घर के बड़े लड़के
घर के बड़े लड़के
हम घर के, बड़े लड़के, शुरू से ही अपेक्षाओं के नीचे दब जाते हैं।
छोटे भाई -बहन से न लड़ने की जिम्मेदारी हमारी होती हैं।
फिर चाहे हमारी उम्र दो वर्ष ही क्यों न हो।
हमारा त्याग भी बचपन से शुरू हो जाता है,कभी छोटों के लिए खिलौने छोड़ना, तो कभी कपड़े छोड़ना, यहाँ तक की रूठना भी और तो और हमारी जिद्द भी सरकारी हो जाती है।
थोड़े बड़े हुए तो पढाई में भी नम्बर वन की अपेक्षा,खेल, विनम्रता यहाँ तक कि खाने पीने का सलीका ,बड़ो का आदर सब में ऩबर वन की अपेक्षा हमीं से होती है।
बात -बात में कह दिया जाता है यह तुम्हारे बस का नहीं,
कुछ अपने भाई से सीखों, वो पड़ोसी का बच्चा तुमसे अच्छा है।
कुछ कर लिया करों क्या जीवन ऐसे ही बिताना।
पढ़ लिखकर अपनी राह चलनी शुरू किया कि बीच में ही पैसों की तंगी मुँह बाएँ खङी हो गई।
छोड़ सपना -अपना नई राह पकड़ ली।
अब उम्र इक्कीस की हो गई घर से निकल, घर की जिम्मेदारी हो गई।
कल भी समझदारी हम पर थी और आज भी ।
बहन की शादी कि चिंता, भाई के शिक्षा का प्रबंधन,माँ की बीमारी बाबूजी की झुकी कमर ने हमें समय से पहले ही बड़ा कर दिया।
हम घर के, बड़े लड़के जीवन भर अपेक्षा के नीचे दब जाते है।।