ऐ वतन… हमको तेरी कसम…
ऐ वतन… हमको तेरी कसम…
“काश, इन गिरती आसमानी बिजलियों को रोकना भी इतना आसान काम होता!”
लगातार ऊँचे आकाश पर निगाहें टिकाये रत्नेश के होठों पर ये बिल्कुल लाज़िमी सवाल था। कई साल फ़ौज की सेवा में गुज़ारने के बाद अब तो उसे जैसे हर काम को ही चुटकियों में खत्म कर डालने की आदत हो गयी थी। पर ये सब तो जैसे कुदरत का कहर था, जिस पर उस जैसे किसी का कोई बस न था।
शाम ढलने को हो आयी थी। रात का अंधेरा आसमान को अपने काले रंग से गहराने पर उतारू था। और उसी बीच मानसूनी बारिश और कड़कती आसमानी बिजलियों का वो रोज़ का सिलसिला एक बार फ़िर से शुरू हो चुका था। इस मानसून और इसी बारिश का तो वहाँ जैसे हर किसी को ही इंतज़ार था, पर रत्नेश को कतई नहीं। क्योंकि उसका इंतज़ार तो कुछ और ही था। और इस इंतज़ार में आड़े आने जा रही थी ये लगातार घिर रही बारिश।
इतने साल फ़ौज में गुज़ारने के कारण न तो रत्नेश के पास अमीरों जैसा अपनी गाड़ी रखने लायक पैसा था, और न ही ऐसी कोई जान-पहचान कि कोई एक बुलावे पर उसकी मदद को आ जाये। पर ये घड़ी ही ऐसी थी कि किसी भी घड़ी इस बड़ी मदद की ज़रूरत पड़ सकती थी।
और फिर जाने क्या हुआ, उधर घर के भीतर मासूम को जन्म देने से पहले होने वाली प्रसव पीड़ा से से पत्नी विशाखा ने चीखना शुरू किया, इधर आसमान में मद्धम बारिश के बीच जोरों से बिजली कड़कड़ाते हुए जाने किधर को कौंधी, और रत्नेश कुछ सोच पाता कि मदद के लिये किसको पुकारे, उतनी ही देर में पड़ोस के घर में आये एक मेहमान ने अपनी कार लाकर रत्नेश के दरवाजे पर खड़ी कर दी।
आनन-फानन में ही सब इतनी आसानी से इतना जल्दी हुआ कि रत्नेश को जैसे भरोसा ही नहीं हो रहा था कि अभी वो सपत्नी आर्मी-अस्पताल के लेबर रूम के सामने खड़ा था। और अब मन के हालात एकदम से बदल चुके थे।
अब रत्नेश बस ख्यालों की उड़ान में था। मनचला मन अब तो बिल्कुल संभाले नहीं संभल रहा था। आखिर ये मौका ही ये ऐसा था! वो, जिसे बिना देखे, बिना सुने, बिना जाने, बस उसके ज़िंदगी मे आने की आस से वो और विशाखा जाने कब से कितना-कितना प्यार किये जा रहे थे, दोनों के उस इंतज़ार के आखिरकार खत्म होने की घड़ी आ ही गयी थी।
हॉस्पिटल में लेबर रूम के सामने खड़े होकर बस दिल की धड़कने जोरों से धक-धक किए जा रही थी। टेलीफोन पर खबर देकर दूसरे घर में रहने वाले माँ-पापा और उसी शहर में रहने वाले साले साहब को भी रत्नेश ने अस्पताल में बुलवा लिया था। और फ़िर धीरज की मूर्ति बने उन तीनों लोगों के साथ खड़ा ये चौथा व्यक्ति रत्नेश जैसे एकदम अधीर हो चला था।
ऑपरेशन के लिये सात साल पहले श्रीमती बनीं विशाखा जी को अन्दर ले जाया जा चुका था। तो, पिछले इतने महीनों से आने वाली इस अनमोल खुशी को महसूस करने वाले दो में से एक व्यक्ति को ऑपरेशन थियेटर के अन्दर जा चुका था और दूसरा व्यक्ति उस ऑपरेशन थियेटर की गैलरी के ठीक सामने दरवाजे के पास खड़ा, मानो बस अपने दिल में पूरा कैद होकर, बस जोरों से धक्क-धक्क करके ऊपर से नीचे तक पूरा धड़कता ही रहा था।
ऑपरेशन थियेटर के सामने उस लम्बी सी गैलरी के एक कोने पर वो गणेश भगवान की मूर्ति, उस वक़्त किसी बड़े मन्दिर के प्रकाण्ड-ओजस्वी इच्छापूरक भगवान से ज़रा कम दर्जे की न थी। इसका सबूत ये था कि रत्नेश हर सेकण्ड पर खुद के आपे से बाहर जा रही हर धड़कन के बावजूद, उनके सामने लगातार टहलते हुए, अब तक कम से कम दस बार तो रूककर, उनके सामने हाथ जोड़ ही चुका था। इससे पहले मन्दिर वो कितनी बार, किस मतलब से गया था, इसे तो केवल विशाखा ही जानती थी, जो इस वक़्त खुद ऑपरेशन थियेटर के अन्दर थीं। हाँ, मन्दिर के भगवान जी से कैसे, क्या माँगा जाता है, आज भी रत्नेश को उतना नहीं आता था, तो बस भगवान जी के सामने खड़े होकर, हाथ जोड़कर हर बार बस इतना ही बोला था कि भगवान जी, मेरी विशाखा और मेरे पिकाचू को जल्दी से अब बस मेरे सामने ले आयें।
‘पिकाचू’ नाम ही ज़ेहन में आते ही रत्नेश के बदन में अन्दर तक जाने कितनी तरह की उमंग-तरंग दौड़ उठी थीं। जब उसने माँ की कोख के भीतर से पाँव चलाने शुरू किये थे, तब उसे ये नाम दिया था, उसकी मासी ने। रत्नेश ने भी सुना था ये संबोधन और तभी से उसका नामकरण हो गया था… पिकाचू।
अब उससे जितनी भी बातें होतीं, सब उसके पिकाचू नाम के साथ ही होतीं। हाँ, रत्नेश को तो अभी भी नहीं पता था, कैसा होगा मेरा ये पिकाचू? लड़का होगा, या लड़की होगा? कितना प्यारु होगा, कितना ज़िद्दी होगा, पर जो भी होगा, उसे तो आना ही था मेरे पास। उसे आना था, अपने माँ-पापा के बीच उनकी ज़िन्दगी का प्यार बनकर। और बस इसी इंतज़ार में रत्नेश लगातार धीमे-धीमे कदमों से टहलता जा रहा था। इसी बीच माँ जी एक आवाज़ भी कानों में पड़ी-
“बैठ जाओ, क्यों यूँ चक्कर लगाये जा रहे हो?”
इस एक आवाज़ के जवाब में करीब खड़े साले साहब मुस्कुराये और उन्होंने कुछ कहा भी, पर कुछ भी उसकी समझ में नहीं आया, क्योंकि उस समय दिमाग और दिल दोनों ही कहीं और ही ठहरे हुए थे।
फ़िर, बस कुछ ही देर में एक आवाज़ और पड़ी कानों में! ये आवाज़ कानों के भीतर गयी थी, क्योंकि ये ऑपरेशन थियेटर से गैलरी में आने का दरवाजा खुलने के बाद आयी थी-
“विशाखा के साथ कौन हैं? टॉवेल ले आइये।”
इस आवाज़ के बाद दो-चार मिनट, छः-आठ मिनट, क्या कैसे गुज़रे, कुछ पता नहीं। बस इतना पता था, भारी-भारी साँसें अन्दर आ रही थीं, जिनको बस और बस किसी को देखने का इंतज़ार था। और इसके बाद, एक बार फ़िर से वही दरवाज़ा खुला और आवाज़ आयी-
“बधाई हो। देखिये, लीजिये गोद में। कौन लेगा?”
रत्नेश के तो हाथ-पाँव सब फूले हुए थे, माँ जी आगे बढ़कर लिया गोद में उसे और तब उनकी आवाज़ से पता चला-
“बधाई हो, लक्ष्मी जी आयी हैं घर में!”
एक बार चेहरा देखा उसका। अपनी पिकाचू का चेहरा। पाउडर की एक सफ़ेद पर्त में लिपटी हुई अपनी उस बेटी पिकाचू का चेहरा! और जब रत्नेश ने देखा, वो उसे देख रही थी, पहली बार खुली हुई आँखों से वो अपने इस पापा को देख रही थी। फ़ौरन जेब से मोबाइल निकालकर झट से फ़ोटो खींच ली उसकी, क्योंकि नर्स ने बता दिया था, उसे अभी जाना है। चूँकि अभी-अभी माँ की कोख से निकलकर बाहर की दुनिया में आयी थी, इसलिए उसे थोड़ा आराम चाहिए था। उसे थोड़ा वक्त इस नये वातावरण से सामंजस्य बिठाने के लिए चाहिये था। वातानुकूलित किये गये आई सी यू के कमरे के भीतर उसे रखने की बात कही गयी थी, इसीलिए बस एक चुप्पी से रत्नेश ने खुद को देखते हुए उसकी दो ठो फ़ोटो खींच लीं और सुकून के इस एक बेपनाह प्यारे लम्हे के बाद पल भर में ही सबकुछ वैसा हो गया, जैसा हर आम ज़िन्दगी में होता है।
रत्नेश अब जैसे ही अस्पताल की और ज़रूरी कार्यवाहियों में व्यस्त होने जा रहा था, एक बार फिर से बड़ी जोरों से बिजली कड़की। वहीं करीब की खिड़की से उसने देखा, उसे और पत्नी को वहाँ लेकर आने वाला अनजान शख्स अपनी कार को मोड़कर वापस जाने को निकाल पड़ा था। खिड़की से ही रत्नेश ने देखा, कार के पीछे लिखा हुआ था ‘इंडियन आर्म्ड फोर्सेस’! ये वो घड़ी थी, जिस पर भर आयी आँखों के साथ रत्नेश ने आसमान की ओर देखते हुए, एक सैल्यूट करते हुए जोर से कहा-
“जय हिंद की सेना…”