मे था। हाथो मे क्रास वाली माला लिये हुए और दुसरे हाथ मे एक धार्मिक पुस्तक पकडे हुए था। सभी कमरे के अंदर आकर अपने-अपने स्थान विराजमान हो गये।

कोई किसी से बात नही कर रहा था। सभी एक दुसरे को देखकर अपने नाक-भौंह सिकोडते हुए एक दुसरे से मुनासिब दूरी बनाये हुए और खुद मे ही खोये हुए सफर के शुरु होने का इंतज़ार करने लगे। इतनी देर मे आप यह तो समझ ही गये होंगे कि इनमे से कौन सा व्यक्ति किस समुदाय से सम्बंध रखता है। यह तो कोई छोटा सा बच्चा भी आसानी से समझ भी सकता है और किसी दुसरे को समझा भी सकता है।

बहरहाल, ट्रेन चली और सभी अपनी-अपनी दुनिया मे खोये होने का आडम्बर करने मे व्स्त हो गये। एक दूसरे से बात करना तोप बहुत दूर इन चारो ने एक दुसरे के तरफ देखना तक मुनासिब नही समझा। काफी देर तक एक दूसरे से साथ मगर अलग-अलग सफर करते हुए भी इन चारो के बीच एक शब्द की भी अदला-बदली नही हुई थी। हाँ कभी-कभार एक दुसरे से नज़र टकरा जाने पर झूठी और बनावटी हंसी का आदान प्रदान जरूर हो जाता। तभी डिब्बे के अंदर चाय वाले ने आवाज़ लगाई “ चाय बोले, चा-चाय-चाय बोले, स्पेशल चाय बोले, गर्मागरम चाय बोले”। टोपी वाले ने चाय वाले को हाथों से इशारा करते हुए अपने पास बुलाया और एक चाय की पेशकश कर डाली। उसे चाय पीता देखकर कर पगडी वाले ने भी चाय वाले से एक चाय की तलब जतायी। उसके बाद गेरुए कुर्ते वाले ने और फिर अंत मे क्रास धारी साहब ने भी चाय ले ही लिया।

कमरे का माहौल उस चाय की वजह से थोडा सा सहज होने लगा था। जैसे-जैसे चाय की घूंट अंदर उतरती गयी वैसे-वैसे उन चारों के अंदर की कुंठा भी ठंडी पडती चली गयी। वो कहते है ना “पहले पहल कौन करे इसी चक्कर मे सफर बीत जाता है” वही सिलसिला यहाँ भी चल रहा था मगर एक चाय वाले ने अपनी चाय पिलाकर सभी के मन के अंदर के गुबारे को शांत कर दिया था और अब उस कमरे की गर्मी चाय की चुस्की से ठण्डी हो चली थी। चाय वाल चाय देकर जा चुका था और इन सभी लोगों ने अपनी-अपनी चाय पुरी कर ली थी। करीबन दस मिनट के बाद चाय वाल वापस लौटा अपनेंचाय के पैसे लेने के लिये। सबसे पहले पगडी वाले ने अपने जेब से पैसे निकाले और देने को हुआ। उसके आल्वा किसी की कोई हरकत ना देखते हुए चाय वाले ने उसी पैसे मे से सभी के चाय की कीमत काटकर बचे हुए पैसे उसे लौटाने लगा तो पगडी वाले ने उसे टोकते हुए कहा – बई, यार ऐ की कित्तई? तुसी सभी के पैसे मेरे सिर ही डाल दित्ता? यह सुनकर टोपी वाले ने कहा “सरदार जी, फोकर ना करो, उसने काट लिया तो क्या ही ममअला है, आप जनाब मेरे चाय के पैसे मुझसे ले लिजिए। इतना कहते हुए टोपी वाले ने अपने जेब से पैसे निकाल कर उसे देने की पेशकश की। तभी दुसरी तरफ से गेरुए वस्त्र धारी ने भी कहा – “यजमान, आप मुझसे भी मेरे चाय की कीमत ले लिजिए, इसमे उस बेचारे का कोई दोष नही है, हम ही ने अपने एतरफ से कोई तत्परता नही दिखाई तो इसमे वो बेचारा क्या ही सोच सकता है। बाकि दोनो को पैसे देते हुए देखकर क्रासधारी महोदय ने भी बिना कुछ कहे ही अपने सेब से चाय की कीमत निकाल कर सामने वाली सिट पर धर दिये। इस्के बाद फिर से एक लम्बे से सन्नाटे ने उस कमरे को अपने गिरफ्त मे ले लिया।

सरदार जी ने अपने मन मे सोचा – “कितने चालाक है यह लोग, किसी ने भी पहले अपनी चाय की कीमत नही चुकाई। जब मैं दे चुका तो अफसोस का झूठा दिखावा कर रहे है। ऐसी ही होते है सभी गैर धर्म वाले? सभी को बस दुसरों को लूटना आता है। हम जैसे दुसरों की सहायता करना नही आता। इन्हे तो बस जितना मिल सके उतना ही कम लगता है। एक दस रुपये की चाय पीकर भी इनके जेब से पहले पैसे नहीं निकले। तभी तो ये सभी आपस मे ही लडते रहते है। झुठी उदारता का दिखावा करते है, झूठी सहानुभुती और मर्यादा दिखाते है। सही है सबस अच्छा और सब्से सच्चा धर्म हमारा ही है। दुसरी तरफ टोपी वाला सोच रहा था – “बस नाम के ही सरदार जी है यह तो, एक दस रुपये की चाय के लिये उस बेचारे लडके से लड पडा। वैसे तो ये लोग बडे ही दानवीर बने फिरते है। हरेक जगह अपने लंगर लगाते है, लाखों लोगों का पेट पालने का दिखावा करते है मगर एक अदने से चाय की कीमत देने मे ही इनके चेहरे से नक़ाब उतर गया”। दुसरी तरफ गेरुआ वस्त्र धारी सोच रहा था –“ सरदार जी को दिखावा करने का शौक जान पडता है। हम मे से किसी ने तो अपने पैसे देने मे कोई आना कानी नही की। यह तो उस बच्चे की गलती थी कि उसने उन्ही के पैसों से सभी के चाय की कीमत काट ली तो इसमे भला बाकी के लोग क्या ही कर सकते है? 


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