वैध्वय
वैध्वय
वैधव्य 1 "सोनाली देख दरवाजे पर कौन है?" जी अम्मा जी" दरवाजा खोलते ही उसके होंठो पर हल्कीमुस्कुराहट आ गई-" पापा आप यहाँ। " "क्यों तुझसे मिलने नहीं आ सकता।" पिताजी ने चारपाई पर बैठते हुए पूछा। नहीं, ऐसी बात नहीं है। मैंने सोचा शायद कोई काम होगा। " कोई काम नहीं था, बस तुझे और बच्चों को देखने आया। "और ले यह रख एक थैली पकड़ाते हुए बोले प्रियांश को दे देना।" "ठीक है। " सोनाली के पिता पुत्री को इस तरह देख उनकी आँखे नम हो जाती है। उसके उजड़े रंग को देखकर पिछली बातें याद आ जाती है। आज से लगभग पाँच वर्ष पूर्व वह सिद्धार्थ के साथ ब्याहकर इस घर में आई थी। चट मँगनी, पट ब्याह हुआ इनका। सब कितने खुश थे, पलकों पर बिठा रखा था सिद्धार्थ ने। सासु माँ भी दोनों को देखकर मुस्कुराये बिना नहीं रह पाती। पिता ने सोचा उनकी लाडो बहुत खुश रहेगी पर भाग्य कौन पढ सकता है। शादीके तीन बर्ष बाद हीसिद्धार्थ की मृत्यु कार एक्सीडेंट में हो गई। घर में कोहराम मच गया। बूढी माँ अलग पछाड़े खाने लगी। सोनाली पत्थर हो गई उसके आँखों से आँसू भी न निकले।एकटक बस सब को निहारती रहती। ससुर जी पहले ही इस संसार से विदा हो गये। बेटे की मृत्यु ने दोनों को ही तोड़ दिया। सांसारिक कार्य से निबट किसी तरह दोनों ने अपने आप को संभाला और बड़ी मुश्किल से सोनाली वापस जीवन में लौट सकी। अब दोंनो विधवायें एक दूसरे का सहारा थीं। दोंनो ही अपने वंश के लालन- पालन में लगी रहती। "पापा चाय।" अचानक उनकी तंद्रा टूटी।। बेटी को ठीक जान वह अपने घर बड़े ही उदास, और बुझे कदमो से चले गये। "प्रियांश नाना जीके द्वारा लाये केले और फल खाने लगा। सोनाली उसे देख खुश हो जाती पर फिर भी यकायक उसकी आँखे सजल होही जाती हैं। पिता बेटी की गृहस्थी देख खुश क्या होता पर हाँ प्रियांश को देख संतुष्ट हो जाता है। दोनों समधी और समधन बीती बाते करते - करते आँखों में आये आँसुओ को चुपके से पोंछ देते । कुछ देर ठहरकर वे घर वापस हो जाते हैं। रूकिए पापा मुझे भी बाजार से सामान लाना है, आपके साथ बाहर तक चलती हूँ। मुख पर किसी प्रकार का भाव लाये सोनाली ने कहा। "मम्मी मैं पापा के साथ चली जाती हूँ, आप प्रियांश का ध्यान रखना कह वे दोनों घर से बाहर चले जाते हैं। बेटी के कंधे पर पूरी गृहस्थी देख, गंभीर हो उठते पर तुरंत ही मुस्कुराकर उससे जाने की विदा लेते हैं। विचारों की श्रृंखला निरन्तर उनके मन मस्तिष्क में चलती रहती है। सोनाली परचून की दुकान के लिए आटा, चावल घी तेल मसाले बँधवाकर रिक्शे पर लदवातीहै। एक कुशल दुकानदार की तरह मोलभाव करता उसका व्यवहार उसे दूसरी स्त्रियों से अलग बना रहा है। तभी गली के तीन ;चार लड़के जो प्राय: उसे वहाँ देखते है उस पर छींटाकशी करने लगते है। पहला" ओए- ओए, गजब ढा रही हो" दूसरा"अरे! भाई क्यों अकेले -अके रात गुजार रहे हो। कभी हमें भी मौंका दो"। "तीसरा - भाभी जी यह सामान में लगा दूँ क्या? जरुरत नहीं है - सोनाली ने कड़क आवाज और आँखे दिखाते हुए कहा। इतने में दुकानदार गाली देते लड़को के पीछे दौड़ता है"ऐ सालो, डंडा पकड़ूँगा अगर मेरी दुकान के आस-पास आये तो, तोड़ दूँगा टाँगे सालो की बड़बड़ाते हुए लड़को को दूर तक खदेड़ आया। "पर उसका बड़बड़ाना अभी भी जारी था।"कमीनों मरो अपनी अम्मा पर। गुस्से में रिक्शे वाले से बोलता है तेरे हाथ टूट गये हैं, चल सामान रख। और घर तक ठीक से छोड़ कर आना। "भईया आपका बहुत - बहुत शुक्रिया। यह तो आवारा हैं। इनका तो रोज का यही काम है। हाँ, बेटी, इनका तो काम ही है इस दुकान उस दुकान चौराहे पर खड़ा होना। गालियाँ खाकर ही जाते हैं यह। गालियाँ खाये बिना इनकी रोटी, हजम नहीं होती। दीदी सामान रख गया आपका आप भी बैठ जाइये रिक्शे वाला आवाज लगाता है।
