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Nisha Singh

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Nisha Singh

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टाइम ट्रेवल (लेयर-1)

टाइम ट्रेवल (लेयर-1)

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सुबह के करीब 7 बज रहे थे। फरवरी का महीना था, शायद आख़िरी हफ्ता। आती हुई गर्मी और जाती हुई सर्दी के मौसम ने पूरे शरीर को आलस से भर दिया था। पर फिर भी मुझे कहीं जाना था। बस अड्डे पर खड़ी अपनी बस का इंतज़ार करते करते कभी मैं उगते हुए सूरज को देखती तो कभी वो मुझे। कभी मैं उससे सवाल करने लगती तो कभी वो मुझसे। पर नतीजा कुछ नहीं निकल रहा था। वो भी मेरे सवालों के जवाब देने में नाकाम था।

कितनी अजीब बात है ना, यूं तो हम अपने बीते कल की तरफ़ देखते नहीं क्योंकि वक़्त नहीं होता। अब आने वाले कल की परवाह करें या बीती हुई बातों को सहेजें ? लेकिन जब भी मैं बीते वक़्त में झांक कर देखती हूँ तो हज़ारों हज़ार सवाल उठ खड़े होते हैं। ऐसा क्यों हुआ ? वैसा क्यों हुआ ? ये फैसला क्यों लिया ? उस निर्णय का विरोध क्यों नहीं किया ? वगैरह वगैरह... ऐसे ही कई सवाल हमें जकड़े रहते हैं। पर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाते ना हम ना ये सवाल।

अपने अंदर चल रहे अंतरद्वंद को को शांत करने और बीते हुए कल से सवाल करने मैं अपने घर से निकल चुकी थी। जानती थी कि जो करने जा रही हूँ सिवाय पागलपन के और कुछ नहीं है लेकिन फिर भी मुझे भरोसा था कि इन सवालों की आग को शांत करने वाला पानी कहीं ना कहीं मिलेगा ज़रूर।

‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या ?’

मेरे फोन की स्क्रीन पर मेसेज चमका। मेसेज मेरे अज़ीज़ दोस्त आदित्य का था।

‘क्यों ?’

‘ये क्या नया पागलपन है ?’

‘पागलपन नहीं है।’

‘पागलपन ही है। जैसा तुम सोच रही हो वैसा नहीं हो सकता। एक तो तुम बेकार की बातों में उलझी हो उस पे भी तुम्हें अब उन लोगों से मिलना है जो इस दुनियाँ में ही नहीं हैं। पागल मत बनो। जब ज़िंदा लोगों के पास तुम्हारे किसी सवाल का जवाब नहीं है तो मरे हुए लोगों के पास क्या ख़ाक होगा... ’

मैंने उसके मेसेज का कोई रिप्लाई नहीं किया क्योंकि मैं जानती थी कि मैं कहीं से कहीं तक गलत नहीं हूँ।

मेरी बस आ गई थी। इस बात से अंजान कि मेरा ये सफ़र अंग्रेज़ी वाला सफ़र सबित होगा मैं खुशी खुशी अपने इस सफ़र की शुरुआत भी कर चुकी थी। अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ाये अपने पहले कदम से जहाँ एक तरफ़ मैं खुश थी वहीं दूसरी तरफ़ अपने सफ़र के अंजाम को लेकर थोड़ी आशंकित भी थी। सच कहूँ तो मेरे मन का हाल आसमान के आंगन से निकली बारिश की उस बूँद की तरह था जो ये नहीं जानती कि किसी फूल से मिल कर निखर जायेगी या तपती रेत से मिल कर बिखर जायेगी।

शाम होने को थी। सफ़र में काफ़ी वक़्त बीत चुका था। भूख और प्यास दोनों में विवाद चल रहा था कि इस वक़्त किसका अधिकार मुझ पर ज़्यादा है।

“क्यों ? कया हुआ ? बस क्यों रोक दी ?” बस के अचानक रुकने पर मैंने ड्राइवर से पूछा।

“बस खराब हो गई है मैडम। दो घंटे लग जायेंगे ठीक होने में। अगर चाय-वाय पीना हो तो पास में ही ढाबा है।” कह कर वो अपने काम में व्यस्त हो गया।

 अपना बैग पीठ पर टांगे मैं ढ़ाबे की तरफ़ चल पड़ी थी। पूरी तरह सुनसान तो नहीं कह सकते पर इस रास्ते पर लोगों की आवाजाही कम थी। प्यास के मारे मेरा गला तो पहले से ही सूख रहा था अब चल रही थी तो लग रहा था कि कहीं गिर ही ना पड़ू। और वही हुआ, मेरी आँखों के आगे अचानक अंधेरा छाया और मैं बेहोश हो गई।

होश में आई तो देखा कि मैं एक पेड़ के नीचे लेटी हूँ। ये जगह ये रास्ते बिल्कुल वो नहीं जहाँ मैं बेहोश हुई थी। सब अलग था, बिल्कुल ही अलग। हाथ में डंडा लिये एक सांवले से रंग का आदमी लगातार मुझे घूरे जा रहा था ।

“कौन हो तुम ? कया चाहिये ?” मैंने पूछा।

“तुम कौन हो ? तुम्हें क्या चाहिये ?” सख़्त लहज़े में उसने पूछा।

इससे पहले कि मैं कोई जवाब दे पाती, कुछ दूर से आती हुई एक और आवाज़ सुनाई दी।

“क्या हुआ ? कौन है वहाँ ?”

अब मेरे सामने साधु संत जैसा कोई व्यक्ति खड़ा था। उम्र का अंदाज़ा तो मैं नही लगा सकी लेकिन उनके चेहरे के तेज़ से लगता था कि ये कोई साधारण इंसान तो नहीं हैं। मेरे सामने खड़े वो मेरे माथे पर कुछ ढूढ़ रहे थे और उनकी आँखों से लग रहा था कि जो वो तलाश रहे थे उन्हें मिल गया है।

“लगता है तुम भी सभ्यता भूल गये हो।” उन्होंने उस सांवले इंसान से कहा “ये महाराज की वंशज हैं।”

“राजकुमारी जी की जय हो...” कहते हुए वो मेरे सामने झुका और तुरंत ही चला गया।

“राजकुमारी ?ये मुझे राजकुमारी क्यों कह रहा था ? और मैं यहाँ कैसे आई ? और आप कौन हो ?” मेरे मन में जितने सवाल आये मैंने एक साथ दाग़ दिये।

“लगता है तुम्हारे प्रश्न और बढ़ गये हैं।”

“आपको ये कैसे पता ?” मैंने आश्चर्य से पूछा।

“यहाँ से सीधे सीधे चलती चली जाओ। वहीं छिपे हैं सारे उत्तर।”

“पर आप कौन हो ?”

“ये भी उन्हीं से पूछ लेना जो तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर दें।” कहते हुए वो अपने रास्ते पर आगे बढ़ गये और मैं उस रास्ते पर जो उन्होंने मुझे दिखाया था।


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