एक रुपये के चार फुलौरियाँ
एक रुपये के चार फुलौरियाँ
फुलौरियाँ समझते हैं ? वही जो चने के बेसन को फेंट कर उसमे जरा सा कलौंजी, थोडा अज्वाइन, ज़रा सी हल्दी, स्वाद के अनुसार नमक इत्यादी मिलाकर उसे पहले फुर्सत से फेंटते है। तब तक फेंटते है जब तक कि उसका गोला पानी मे तैरने ना लग जाये। फिर उसे बडे प्यार से गरम तेल मे तलते है। तबतक, जबतक कि उसका बाहारी आवरण भुरा ना हो जाये। यह एक देसी व्यंजन है जिसे लगभग सभी घरों मे बनाया जात है। खाने मे इसका इस्तेमाल कभी सुखे पकौडे की तरह होता हओ तो कभी कढी चावल मे इस्तेमाल किया जाता है। आप सोच रहे होंगे कि एक दम से मैं आपको खाना बनाना क्युं सिखाने लगा। नही ज़नाब मैं आपको खाना बनाना नही सिखाने वाला । दरसल किसी भी कहानी कि शुरु करने के पहले उसकी भुमिका सही से बनाना जरूरी होता है। जबतक कि आप जानेंगे नहीं कि आखिर कहानी किस बारे मे है तबतक आप खुद को कहानी से जुडा हुआ महसूस नही कर पायेंगे। और जबतक आप खुद को कहाँई सी जुडा हुआ नही पायेंगे तबतक आप कहानी का लुत्फ नही ले पायेंगे। तो जैसा कि शिर्षक से ही साफ है कि इस कहानी का मुख्य पात्र बेसन की फुलौरियाँ ही है। पुरी कहानी इसिके इर्द गिर्द घूमने वाली है मगर इस कहानी के किरदार है वो इससे भी कही ज्यादा मज़ेदार और ज़ायकेदार है।
हरेक घर मे एक ऐसा बच्चा ज़रूर होता है जो सबसे ज्यादा नट्खट, शरराती और खुराफाती होता है। अक्सर उसके घर के मुखिया से नही बनती। वो घर की गाडी खिंचने वाली दोनो प्राणी मे से किसी एक का बहुत ज्यादा प्रिय और दुसरे की नज़र मे हद से ज्यादा चतुर और भीतर घुन्ना होता है। वो दोनों ही प्राणी अपने-अपने जगह मे सही भी होते है। ऐसे बच्चों से अक्सर वो "दुसरे" किस्म का प्राणी जरा दूरी बनाये रखता है। यह भी उससे कट-कट सा ही रहता है मगर अपने स्वार्थ और समय के अनुसार यह अपना खेमा बदलता भी रहता है। ऐसी हें किसी भारतिय निम्न मध्य वर्गिय परिवार मे एक लडका है जिसका नाम है......... नही सही नाम नही बताउंगा वरना इस कहानी से उसका जुडाव नही हो पायेगा। क्या करें, चलिये उसे हम बंटु के नाम से बुलायेंगे। तो बंटु के घर मे उसकी माँ, उसके खडुस से पिता जी, और उसके दो भाई भी थे। बंटु की अपने पिता जी से बिकुल भी नही बनती थी। कारण कुछ भी हो सकता है। कहानी जिस स्माय की है उस समय बंटु की उम्र रही होगी यही कोई ११-१२ साल की। सन १९९६ के आस पास की बात रही होगी। उन दिनों समय के अनुसार महंगाई इतनी ज्यादा नहीं थी। कुछ चैज़े तो इतनी सस्ती थी कि बच्चें अपनी जेब खर्च से भी उसे हासिल कर सकते थे। जबकी उन दिनों बच्चों कि जेब खर्च के नाम पर बस २०-५० पैसे ही रोज़ाना के दिये जाते थे। अगर किसी दिन माँ बहुत खुस हो जाती तो १ रुपया भी थमा देती थी मगर साथ मे यह हिदायत भी सुना देती थी कि इस एक रुपये मे तुम्हे पुरे हफ्ते चलाना होगा। बच्चे मगर कब किसी कि सुनते है, जेब मे पैसे आये नहीं कि अपनी मर्जी से खर्च करने मे लग जाते है। बंटु था तो बच्चा ही।
एक बार हुआ कुछ ऐसा कि किसी बात पर पिता जी ने उसे कसकर डांट दिया। इतनी बुरी तरह से डांटा कि बंटु दो दिनो तक उनसे बदला लेने की सोचने लगा। उस नन्हे से जान के वश मे अपने पिता के साथ बहस करने की हिम्मत तो थी नहीं। और ना ही वो ऐसा कर सकता था। वो शैतान था मगर बिजडैल नही था। वैसे तो घर मे उसे डांट पडना कोई नई बात नही थी मगर वो अपने पिता की डांट बिल्कुल भी बर्दाश्त नही कर सकता था। उसे अपने पिता को किसी भी तरह से इस डांट का सबक देना था । मगर वो करे तो करे क्या ? यह बात उसकी समझ से होती जा रही थी। एक दिन जब वो स्कूल से लौट रहा था तो उसे रास्ते मे एक गुमटी पर एक आदमी फुलौरियाँ तलता हुआ दिखाएऐ दिया । बरसआत का मौसम था, और आज माँ ने घर पर उसके पसंद की सब्ज़ी भी नही बनायी थी। आज उसके पास दो रुपये भी थे । अब उसके पास दो रुपये आये कहाँ से ? तो बात यूँ हुई कि एक रुपये तो उसे माँ ने दिये थे उसके साप्ताहिक जेब खर्च के तौर पर और एक रुपये उसने बाज़ार करते समय बचाये थे । इस छोते से उम्र मे ही वो बाज़ार से सब्ज़िया लेकर आया करता। वो माँ का दाया हाथ था, तभी माँ उसे इतना प्यार भी करती थी। बज़ार क्रने के दौरान अकसर वो दस पैसे बीस पैसे बचा ही लिया करता था। तो इस तरह से आज उसके पास कूल रुपये जमा हो चुके थे। गरमा गरम फुलौरियाँ तलते देख उसके मूँह मे पानी आ गया । बिना कुछ सोचे समझे उसने झट से चार फुलौरियाम खडिद लिये। सोचा कि जाकर माँ को भी दो फुलौरियाँ देगा तो वे भी खुश हो जायेंगी। मगर उसने यह तो नही सोचा था कि इसके लिये उसे कितनी मुश्किलों का सामना करना पडेगा।
वो बडे प्रसन्न मन से घर लौटा और अपने स्कूल के बस्ते मे से गरमा गरम फुलौरियाँ निकालकर माँ की हथेली पर धर दिया । बिना एक भी क्षण गयावे वो माँ से बोला कि जल्दी से उसे खाना दे ताकि उन फुलौरियों के ठंडे होने से पहले वो उसे भात के साथ खा सके। उस वक़्त माँ भी किसी काम मे उलझी हुई थी तो उन्होने भी पहले उसे खाना दिया और अपने काम मे लग गयीं। क़रीब आधे घंटे के बाद उन्हे फुलौरियों की याद आयी तो उन्होने भी एक फुलौरी का स्वाद चखा। व्यंजन तो बडा ही स्वादिष्ट था। खाते हुए ही माँ ने बंटु से पूछा - अर्रे बंटु, ये फुलौरियाँ तो बडी ही स्वादिष्ट है, कहाँ से लेकर आया है तु ?
बंटु - माँ के मूँह से अपने लाये गये सामान की तारिफ सुनकर बोला - माँ वो ओ अपने गली के नुक्कड पर नयी गुमटी खुली है ना, बस वही से तो लेकर आया हूँ।
माँ - (दुसरा सवाल पूछ्ते हुए ) कितने कि दिये एक ?
बंटू - ( खुद को सम्हालते हुए, क्युंकि इसके बाद आने वाले सवाल को वो पहले ही भांप चुका था) एक रुपये के चार माँ ।
माँ - एक रुपये के चार, यानि के चव्वनी के एक ?
बंटु - हाँ माँ, जभी तो मैं इसे ला पाया।
माँ - सच मे बहुत हे अच्छा है खाने मे। अगली बार भी जब मौका मिले लेते आना।
बंटू - ज़रूर माँ ।
बंटू के के जान मे जान आयी, क्युंकि अगर उसने उसका सही दाम बताया होता तो फिर माँ उससे किसी इंकम टैक्स की आफिसर की तरह उस एक रुपये का हिसाब मांगती जो बंटु के पास नही होने चाहोये थे । माँ हरे सप्ताह के अंत मे बंटु से खर्च किये गये पैसों का हिसाब लिया करती थी। जबी बंटु डरा हुआ था क्युंकि उसके पास इस एक रुपये की उपरी कमाई का हिसाब नही था। खैर बात आई गई हो जाने से बंटु के चैन की सांसे ली । मगर वो कहते है ना कि जब आप एक झूठ बोलते है तो फिर उसे सच साबीत करने के लिये आपको दस और झूठ उसके इर्द गिर्द बुननए पडते है ताकि सच ढूंढने वाला झूंठ की जाल मे ही उलझ कर रह जाये । इससे होगा यह कि या तो वो तंग आकर सच ढूंढना छोड देगा या फिर अपना सिर फोड लेगा। इस बार तो शायद बंटू को झूठ का जाल बनाने की ज़रूरत नहीं पडी । मगर उसकी यह खूशी ज्यादा दिन नहीं टिकि क्युंकि इस घटन के एक हफ्ते बाद ही एक और घटना घटी जिससे घर मे हंगामा मच गया।
एक रुपये की चार फूलौरियाँ - भाग २
हुआ यूं की बंटू के फुलौरियों वाले घटना के ठीक एक हफ्ते के बाद ही पिता जी को कुछ पैसे थमाते हुए मां ने बाज़ार सब्ज़ी लेन भेजा था। जैसे ही पिताजी घर से निकले तो मां ने उन्हें लौटते हुए चार फुलौरियाँ लाने को कह दिया। इस बात से अंजान की मैंने क्या गुल खिला रक्खा है पिता जी ने बाज़ार से लौटते समय चार फुलौरियाँ बंधवा लिया और घर लेते आये। पहले तो सभी ने बड़े प्रेम से फुलौरियों का स्वाद लिया फिर सभी अपने अपने काम ले तल्लीन हो गएँ। मां भी अपने काम में लग गयी और पिता जी भी अपने चार पाई पर बैठ कर बड़े प्रेम से अपना ज़र्दा वाला पान चबाने लगे। थोड़ी से किमाम , थोड़ी सी मीठी खुशबू वाले सुपाड़ी, ज़र्दा ३६० और उसपर मनमुताबिक कत्था। अभी वो चारपाई पर बैठकर पान का स्वाद लेना शुरू ही किया था की मां उनके पास चली आई। पास बैठते हुए उन्होंने पिताजी से दिए गए पैसों खर्चे और लुटाये गए पैसो का हिसाब माँगा। पिताजी जी की आदत थी कि वो हमेशा हिसाब देने से बचते थे। बचते क्या थी कटते रहते थे। घर खर्च के पैसो में से अपने खर्चे को कैसे नत्थी किया जाता है यह सब मैंने उन्ही से सीखा था। जैसे ही मां ने हिसाब माँगा तो पहले तो आनाकानी करने लगे मगर जब मां ने आँखे तरेरी तो किसी भोले से बच्चे की तरह पूरा हिसाब दे डाला। उसमे उनके पान का खर्चा भी था जो किसी खर्चे में जुड़ा हुआ था।
सबकुछ सही चल रहा था मगर बात फुलौरियों के दाम पर आकर अटक गयी। पिता जी ने चार फुलौरियों की कीमत २ रुपये बताया था बस मामला यहीं से तूल पकड़ने लगा। पिताजी की बतायी गयी कीमत से मां बिकुल भी संतुष्ट नहीं हो पा रही थी उन्होंने कहा,
मां - क्या चार फुलौरियों की दो रुपये ?
पिताजी - हाँ, दो रुपये , मैं क्या तुमसे मज़ाक कर रहा हूँ?
मां - मगर, खैर छोड़िये, आगे बढ़ाते हैं, यह पान की खुशबू बहुत अच्छी है, कितने में लिया आपने?
पिताजी - १ रुपये में
मां - सही है , हिसाब तो मिल रहा है
पिताजी - (होसाब तो मिल रहा है ) क्या मतलब/
मां - हाँ, आपने कहा ना, चार फुलौरियाँ २ रुपये की, और एक रुपये का आपका पान। उसी से हिसाब मिल गया।
पिताजी - इसका मतलब पान के पैसे मैंने फुलौरियों के साथ जोड़ दिए हैं, यही कहना चाहती हो तुम?
मां - नहीं, यह तो आप कह रहे हैं, मैं तो बस अंदाज़ा लगाती हूँ।
पिताजी - कितनी की आती है फुलौरियाँ , बताओ।
मां - चव्वनी के , अभी एक हफ्ते पहले ही बंटू लेकर आया था, बिलकुल ऐसी ही फुलौरियां थी। मैं तो कहती हूँ यही वाली थी।
पिताजी - कहाँ से लेकर आया था वो ?
मां - पहले आप बताइये, आपने कहाँ से लिए हैं ?
पिताजी - मैंने तो यहीं नुक्कड़ की नई गुमटी से लिए हैं। उसने कहाँ से लिए थे ?
मां - उसने भी वहीं से लिए थे , अभी बुलाकर पूछवा देती हूँ।
मां ने इतना अकहाते हुए बंटू को बुलाया। इन सभी बातों से अंजान बंटू अपना कल छोड़ कर भागता हुआ मां के गोद में आकर बैठ गया। मां ने बड़े प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते हुए पूछा
मां - बेटा वो जो तू फुलौरियाँ लेकर आया था ना, कितने की थी एक ?
बंटू - वो........., वो (कुछ सोचते हुए ) एक रुपये की चार फुलौरियाँ थी।
मां - ठीक है तू जा
बंटू - ठीक है ( इतना कहते हुए वहाँ से चला जाता है)
माँ- पिताजी की तरफ क्रोधित नज़रों से देखती हुई, कहिये आप क्या कहियेगा?
पिताजी - बड़ी अचरज भरी नज़रो से ज़मीन को देखते हुए - इसका मतलब की उस गुमटी वाले ने मुझे ठग लिया। मैं अभी जाकर उससे निपटता हूँ।
इतना कहते हुए पिताजी ने अपना गमछा उठाया, उसे सर पर लपेटा जैसे की किसी से हाथापाई करने जा रहे हों, और पैर पटकते हुए बाहर जाने लगे। उन्हें बाहर जाते देख मां ने कहा -
अब जाने भी दीजिये, अगर आपने पान खा ही लिया है तो इसमें हरज़ नहीं है , मुझे तो बस सच जाना था।
आम तौर पर छोटे बच्चे झूठ नहीं बोलते, तो क्या बंटू झूठ बोल रहा है?
घर आते ही मां ने उनकी तरफ क्रोधित आँखों से देखते हुए कहा - आ गएँ आप ? अबकहिये क्या कहना है ?
पिताजी - तुम मानो ना मानो पर सच यही है कि यह फुलौरियाँ दो रुपये के चार मिलते हैं , एक के चार नहीं।
मां - तो आप यह कहना चाहते है कि बंटू दो के चार लाया है और मुझे एक के चार बता रहा है ?
पिताजी - हाँ ऐसा हो सकता है। वो ऐसा क्यों करेगा मालूम नहीं मगर किया तो उसने ऐसा ही है।
मां - ठीक है तो इसका अभी इलाज़ है मेरे पास। मैं कल हे इसके तह तक जाऊंगी।
एक रुपये के चार फूलौरियाँ - भाग ३
पिताजी- तुम क्या ही तह तक जाओगी, तुम्हारे लिए तो बस मैं ही गलत होता हूँ, हमेशा।
मां - नहीं, ऐसा नहीं है, अगर आप गलत हैं तो हैं और अगर मैं गलत हूँ तो हूँ, और अगर वो गलत है तो है। मैं गलत का साथ कभी भी नही देती।
इस घटना को दो दिन बीत गए थे| एक रोज़ फिर बंटू रोज़ की ही तरह बाज़ार से लौट रहा था। आज फिर से उसे फुलौरियाँ खाने का मन किया। मगर आज उसके पास बस पचास पैसे ही थे। वो मगर अपनी मां को दिए बिना खा नहीं सकता था, ना ही वो ऐसा करना चाहता था। उसने थोड़ा सा दिमाग लगाया और बाज़ार के लिए मिले पैसों के हिसाब से एक पच्चीस पैसो की मिलावट कर दिया। इसके बाद उसने पच्चीस पैसे और लिए और सीधे जाकर फुलौरी वैसे से दो फुलौरियाँ बंधवा लिए। वो हँसता खेलता हुआ मां के पास जा पहुँचा और उनके हाथो में दो फुलौरियाँ थमा दिए। मां ने उसकी तरफ आश्चर्य देखते हुए कहा -
मां - फिर से फुलौरियाँ ले आया तू?
बंटू - हाँ मां, आज मुझे फिर से खाने का मन था, तो मैं ले आया। मगर आज मैंने बाज़ार से बचे पैसों में से पच्चीस पैसे लिए थे। मेरे पास बस पच्चीस पैसे ही थे।
मां - कोई बात नहीं बेटा, ( पापा के तरफ घूरते हुए ) तूने बता दिया कि तूने पैसे लिए हैं इतना ही काफी है।
पिताजी - मन ही मन कुछ बड़बड़ाते हुए बाहर चले गएँ।
माँ- अच्छा बंटू यह बता कि तुझे ये फुलौरियाँ कितने में कहाँ मिली और कितनी में मिली।
बंटू - (जैसे वो इस सवाल के लिए तैयार ही था ) वो........। वो तो मुझे नुक्कड़ की गुमटी पर मिली, चव्वनी के एक।
मां - (फिर से बाबूजी की देखते हुए ) अरे वाह मेरे बच्चे, जा जाकर खले।
फिर मां पिताजी के पास जाकर बोली - देखो आज फिर से उसने एक रुपये की चार फुलौरियाँ लाई है। एक तुम हो कि तुम्हे कुछ मिलता ही नहीं। पिता जी एक बार फिर से पैर पटकते हुए बाहर जा निकले। उस दिन भी बात किसी तरह से टल गयी , उस दिन भी बंटू की चालाकी कोई समझ नहीं पाया। मगर पिताजी अब इस मामले की जड़ तक जाना चाहते थे । एक कल का लौंडा उनके नाक के नीचे रहहकर उन्हें उल्लू बना रहा था, और इतना हीं नहीं बल्कि उसकी पत्नी के सामने उसकी इज़्ज़त का कवारा कर रहा था ये बात उन्हें कत्तई भी बर्दाश्त नही हो रही थी। अब पिताजी बंटू पर नज़र रखने लगे कि वो कब और कैसे फुलौरियाँ लाता है। मगर बंटू ने भी कोई कच्ची गोलियां नही खेली थी। उसे पता था कि पिताजी ऐसा कर सकते हैं तभी तो उसने अपने पास पहले से ही कुछ पैसे बचा कर रक्खे थे। दरअसल यह घटना कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं थी। अगर आपको याद हो तो सोचिये कि बंटू को पिताजी से किस बात की चिढ़ थी। याद पड़ा, हाँ -हाँ , आया, बिलकुल सही पकड़ा आपने। बंटू अपनी डाँट का हिसाब ले रहा था।उस दिन, जिस दिन पिताजी ने उसे डांटा था वो तभी से पिताजी से हिसाब चुकाने की फ़िराक में था। और भला एक पति को उसकी पत्नी बच्चे की वजह से डांटे इससे ज्यादा सुकून वाली बात किसी शैतान बच्चे के लिए और क्या ही हो सकती है।
बंटू उस दिन से और ज्यादा सावधान हो गया था। पिताजी डाल-डाल तो बंटू पात पात चल रहा था। उन दोनों के बीच एक शीत युद्ध चल रही थी जिसकी खबर घर के किसी दूसरे सदस्य को नहीं थी। पिताजी जितने दबे कदमो से बंटू की हरकत पर नज़र रखते थे बंटू उतनी ही लापरवाही से अपने सभी काम करा रहा था। यह जानते हुए भी कि पिताजी मौके की तलाश में है वो बिलकुल अनजान बना रहा। दिन बिते और एक दिन फिर से मां ने पिताजी से वही फुलौरियां लाने को कहा। पिताजी गए और फिर से वही दो रुपये में चार लेकर चले आएं। मां फिर से पिनाक गई और बोली
मां - आपको कैसे दो रुपये के चार मिलते है जबकि बंटू हमेशा ही एक रुपये के चार लाता है।
पिताजी - ठीक है तो आज , अभी बंटू को एक रुपये थमाओ और कहो कि जाकर फुलौरियाँ लेता आये , मैं भी तो देखूं कि वो एक के चार कैसे लेकर आता है।
एक रुपये के चार फूलौरियाँ -4
मां ने बंटू को बुलाया और कहा,
मां - बंटू .... ज़रा इधर तो आना,
बंटू - आया मां, कहते हुए वो कमरे में चला आया। ( अंदर कमरे में एक तरफ माँ और दूसरे तरफ पिताजी खड़े थे। पिताजी के चहरे से पता चल रहा था कि वो किसी बाटी से कुढ़े हुए है। मां की आँखों में थोड़ा रोष दिखाई पड़ रहा थ। बंटू परिस्थिति की गंभीरता को समझते हुए कहता है ) बोलो मां क्या बात है।
मां - बंटू बेटे यह लो एक रुपये और जाकर फुलौरियाँ लेते आओ। आज फुलौरियों की ही सब्ज़ी बनाये जाएगी।
बंटू - (पिताजी के तरफ तिरछी नज़रों से देखते हुए) क्यूँ, अभी-अभी तो पिताजी ने फुलौरियाँ लाई थी, उनका क्या हुआ?
मां - उन्होंने तो बस चार ही लाये हैं, हम तो चार लोग हैं ना ? सभी को कम से कम दो-दो तो मिलनी ही चाहिए ना।
बंटू - ( मामले को बारीकी से समझते हुए कि आज तो पिताजी ने अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ ही दिया है, माँ से कहता है ) अच्छा जाता हूँ,।
इतना कहते हुए वो सीधे अपने कमा रे में चला गया और वही से अपने कमीज उठायी और फिर उसमे अपने बदन को ठूंसते हुए सरपट दौड़ता हुआ बाहर चला जाता है। ठीक पांच मिनट के अंदर वो अपने साथ एक छोटी सी प्लास्टिक के थैले में चार फुलौरियाँ लेकर कमरे के अंदर चला आया। मां को थमाते हुए वो बिलकुल वैसे ही बाहर भागा जैसे कि पहली बार माँ के बुलाने पर वो अंदर आया था।
पिताजी एक टक बंटू को देखते रह गएँ। वो समझ ही नहीं पाए की आखिर यह सब क्या और कैसे हो गया? मां ने उनके मने ही बंटू को एक रुपये दिए थे। और जितना उन्होंने देखा था उसमे बंटू ने कुछ ऐसा भी नहीं किया था जिससे की वो कही से पैसे का जुगाड़ कर सका हो। मतलब पांच मिनट के अंदर कोई बच्चा कहाँ से १ रुपये लेकर आएगा। इतना सबकुछ होने के बावजूद भी पिताजी के शक की सुई थी जो बार बार बंटू पर आकर अटक जा रही थी। मां हालांकि पिताजी के बात से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखती थी मगर उनके बार बार एक ही बात के दोहराने से अबनहे भी थोड़ा थोड़ा शक तो होने ही लगा था। चुकी बंटू के रंग ढंग में कोई परिवर्तन नहीं था तो मां ने इसपर कुछ बहुत ज्यादा ज़ोर नहीं दिया। मगर पिता जी को चैन कहाँ था। वो एक बार फिर से जा पहुँचे गुमटी वाले के पास और जाकर पूछा -
पिताजी - क्यों भाई, यह चक्कर क्या है? मुझे तुम दो रुपये की चार देते हो और मेरे बच्चे को एक के चार देते हो।
दूकानदार - ( जो की पहले से ही पिताजी से चिढा हुआ था, उन्हें घूरते हुए कहता है ) मेरी मर्ज़ी, मेरी दुकान, मैं जिसे चाहूँ जिस दाम में माल बेचूँ, तुम्हे इससे क्या ? वैसे भी मैं तुम्हारे बेटे को पहचानता तो नहीं, मगर मैंने जो उसे एक के चार दिए होंगे तो जरूर उसने कुछ अच्छा ही किया होगा।
पिताजी अपना सा मुँह लिए हुए फिर से घर लौट आये।
बात छोटी सी थी मगर पिताजी के साइन में किसी नश्तर की चुभ रही थी। आखिर ऐसा कैसे हो सकता था। वो अपनी ही पत्नी के नज़रो६ में कमतर कैसे आंके जा सकते थे।
बात पहले शरारत लग रही थी, फिर शैतानी तक जा पहुँची थी लेकिन अब वो पिताजी के अहं को खुली चुनौती बन गयी थी। अब यह कोई छोटी मोटी बात नहीं रह गयी थी बल्कि एक बेटे से (११ साल के) एक बाप की लड़ाई बन चुकी थी। चाहकर भी मगर पिताजी उसे घेर नही पा रहे थे।
वो कहते है ना कि सच दब तो सकता है मगर ज्यादा दिन छिप नहीं सकता, यही बंटू के साथ भी होने वाला था। पिछले तीन महीनो में उसने कई बार पिताजी को उन फुलौरियों के लिए मां से बात सुनते हुए देखा था। वो भी समझ रहा था की जिस दिन भी मां को उसपार शक हो गया वही दिन उसके झूठ का आख़िरी दिन होगा।
हुआ भी वही जैसा की बंटू को लग रहा था। कई दिनों के बाद एक बार ऐसा हुआ की मां बंटू की अपने साथ लेकर बाज़ार निकली थी। बाजसार से कुछ सब्ज़ियां खरीदी, दो एक घर के सामान लिए और फिर लौट कर घर आने लगी। जाने क्यूँ उस दिन बंटू को यह शुबा हो रहा था की शाया आज उसके फुलौरियों वाली बात खुल जाएगी। मगर वो खुद से ऐसा कुछ भी करना नहीं चाहता था जिससे कि उसका भांडा फुट जाए। उसे मां के मार से डर नहीं था, पिताजी के डाँट के बारे में तो वो सोचता ही नहीं था मगर मां के सामने उसकी इज़्ज़त काम हो जाएगी और फिर पिताजी को भी बात बात पर उसका नाम लेकर मां को चिढ़ाने का मौका आमिल जाएगा, यही सोचकर वो चुप था। मगर हरेक झूठ का सामना एक ना एक दिन सच से होता ही है, बंटू के लिए वो दिन आज का ही दिन था।
बंटू किसी भी तरह करके मां को फुलौरियों की याद आने नही देना चाहता था। यहाँ तक कि वो बोलते समय इस बात का ख़ास ख़याल रखता था कि उसके मुंह से "फ" अक्षर भी ना निकले। पुरे रास्ते वो बस यही सोचता रह गया कि किसी तरह मां घर लौट चले। एक बार वो घर चली गयी तो फिर बंटू मामला सम्हाल लेगा। मगर बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती, लौटते हुए आखिर में मां की नज़र फुलौरियों पर पड़ ही गयी। बड़े से कड़ाही में गरम तेल में छन रही फुलौरियों को देखकर मां के भी मुहं में पानी आ ही गया । और मां ठीक दूकान के सामने जाकर रुक गयी। बंटू को तो एक रुपया थमाती हुए कहा, जाकर चार फुलौरियाँ लेकर घर चले आना।
बंटू को तो काटो तो खून नहीं वाला हाल हो गया। अभी इस समय ना तो उसके पास पैसे थे और ना ही वो आदमी ही बैठा हुआ था जिससे वो हरदम फुलौरियां लिया करता था। अब वो करते तो क्या करे। वो वहीं ठिठक गया। ना आगे बढ़ा और ना ही पीछे ही हटा। मां यह सबकुछ देख रही थी , और शायद बंटू के मन के हाल को टटोलने की कोशिश कर रही थी। काफी देर तक जब बंटू नहीं गया तो मां उसे लेकर खुद ही गुमटी पर जा पहुँची। गुमटी पर बैठे लड़की ने उन्हें देखते हुए पूछा कि उन्हें क्या चाहिए ? मां ने चार फुलौरियां देने को कहते हुए बंटू के हाथों से एक रुपया का बड़ा वाला सिक्का निकाला और उसे थमा दिया। लड़की ने कागज़ के एक थैले में सामान धारा और मां को पकड़ा दिया। मान ने भी रुपये का सिक्का उसे थमाते हुए चलने को तैयार हुई। मां को उम्मीद थी कि वो लड़की इसके बारे में कुछ तो जरूर कहेगी मगर वो लड़की तो मस्ती से अपने काम में वापस लग गयी। उसने पैसे मां के हाथ से लिए और सीधे गल्ले में डाल दिया, बिना यह देखे हुए कि सिक्का कितने का था। मां को एक बार अजीब तो लगा मगर फिर मां के कोमल ह्रदय ने यह मान लिया कि उसका बेटा ही सही है बेकार ही उसपर शक किया जा
रहा था। उस लड़की की एक गलती से मेरी मां के मन में मेरे लिए प्यार और मेरे पिताजी के लिए गुस्सा एक ही साथ उमड़ने लगा था।
अभी बंटू के चैन की सांस ली ही थी की तभी पीछे से लड़की का बाप आ आ गया। उसने आते हुए शायद लड़की को पैसे रखते हुए देख लिया था। आते ही उसने लड़की से
दुकानदार - पूछा क्या बेच दिया?
लड़की - फुलौरियाँ
दुकानदार - कितने?
लड़की - २
दुकानदार - कितने पैसे लिए
लड़की - दो रुपये
दूकानदार - ठीक है
इतना सुनते ही मेरी मां बोल पडी - नहीं- नहीं भाई साहब, मैंने तो बच्ची को बस एक ही रुपया दिया है। शायद उसने गलत देख लिया है। मगर क्या फुलौरियों के दाम बढ़ गए है ?
दुकानदार - नहीं तो। पिछले १ साल से तो यही दाम है इसकी। आपका बच्चा तो हमेशा इसी दाम में लिए जाता है। ( बंटू की तरफ देखकर इशारा करने लगता है ।
मां को बात समझते देर नहीं लगी कि पूरा मामला क्या है।
माँ मगर वहां कुछ भी नहीं बोली। बंटू को गुस्से भरी नज़र से देखा और हाथ पकड़कर खींचते हुए घर लेकर जा पहुँची।
बंटू को समझ में आ गया था कि आज उसके झूठ का घड़ा फूटने वाला है और उसे जमकर मार पड़ने वाली है। लेकिन अब उसके पास बचकर निकलने का कोई रास्ता था नहीं। घर जाते ही मां ने कसकर एक चपत उसके गाल पर रसीद कर दिया। बंटू हलके गेंहुएं रंग पर भी मां के उँगलियों के निशाँ साफ़ साब उभरे हुए दिखाई दे रहे थे।
बंटू ना तो रो ही सकता था और ना ही वहाँ से भाग ही सकता था। एक एक हाथो से अपने गाल को सहलाते हुए और दूसरे हाथ से अपने बहते आंशुओं को पोछते हुए वो किसी तरह अपनी आवाज़ को काबू में किये हुए था। मां का एक तरिका था मारने का। अगर मारने के पहले भागा तो पकड़ कर मारती। अगर मारने के बाद भागा तो भगा-भगा कर मारती, अगर मार खाने के पहले रोया तो ज्यादा तेज़ मारती , अगर मार खाने के बाद रोया तो रुला-रुला कर मरती। तो मार से बचने का सबसे आसान और कारगर तरिका था कि चुपचाप दो चार झापर खा लो और किसी कोने में जाकर खड़े हो जाओ।
मगर इससे पहले की मेरे ऊपर मां के गुस्से का अगला प्रहार होता पिता जी ने एक और गलती कर दी । बेचारे मुझे फंसाने के चक्कर में कहीं से जलेबिया ले आये थे। और उन जलेबियों की कीमत आठ आने के एक बता रहे थे। जबकि मां उसी दूकान से बाईट कल ही चार जलेबियाँ मुझसे मांगा चुकी थी और मैंने एक जलेबी की कीमत १ रुपये बताया था।