Ashish Anand Arya

Tragedy

4  

Ashish Anand Arya

Tragedy

लाल.. सुर्ख.. होली..

लाल.. सुर्ख.. होली..

4 mins
500


अभी कल ही तो होली का त्योहार निकला था। आज रेलगाड़ियों में भीड़ का ये सैलाब उमड़न बिलकुल लाजिमी था। जो दूसरे शहरों में काम करते थे और होली के लिये अपने नाते-रिश्तेदारों के पास अपने शहर, अपने घर आए थे, सभी को काम पर वापस लौटने की जल्दी थी। प्लेटफॉर्म पर खड़ी पूरी की पूरी रेलगाड़ी खचाखच भर चुकी थी। क्या जनरल बोगी और क्या रिजर्वेशन की स्लीपर बोगी, सब बोगी एक समान। ए सी बोगी में सीट के बारे में सोच पाना आम आदमी के लिये तो सपने जैसा ही था। पर आदमी मरता, क्या न करता! काम सभी के थे। जल्द से जल्द लौटना सभी की मजबूरी थी। सभी अपनी हर संभव जुगत लगाने में जुटे पड़े थे।

जब तक गाड़ी प्लेटफॉर्म पर खड़ी रही, जैसे-तैसे क्या-क्या न कर के लोगों ने बोगियों में अपने लिये जगह बनाना जारी रखा। सामान रखने की ऊँची-ऊँची सीटों पर भी लोगों ने किसी न किसी तरह अपना आसान जमाकर यात्रा का इंतजाम कर डाला। कुछ लड़कों ने तो मिलकर बोगी के दरवाजे को बंद कर दिया और उसके पीछे अपना सामान जमा दिया। सामान के ऊपर चादरें बिछाकर उन्होंने तो वहीं रास्ते में एक सोने का बिस्तर तैयार कर दिया। और फिर इन्हीं हालातों में रेलगाड़ी ने पटरियों पर सरकना शुरू कर दिया। 

करीब-करीब दो घंटे की यात्रा के बाद रेलगाड़ी अगले पड़ाव पर रुकी। जिस दरवाजे के पीछे सामान का बिस्तर बनाकर लड़के नींद में एकदम धुत डूब चुके थे, उस पर दस्तक देकर कोई उसे बाहर से खुलवाने की कोशिश कर रहा था। एक लड़के ने आँखें मलते हुए खिड़की पर बंद शीशा थोड़ा ऊपर किया। करीब छः-सात लोग बाहर सामने खड़े थे। लड़के ने झिड़कते हुए पूछा-“क्या हुआ? दरवाजा तोड़ने का इरादा है क्या?”“खोलोगे नहीं, तो तोड़ना ही पड़ेगा।” बाहर खड़े होकर जवाब देने वाले लड़के की आवाज में झल्लाहट थी। ये जवाब सुनते ही अंदर लेते लड़के को भी ताव चढ़ गया। बड़े गुस्से में वो बड़बड़ाया-“जाओ, नहीं खोलता। कर लो, क्या कर लोगे!” और अपनी बात कहकर आँखें बंद करके लेट गया।

“रिज़र्वेशन है मेरा अंदर।” बाहर से आए अगले इस जवाब पर फिर कोई प्रतिक्रिया न हुई।

रात के दो बज चुके थे। बूढ़े माँ-बाप, बीवी और दो छोटे बच्चों के साथ वो गाँव के अंधेरे भरे प्लेटफॉर्म पर खड़ा था। दरवाजा खुलवाने की कोशिश करते-करते अब गाड़ी छूटने का वक़्त भी हो आया था। पूरे परिवार का सारा सामान अभी नीचे जमीन पर ही पड़ा था। और फिर रेलगाड़ी का भोंपू गूँजा। दूर गार्ड के हाथों में हरी रोशनी हिलती दिखायी दी। रेलगाड़ी के पहिये एक हल्के से झटके से घूमने लगे। अभी तक दरवाजा खुलवाने की कोशिश में जुटा वो लड़का आखिर चिल्ला पड़ा-“अरे सुनो! कोई तो खोलो। मेरा रिज़र्वेशन है अंदर। घर बेचकर आया हूँ। भाई के इलाज के लिये कल ही पहुँचना है। गोविंदा बना था। मटकी नहीं फोड़ पाया। डॉक्टर ने बोला है, जल्दी ऑपरेशन नहीं हुआ, तो बचेगा नहीं। मैं पहुँच कर रकम दूँगा, तभी इलाज़ शुरू हो पायेगा। सुनो, बस एक बार दरवाजा... ...” वो बस बोलता जा रहा था। उसे नहीं पता था, उतनी रात वो चिल्ला-चिल्ला कर किसे क्या सुना रहा था। इसी दौरान पटरी पर सरकने लगी रेलगाड़ी की एक बोगी के दरवाजे की आड़ से उसे एक रोशनी झाँकती दिखायी दी। शायद वो दरवाजे को धक्का देकर अंदर जा सकता था। वो फौरन ही लपक पड़ा। कंधे पर एक बैग डालकर उसने दौड़ते-दौड़ते एक हाथ से हैंडल पकड़ा और लगभग बोगी से लटकते-लटकते दूसरे हाथ से दरवाजे को धक्का दिया। बोगी में अंदर की तरफ़ जमीन पर लेटे एक आदमी के पाँवों को धक्का लगा, तो उसने भी दरवाजे को वापस धकेल दिया। खुलकर वापस बंद होते दरवाजे को चोट ऐसी जोरदार थी, लड़के के हाथ से एकाएक भरभराकर खून निकलने लगा। दर्द की टीस से बिलखकर वो जमीन पर गिर पड़ा। जमीन पर गिरते हुए बदन कुछ यूँ लड़खड़ाया, लड़के की उँगलियाँ पटरियों पर आ गयीं। एक पल न लगा रेलगाड़ी के भारी-भरकम पहियों ने उँगलियों की हड्डियों तक को चकनाचूर रौंद डाला। आँखों से धार बाँध कर बह पड़े आँसुओं के साथ वो बस एक बार ही पीछे खड़े परिवार को देख पाया। उसके बेसुध होठ धीरे से बस इतना ही बुदबुदा पाये-“मेरा तो रिज़र्वेशन था न!”


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