तिरंगे पर श्राद्ध
तिरंगे पर श्राद्ध
कल शाम मोबाइल की घंटी बजी, तो पहली बार में तो फोन उठा ही नहीं पाया। ये स्पर्श की कॉल थी। मन पर थोड़ा ढाँढस बंधा, तो थोड़ी देर बाद मैंने खुद ही पलट कर कॉल की। फोन पर उसकी आवाज सुनने के बाद मैं क्या बोलूँगा, मुझे ज़रा भी नहीं पता था। पर उससे बात नहीं करता, तो और किससे करता ? एक मुझे ही तो वो दिल से दोस्त मानता था, जो कितनी बार उसने खुल्लमखुल्ला ज़ाहिर किया था। बाकी सब उसके लिये बस इंसानियत के रिश्ते थे। मेरे मन में घुमड़ती गुत्थमगुत्था के बीच उसकी आवाज कानों में पड़ी-
“हाय, आशीष! कैसे हो ?”
ये वही जानदार आवाज़ थी, छुट्टी पर घर लौटकर आने की पूरी उमंग के साथ।
अभी महीने भर पहले ही तो माँ का स्वर्गवास हुआ था। सीमा पर जाने कौन सी तैनाती थी उसकी कि हफ़्ते भर तक तो ख़बर ही नहीं पहुंची। जब खबर पहुँची, तो छुट्टी मिलने में इतना वक़्त लग गया कि अब घर पहुँच पाया था। मैं तो सोच रहा था, आवाज़ में जो उदासी होगी, उस पर किस तरह कोई प्रतिक्रिया दूँगा मैं। पर ये तो वही हमेशा वाली ही आवाज़ थी, जिसके ऐवज़ में ये रुख लाज़िमी था-
“मैं कैसा हूँ, बाद की बात है। तुम कैसे हो ? कब आये ? पिताजी के क्या हाल हैं ? और बीवी बच्चों के हाल ? सब ठीक ?”
मेरे सवाल शायद असर कर गये थे। उसकी आवाज़ में अब फुसफुसाहट थी-
“मेरे बदले लहज़े से ही कहीं पिताजी को घर का ये नया अकेलापन महसूस न होने लगे, इसलिए मैं परेशान नहीं हूँ। बीवी-बच्चों के जो सवाल हैं, उनका भी सबसे बेहतर इलाज यही है कि खुद परेशान न दिखकर सबको इन थोड़े दिनों के लिये थोड़ा सा खुश रख लूँ। बाकी, जो उन सबके साथ बाँट नहीं सकता, उसके लिये हो सके, तो तुम घर आ जाओ।“
स्पर्श की ये आवाज़ एक बार फ़िर मेरे हृदय को स्पर्श करके गयी थी। “अभी आता हूँ” कहकर मैंने फ़ोन रख दिया था। फ़िर कुछ ही पलों में मैं तैयार होकर उसके घर की तरफ़ चल भी पड़ा था। पर उस वक़्त मेरे कदमों से ज़्यादा मेरे दिमाग में बड़े सीधे-सीधे सवाल चल रहे थे-
“जिनकी ज़िन्दगी सरहद के सैलाबों से तिरंगे में लिपट जाती है, उन्हें तो खूब श्रद्धांजलि दी जाती है। ये उनका हक़ भी होता है और हमारी ज़िम्मेदारी भी ! पर जो इस तरह साँसों का बलिदान करके शहीद नहीं हो पाते, उनकी हर दिन, हर पल की शहीदगी का क्या ? एक बार जो घर वाली ने कोई सवाल पूछा, जवाब की जरूरतमंदिता हर शादीशुदा बड़े अच्छे से समझता है। पर सरहद की रखवाली पर तैनात सिपाही के पास भला क्या जवाब होता है ? वो भला क्या बताये बच्चों को कि अगली होली पर या अगली दीवाली पर कैसे आयेगा वो उन सबके पास ? ठीक आज जैसे मुस्कुराते हुये, या फिर श्रद्धांजलि लेने के लिये तिरंगे में लिपटकर !”