एक रुपये के चार फुलौरियाँ
एक रुपये के चार फुलौरियाँ
फुलौरियाँ समझते हैं ? वही जो चने के बेसन को फेंट कर उसमे जरा सा कलौंजी, थोडा अज्वाइन, ज़रा सी हल्दी, स्वाद के अनुसार नमक इत्यादी मिलाकर उसे पहले फुर्सत से फेंटते है। तब तक फेंटते है जब तक कि उसका गोला पानी मे तैरने ना लग जाये। फिर उसे बडे प्यार से गरम तेल मे तलते है। तबतक, जबतक कि उसका बाहारी आवरण भुरा ना हो जाये। यह एक देसी व्यंजन है जिसे लगभग सभी घरों मे बनाया जात है। खाने मे इसका इस्तेमाल कभी सुखे पकौडे की तरह होता हओ तो कभी कढी चावल मे इस्तेमाल किया जाता है। आप सोच रहे होंगे कि एक दम से मैं आपको खाना बनाना क्युं सिखाने लगा। नही ज़नाब मैं आपको खाना बनाना नही सिखाने वाला । दरसल किसी भी कहानी कि शुरु करने के पहले उसकी भुमिका सही से बनाना जरूरी होता है। जबतक कि आप जानेंगे नहीं कि आखिर कहानी किस बारे मे है तबतक आप खुद को कहानी से जुडा हुआ महसूस नही कर पायेंगे। और जबतक आप खुद को कहाँई सी जुडा हुआ नही पायेंगे तबतक आप कहानी का लुत्फ नही ले पायेंगे। तो जैसा कि शिर्षक से ही साफ है कि इस कहानी का मुख्य पात्र बेसन की फुलौरियाँ ही है। पुरी कहानी इसिके इर्द गिर्द घूमने वाली है मगर इस कहानी के किरदार है वो इससे भी कही ज्यादा मज़ेदार और ज़ायकेदार है।
हरेक घर मे एक ऐसा बच्चा ज़रूर होता है जो सबसे ज्यादा नट्खट, शरराती और खुराफाती होता है। अक्सर उसके घर के मुखिया से नही बनती। वो घर की गाडी खिंचने वाली दोनो प्राणी मे से किसी एक का बहुत ज्यादा प्रिय और दुसरे की नज़र मे हद से ज्यादा चतुर और भीतर घुन्ना होता है। वो दोनों ही प्राणी अपने-अपने जगह मे सही भी होते है। ऐसे बच्चों से अक्सर वो "दुसरे" किस्म का प्राणी जरा दूरी बनाये रखता है। यह भी उससे कट-कट सा ही रहता है मगर अपने स्वार्थ और समय के अनुसार यह अपना खेमा बदलता भी रहता है। ऐसी हें किसी भारतिय निम्न मध्य वर्गिय परिवार मे एक लडका है जिसका नाम है......... नही सही नाम नही बताउंगा वरना इस कहानी से उसका जुडाव नही हो पायेगा। क्या करें, चलिये उसे हम बंटु के नाम से बुलायेंगे। तो बंटु के घर मे उसकी माँ, उसके खडुस से पिता जी, और उसके दो भाई भी थे। बंटु की अपने पिता जी से बिकुल भी नही बनती थी। कारण कुछ भी हो सकता है। कहानी जिस स्माय की है उस समय बंटु की उम्र रही होगी यही कोई ११-१२ साल की। सन १९९६ के आस पास की बात रही होगी। उन दिनों समय के अनुसार महंगाई इतनी ज्यादा नहीं थी। कुछ चैज़े तो इतनी सस्ती थी कि बच्चें अपनी जेब खर्च से भी उसे हासिल कर सकते थे। जबकी उन दिनों बच्चों कि जेब खर्च के नाम पर बस २०-५० पैसे ही रोज़ाना के दिये जाते थे। अगर किसी दिन माँ बहुत खुस हो जाती तो १ रुपया भी थमा देती थी मगर साथ मे यह हिदायत भी सुना देती थी कि इस एक रुपये मे तुम्हे पुरे हफ्ते चलाना होगा। बच्चे मगर कब किसी कि सुनते है, जेब मे पैसे आये नहीं कि अपनी मर्जी से खर्च करने मे लग जाते है। बंटु था तो बच्चा ही।
एक बार हुआ कुछ ऐसा कि किसी बात पर पिता जी ने उसे कसकर डांट दिया। इतनी बुरी तरह से डांटा कि बंटु दो दिनो तक उनसे बदला लेने की सोचने लगा। उस नन्हे से जान के वश मे अपने पिता के साथ बहस करने की हिम्मत तो थी नहीं। और ना ही वो ऐसा कर सकता था। वो शैतान था मगर बिजडैल नही था। वैसे तो घर मे उसे डांट पडना कोई नई बात नही थी मगर वो अपने पिता की डांट बिल्कुल भी बर्दाश्त नही कर सकता था। उसे अपने पिता को किसी भी तरह से इस डांट का सबक देना था । मगर वो करे तो करे क्या ? यह बात उसकी समझ से होती जा रही थी। एक दिन जब वो स्कूल से लौट रहा था तो उसे रास्ते मे एक गुमटी पर एक आदमी फुलौरियाँ तलता हुआ दिखाएऐ दिया । बरसआत का मौसम था, और आज माँ ने घर पर उसके पसंद की सब्ज़ी भी नही बनायी थी। आज उसके पास दो रुपये भी थे । अब उसके पास दो रुपये आये कहाँ से ? तो बात यूँ हुई कि एक रुपये तो उसे माँ ने दिये थे उसके साप्ताहिक जेब खर्च के तौर पर और एक रुपये उसने बाज़ार करते समय बचाये थे । इस छोते से उम्र मे ही वो बाज़ार से सब्ज़िया लेकर आया करता। वो माँ का दाया हाथ था, तभी माँ उसे इतना प्यार भी करती थी। बज़ार क्रने के दौरान अकसर वो दस पैसे बीस पैसे बचा ही लिया करता था। तो इस तरह से आज उसके पास कूल रुपये जमा हो चुके थे। गरमा गरम फुलौरियाँ तलते देख उसके मूँह मे पानी आ गया । बिना कुछ सोचे समझे उसने झट से चार फुलौरियाम खडिद लिये। सोचा कि जाकर माँ को भी दो फुलौरियाँ देगा तो वे भी खुश हो जायेंगी। मगर उसने यह तो नही सोचा था कि इसके लिये उसे कितनी मुश्किलों का सामना करना पडेगा।
वो बडे प्रसन्न मन से घर लौटा और अपने स्कूल के बस्ते मे से गरमा गरम फुलौरियाँ निकालकर माँ की हथेली पर धर दिया । बिना एक भी क्षण गयावे वो माँ से बोला कि जल्दी से उसे खाना दे ताकि उन फुलौरियों के ठंडे होने से पहले वो उसे भात के साथ खा सके। उस वक़्त माँ भी किसी काम मे उलझी हुई थी तो उन्होने भी पहले उसे खाना दिया और अपने काम मे लग गयीं। क़रीब आधे घंटे के बाद उन्हे फुलौरियों की याद आयी तो उन्होने भी एक फुलौरी का स्वाद चखा। व्यंजन तो बडा ही स्वादिष्ट था। खाते हुए ही माँ ने बंटु से पूछा - अर्रे बंटु, ये फुलौरियाँ तो बडी ही स्वादिष्ट है, कहाँ से लेकर आया है तु ?
बंटु - माँ के मूँह से अपने लाये गये सामान की तारिफ सुनकर बोला - माँ वो ओ अपने गली के नुक्कड पर नयी गुमटी खुली है ना, बस वही से तो लेकर आया हूँ।
माँ - (दुसरा सवाल पूछ्ते हुए ) कितने कि दिये एक ?
बंटू - ( खुद को सम्हालते हुए, क्युंकि इसके बाद आने वाले सवाल को वो पहले ही भांप चुका था) एक रुपये के चार माँ ।
माँ - एक रुपये के चार, यानि के चव्वनी के एक ?
बंटु - हाँ माँ, जभी तो मैं इसे ला पाया।
माँ - सच मे बहुत हे अच्छा है खाने मे। अगली बार भी जब मौका मिले लेते आना।
बंटू - ज़रूर माँ ।
बंटू के के जान मे जान आयी, क्युंकि अगर उसने उसका सही दाम बताया होता तो फिर माँ उससे किसी इंकम टैक्स की आफिसर की तरह उस एक रुपये का हिसाब मांगती जो बंटु के पास नही होने चाहोये थे । माँ हरे सप्ताह के अंत मे बंटु से खर्च किये गये पैसों का हिसाब लिया करती थी। जबी बंटु डरा हुआ था क्युंकि उसके पास इस एक रुपये की उपरी कमाई का हिसाब नही था। खैर बात आई गई हो जाने से बंटु के चैन की सांसे ली । मगर वो कहते है ना कि जब आप एक झूठ बोलते है तो फिर उसे सच साबीत करने के लिये आपको दस और झूठ उसके इर्द गिर्द बुननए पडते है ताकि सच ढूंढने वाला झूंठ की जाल मे ही उलझ कर रह जाये । इससे होगा यह कि या तो वो तंग आकर सच ढूंढना छोड देगा या फिर अपना सिर फोड लेगा। इस बार तो शायद बंटू को झूठ का जाल बनाने की ज़रूरत नहीं पडी । मगर उसकी यह खूशी ज्यादा दिन नहीं टिकि क्युंकि इस घटन के एक हफ्ते बाद ही एक और घटना घटी जिससे घर मे हंगामा मच गया।
