Ashish Anand Arya

Tragedy Classics Thriller

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Ashish Anand Arya

Tragedy Classics Thriller

खामोश झनकार

खामोश झनकार

15 mins
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वो कमरे में रहती और कमरे का दरवाजा बाहर से बंद होता। उसके कानों में लगातार आवाजें पड़ती रहती थीं। सुनने में वो आवाजें उसको बड़ी अच्छी लगतीं। उसने कई बार माँ से उन आवाजों के बारे में पूछा भी। पर माँ ने हर बार उसे टाल दिया। दिन के वक्त माँ कई बार कमरे से बाहर जाती। पर कभी भी वो उसे अपने साथ बाहर नहीं ले गयी। जाते वक्त माँ हर बार कमरे को बाहर से बेलन लगाकर, ताला बंद कर के जाती थी।

प्रभा को ये सब बातें तब पता चलीं, जब माँ की जी-तोड़ कोशिशों का नतीजा अपने खूबसूरत रंग में उसकी आँखों के सामने था। मासूम हाथों में चाबी थमाते हुए माँ बोली-

‘‘बेटी! ये है तुम्हारा घर। तुम्हारा अपना घर, जिसमें जब जी चाहे और जिधर जी चाहे, तुम जा सकती हो। पूरा दिन तुम अंदर-बाहर कहीं भी रह सकती हो। जब मन करे, तुम खुद से बाहर जाकर घूमकर आ सकती हो। यहाँ किसी तरह की पाबंदी लगाने वाला कोई नहीं होगा। कोई नहीं रोकेगा। कोई नहीं टोकेगा तुम्हें।"

माँ के साथ नये घर में कई साल गुजार लेने के बाद प्रभा को गुजरे कल की सच्चाई धीरे-धीरे पता चली। वो आवाज, जो बंद कमरे के भीतर से उसे बड़ा भाती थी, वो कुछ और नहीं, बल्कि उसकी खुद की माँ के पैरों में बंधे घुँघरूओं की आवाज थी।

माँ कब और कैसे उन घुँघरूओं की गिरफ्त में पहुँची, इस बात को तो लाख पूछने पर भी, जवाब उसने कभी प्रभा पर जाहिर होने नहीं दिया। हाँ, उस गंदगी से निकल कर, इज्जत के आसमान तले आने में जो भी अड़चनें आयीं, उन सभी को माँ ने पूरे ईत्मीनान से प्रभा को बताया। किस तरह वो अपनी बेटी के लिए अकेले समाज से लड़ती रही, वो सब जानना प्रभा के लिए बड़े गर्व की बात थी। आखिर माँ की मेहनत ने रंग दिखाया और प्रभा को अच्छी शिक्षा, अच्छे संस्कार और इज्जत की जिंदगी जीने का हक मिला।

माँ के बलिदानों से प्रभा के पास जीने के लिए साफ-सुथरी एक खूबसूरत जिंदगी थी। लेकिन एक बात अक्सर प्रभा को अंदर ही अंदर काफी परेशान करती थी। घुँघरूओं की आवाज के बीच शुरू हुआ उसका बचपन जाने-अनजाने, न जाने कब संगीत से एक गहरा नाता बना बैठा था। माँ आज अपने जिस हुनर से डरती थी, बेटी उसी हुनर से जिंदगी में कुछ कर दिखाना चाहती थी। मन में भरी असहजता को प्रभा ने आखिरकार एक दिन माँ पर जाहिर कर ही दिया। और फिर बेटी की इच्छा पर माँ का हौसला देखने लायक था। प्रभा की खुशी के लिए माँ ने खुद ही बेटी को संगीत और नृत्य की शिक्षा देनी शुरू की। माँ से अच्छा गुरू भला और कौन साबित होता! विद्यालय में आयोजित हुए प्रतिभा-कार्यक्रमों में भाग लेकर प्रभा चंद ही महीनों में शहर की जानी-मानी कलाकार बन गयी।

उम्र के साथ-साथ प्रभा के गुणों की साख भी बढ़ती गयी। अपने प्रदर्शन से प्रभा ने कुछ ऐसा नाम कमाया, शहर के माने हुए पुजारी जी के घर से प्रभा के रिश्ते का हाथ माँगा गया। इतने बड़े घराने में रिश्ते की बात सुनकर शुरू-शुरू में तो प्रभा की माँ एकदम डर गयी। पर धीरे-धीरे कुछेक जान-पहचान वालों और शुभचिंतकों के समझाने पर माँ ने रिश्ते की बात को आगे बढ़ाने का फैसला किया। शादी जैसे नाजुक रिश्ते के मामले में अगर शुरूआत सच्चाई से न हो, तो नतीजा कितना बुरा हो सकता है, ये प्रभा की माँ की अपनी सोच थी। उसने रिश्ते की बात के लिए मुलाकात करने आये पुजारी जी से साफ-साफ अपना अतीत बता दिया। पति का अपना सगा कोई न था। एक लंबी बीमारी के बाद जब वे चल बसे, प्रभा का पेट भरने तक का कोई साधन उसके पास न था। नाचने-गाने की अपनी कला के जरिये से किस तरह उसने अपना और अपनी बेटी का पेट भरा, मुश्किलों का सामना करने की ये कहानी बहुत लंबी थी।

प्रभा की माँ की बातें सुनते-सुनते पुजारी जी के माथे पर गहरे बल पड़ गये। अपनी कहते-कहते जब वो रूकी, उसे ज्यादा आस न थी। परंतु प्रतिक्रिया उसकी आस से उलट थी। पुजारी जी कहने के लिए अपनी जगह से उठ चुके थे-

‘‘जाति, धर्म को आज लोग किस तरह निभाते हैं, इस तथ्य से मैं भलीभाँति परिचित हूँ। प्रभा बिटिया को मैंने पहली बार भगवान के एक नाट्य-कार्यक्रम में देव-नर्तकी का चरित्र निभाते देखा था। भगवान के प्रति जो भाव उसके चेहरे पर थे, मैं वहीं से पहचान गया था, उसका हृदय विचारों पर कितना शुद्ध और पवित्र है। आचरण की उसी सौम्यता को देखते हुए मैंने आपकी पुत्री का हाथ अपने पुत्र धर्मेश के लिए माँगा था। और आज आपसे मिलकर मुझे ऐसा लगा कि मेरा यह निर्णय कतई गलत नहीं था। तो फिर अब यदि आपको कोई परेशानी न हो, तो विवाह के लिए शुभ मुहूर्त निकाला जाये।‘‘

प्रभा के विवाह के लिए एकाएक ही सबकुछ इतना सकारात्मक होता गया, ऐसा कुछ होने की आस भी नहीं लगायी जा सकती थी। बड़े धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ। और फिर नियत समय पर प्रभा अपने मायके से ससुराल के लिए विदा हो गई। प्रभा के घर से जाने के बाद उसकी माँ एक बार फिर से एकदम अकेली रह गयी। उस माँ को तो लंबे चले आये अतीत से ऐसा जीवन व्यतीत करने की आदत थी। पर प्रभा के लिए तो अचानक से ही परिवार का मतलब एकदम बदल गया था। पति के साथ ही सास-ससुर, जेठ, देवर, ननद, भौजाई इतने सारे रिश्ते एक साथ उससे जुड़े थे, उन सभी के साथ उसे घर की बहू होने का धर्म निभाना था। इसमें थोड़ा समय जरूर लगा, पर प्रभा ने साबित किया कि उसकी माँ की दी शिक्षा और उसके ससुर जी का उसे बहू बनाने का फैसला कतई गलत नहीं था।

नये परिवार के बीच प्रभा ने अपने स्त्री-धर्म को बखूबी निभाया। सास-ससुर की सेवा, देवर-ननद के लिए ढेर सारा प्यार, जेठ-भौजाई का सम्मान करते हुए गृहस्थी का काम निपटाने में उसने कभी कोई कोताही नहीं बरती। ऐसी शालीन पत्नी पर पति ने भी खूब प्यार लुटाया। और फिर शादी के एक साल बाद प्रभा ने पूरे परिवार को खुशखबरी दी कि उनके वंश का अंकुर उसकी कोख में है। तय समय पर खुशखबरी ने घर में साकार रूप लिया और वो भी अकेले नहीं, दोगुने रंग में। प्रभा ने जुड़वाँ संतानों को जन्म दिया था, एक लड़का और एक लड़की। पति धर्मेश इससे बहुत खुश था। परंतु उसे एक और लड़के की चाह थी। चाहत को पूरा करने की कोशिश करते-करते प्रभा ने दो और लड़कियों को जन्म दिया। चार बच्चों के संग पूरे परिवार की खुशियाँ देखकर प्रभा खुश थी। पर इन्हीं खुशियों के बीच कई बार उसे महसूस हुआ, जैसे ये खुशियाँ उसे खुश रखने के लिए काफी नहीं।

इतने बड़े परिवार को संभालते-संभालते प्रभा कई बार इतना थक जाती, अपने पैरों पर खड़ा रहना उसके लिए मुश्किल हो जाता। ज्यादा न बन पड़ता, तो थोड़ा सुस्ताने, आराम करने के इरादे से वो जाकर बिस्तर पर लेट भी जाती। पति धर्मेश को शुरू से कम बोलने की आदत थी। पत्नी को लेटा देखकर, वो उसे आराम करने देना ही उचित समझते। पिता की तर्ज पर बच्चे भी आँख बंद करके लेटी माँ को जरा न छेड़ते। आँखें बंद किये लेटी प्रभा के जेहन में रह-रह कर गुजरे कल की तस्वीरें उमड़ने लगतीं। वो भी एक वक्त ही था, जब वो अगर पल भर को भी अपनी आँखें भींचती, चार-छः लोग पूछने के लिए इर्द-गिर्द आकर खड़े हो जाते कि क्या परेशानी है? हर किसी के पास सवाल होता, आखिर हो क्या गया कलाकारा-नर्तकी को, जो वो ऐसे चुपचाप बैठ गयी। एक वो दिन था और एक आज का दिन। प्रभा घंटों हथेलियों से अपना सर ढाँपे लेटी रहती, पर किसी की जुबान से उसकी परेशानी पूछने जैसा एक शब्द न निकलता। और फिर एक दिन उसने फैसला कर लिया कि घर में जो, जैसा चल रहा है, सबको निभाते हुए वो अपनी पुरानी जिंदगी को दोबारा शुरू करेगी

इतनीउम्र में चार-चार बच्चों की माँ बनने के बाद इस तरह मंच पर नाचने के शौक को पूरा करने का निर्णय अचरज की बात थी। पर पति ने प्रभा के फैसले पर उसका साथ दिया। मंच से दूर रहकर जो समय बीता, उसकी भरपाई के लिए प्रशिक्षण के एक नये सत्र की आवश्यकता थी। प्रभा के लिए ये सारी भाग-दौड़ स्वयं धर्मेश ने की। कुछ ही दिनों में प्रभा फिर से उन्हीं रंगों में खिलखिला उठी, जिसके लिए उसे पूरे शहर में जाना जाता था। केवल शहर में ही नहीं, वरन् अब तो शहर के बाहर से भी प्रभा के गुण की प्रशंसा और उसके कार्यक्रम के लिए प्रस्ताव आने लगे। ऐसे ही एक कार्यक्रम से लौटने के समय पर उस दिन अचानक से घमासान बारिश होने लगी। बारिश के इस घनघोर रूप को देखकर धर्मेश ने कार की चाभी उठायी और प्रभा को वापस घर लाने के लिए चल पड़ा। पर वो दिन तो शायद कहर लाने का ही दिन था। धर्मेश अभी रास्ते में ही था कि गरजते बादलों से कड़कती बिजली ने जमीन पर गिरते हुए कुछ ऐसी दिशा ली, पल भर से भी कम समय में धर्मेश कार सहित काल के गाल में समा गया।

धर्मेश की इस अकाल मौत ने प्रभा पर जो असर किया, सो किया, धर्मेश की माँ के हृदय पर इस घटना से ऐसा आघात हुआ, हफ्ते भर के अंदर वो भी चल बसीं। जो प्रभा चंद महीनों पहले तक सारे घर वालों की आँखों का तारा थी, वो आज एकाएक सभी की आँखों में खटकने लगी। तरह-तरह के ताने सुनकर उसका मन कुछ ऐसा उचटा, वो सीधा अपनी माँ के घर चली आयी। यहाँ आकर उसे पता चला, माँ की हालत भी कुछ ज्यादा अच्छी न थी। माँ ने अपने काम, अपनी मेहनत से जो कुछ भी कमाया, धीरे-धीरे सब खत्म हो गया था। और इस उम्र में आकर माँ न तो ज्यादा कुछ करने लायक थी, न ही उसे ऐसी कोई जरूरत थी। माँ के घर में इस वक्त जो भी मौजूद था, सब दो जून के आटे जैसा हाल था। प्रभा माँ की तरह परिस्थितियों से समझौता नहीं कर सकती थी। क्योंकि उसे केवल खुद का ही नहीं, अपनी चार-चार औलादों का पेट भी पालना था।

पति की असमय मृत्यु के दर्द को भुलाकर प्रभा को फिर से कला के मंच पर अपनी काबिलियत साबित करनी थी। यही एक तरीका था, जिससे वो समग्र रूप से अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह कर सकती थी। कोशिशों पर जुटी प्रभा का समय ने साथ दिया और बच्चों का पालन-पोषण, उनकी पढ़ाई-लिखाई, घर का हर खर्च, सभी जरूरतें प्रभा की कमाई से एक सिरे से पूरी होती गयीं। फिर बच्चों की नौकरी भी लगी। बड़े बेटे और दो बेटियों की शादी का उत्तरदायित्व भी प्रभा ने अकेले अपने दम पर पूरा किया। इस बीच न ही ससुराल वालों ने उसकी कोई खबर ली, न ही उसने किसी को खुशियाँ बाँटने का आमंत्रण दिया। बस अब छोटी बेटी सुचित्रा के विवाह की रस्में पूरी करवाकर माँ के साथ तीर्थ-यात्रा पर निकलना ही उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था। पर जहाँ सबकुछ इतने अच्छे से गुजरा, थोड़ा और भगवान को मंजूर न हुआ।

एक सुबह जब प्रभा जागी, पता चला, माँ अपनी आँखें हमेशा के लिए बंद कर चुकी हैं। माँ की मृत्यु से छोटी बेटी के विवाह का कार्यक्रम भी टल गया। और तो और उसी दिन के पाँच दिन बाद प्रभा का एक नृत्य-कार्यक्रम था, जिसके लिये प्रभा काफी बड़ी रकम लेकर, उसे छोटी बेटी की शादी की तैयारियों के लिए खर्च कर चुकी थी। चूंकि कार्यक्रम में जाना मजबूरी था, बुझे मन से प्रभा कार्यक्रम के लिए मंच पर पहुँची। उसने जो नृत्य शुरू किया, साफ पता चल रहा था, वो सहज नहीं थी। दो-तीन मिनट बाद ही वो नाचते-नाचते चक्कर खाकर गिर पड़ी। सहकर्मियों ने उसे उठाने की कोशिश की। पर वो हिल-डुल भी नहीं पा रही थी। फटाफट उठाकर उसे अस्पताल ले जाया गया। चिकित्सकों ने अपनी तरफ से जाँच-पड़ताल पूरी करने के बाद बताया, प्रभा के आधे से ज्यादा बदन को लकवा मार चुका था। और तो और इस लकवे की वजह से वो अब कुछ भी बोल भी नहीं सकती थी। ये जो कुछ भी हुआ था, इसका एक ही इलाज था कि वो अपने मन से ठीक होने की कोशिश करे और उम्र पर ढलते उस जिस्म की लगातार सेवा की जाये।

पहले कुछ दिन तो कोशिश की गयी कि अस्पताल में ही रहकर इलाज हो जाये। पर हालत में कोई सुधार न देखकर बड़ा बेटा कलश माँ को घर ले आया। बहू-बेटे और छोटी बेटी ने मिलकर घर में माँ के इलाज की भरसक कोशिश की। खाना-पीना, शौच-स्नान प्रभा की ऐसी हर आवश्यकता के लिए उसका पूरा-पूरा ध्यान रखा गया। पर समय बीतने के साथ-साथ ये जिम्मेदारी घर के अन्दर हर किसी को बोझ जैसी लगने लगी। प्रभा की चारों औलादों ने फिर एक दिन मिलकर इस मामले पर काफी देर तक बात-चीत की। होते-होते बात एक लंबी बहस में बदल गयी। कोशिश की गयी कि माँ से खुद उनकी मर्जी पूछी जाये। पर इशारों से बात करने की कोशिश कर रही माँ की बातें ठीक से किसी की समझ में न आयीं। आखिर में औलादों ने मिलकर खुद ही निर्णय ले लिया कि एक-एक करके चारों थोड़े-थोड़े समय के लिए माँ की जिम्मेदारी उठायेंगे।

वो प्रभा, जिसने जाने कितने साल अकेले पूरे परिवार की जिम्मेदारी अपने खुद के कंधों पर उठायी थी, जब आज उसकी खुद की जरूरत थी, सभी उसे बोझ कहकर संबोधित कर रहे थे। वो प्रभा जिसके लिए खुद हिलना-डुलना मुश्किल और दर्द-दायक था, उसकी खुद की औलादें उसे डाॅक्टरी-कुर्सी पर बिठाकर एक शहर से दूसरे शहर यात्रा करवाने जैसे कष्टकर काम से भी जरा सा न हिचकिचा रही थीं। बड़ी बेटी, फिर छोटी बेटी, दोनों के घर पर छः-छः महीने गुजारने के बाद जब प्रभा वापस अपने घर लौटकर आयी, तो कभी उसका रहा अपना घर आज जैसे उसका घर ही न था। ये घर एकदम बदल चुका था। उसके लेटने के लिए घर के आँगन के एक कोने में चारपाई डाल दी गयी थी। घर के जिस मुख्य कमरे में वो हमेशा रही थी, उसे तो वो अब अपनी आँखों से देख भी नहीं सकती थी।

प्रभा के इस अपने घर में शुरू के छः महीने माँ को संभालने की जिम्मेदारी बेटे और बहू की थी। औलादों की आपसी शर्तों के हिसाब से अगले छः महीने छोटी बेटी को माँ की जिम्मेदारी को संभालना था। हालात बुरे थे, पर अपनेपन का कुछ तो अहसास दिलों के अंदर था। बहू और बेटे ने हर बार ख्याल रखा कि माँ को किसी चीज की ज्यादा परेशानी न हो। फिर एक दिन प्रभा को पता चला, कि राजनीति में गहरी पैठ वाले एक काफी ऊँचे घराने में छोटी बेटी के रिश्ते की बात शुरू हुई है। उसी दिन प्रभा का बिस्तर घर के मुख्य कमरे में लगा दिया गया, क्योंकि जिस घराने से शादी की बात चल रही थी, वो केवल प्रभा के नाम की वजह से इस रिश्ते के लिए राजी हुआ था।

तय समय पर लड़के वाले लड़की देखने आये। लड़के के माता-पिता ने घर के अंदर प्रवेश करने के साथ ही सर्वप्रथम प्रभा से मिलने की इच्छा जतायी। बिस्तर पर लेटी प्रभा और उसके इर्द-गिर्द सबकुछ जिस तरह से सहेजा और सजाया गया था, सब देखकर परिवार के संस्कारों का मूल्यांकन हुआ और आगे बिना ज्यादा कुछ बात किये, सीधे प्रभा की बेटी के रिश्ते के लिए ‘हाँ‘ कर दी गयी। साथ ही एक बार कोशिश की गयी कि पूछा जाये, प्रभा की मर्जी क्या है? सवाल के जवाब में न जाने भगवान का कौन सा करिश्मा हुआ और प्रभा के बदन में हल्की सी हरकत हुई। उसके सिरहाने बिस्तर से बाँधकर रखे गये घुँघरू बज उठे। सामने खड़े हर व्यक्ति ने घुँघरू की इस आवाज को प्रभा की तरफ से स्वीकृति समझा।

कुछ ही दिनों में प्रभा की छोटी बेटी की धूमधाम से शादी हो गयी। इधर प्रभा की औलादों के बीच जो फैसला हुआ था, उसके हिसाब से छः महीनों तक माँ की देखभाल करने का जिम्मा अब छोटी बेटी के नाम पर था। नयी-नवेली दुलहन बनी छोटी बेटी को ससुराल में गुजरे चंद दिनों में ही वहाँ पूरे के पूरे घर के जीवन में ही बस गयी राजनीति और उन सबकी दिखावटी सच्चाइयों के बारे में काफ़ी कुछ बड़ी अच्छी तरह से पता चल गया था। कहने और दिखावे के लिहाज़ से तो उसके ससुराल वाले बहुत आगे थे, पर अगर वो माँ को अपने साथ अपने ससुराल ले जाती, तो बिस्तर पर लेटी उसकी माँ को किस तरह की गिद्ध-दृष्टि से देखा जाता, इसको केवल वही समझ सकती थी। माँ की देखभाल को लेकर भाई-बहनों के बीच हुए बँटवारे को सुचित्रा कतई अपने ससुराल वालों पर जाहिर नहीं करना नहीं चाहती थी। काफी सोच-विचार के बाद उसने ससुराल वालों के समक्ष पक्ष रखा कि वो अपनी माँ की देख-भाल के लिए कुछ दिन उनके पास रहना चाहती है। माँ के प्रति बेटी के भावनाओं को सुनकर, समाज को अपना दिखावटी रंग दिखाने वाले ससुराल वाले अपना अलग उल्लू सीधा करने के लिहाज से खूब गदगद हो उठे। उन्होंने सहर्ष ही समाज में अपने बड़प्पन की घोषणा करते हुए, प्रभा की देख-भाल कर उसका आशीर्वाद लेने के लिए अपनी बहू को उसके मायके भेज दिया।

लंबे छः महीनों से प्रभा की देखभाल कर रही उसकी बहू को भी अब थोड़ा आराम चाहिए था। इसी आराम के लिए वो अपने पति के साथ थोड़े दिनों के लिए अपने मायके चली गयी। इसी बीच प्रभा की छोटी बेटी के ससुराल पक्ष की रिश्तेदारी में एक रात्रि-जागरण का कार्यक्रम रखा गया। ससुराल वालों ने फौरन ही बहू को बुलावा भेज दिया। असमंजस में पड़ी प्रभा की इस छोटी बेटी ने आनन-फानन में फैसला लिया और चुपचाप अपने ससुराल जा पहुँची। उसे पता न था, ससुराल पक्ष के उन रिश्तेदारों का घर दूसरे शहर में था। एक बार ससुराल पहुँचने के बाद लाख चाहकर भी वो एक बार भी अपने ससुराल वालों को जागरण के लिए साथ जाने की बात से मना न कर पायी। फिर रात्रि-जागरण से जुड़े कार्यक्रम की वो रात उस बहू के लिए कितने बड़ी और भारी थे, इसे केवल वही जानती थी।

जाने, आने और वापस अपने मायके की दहलीज पर कदम रखने तक के बीच में लगभग दो दिनों का वक़्त सुचित्रा ने लिया। शहर में दाखिल होने के बाद वो लगभग भागी-भागी अपने मायके पहुँची थी। घर के मुख्य दरवाजे को खोलकर जैसे ही उसने अंदर कदम रखा, माँ के सिरहाने बंधे घुँघरूओं की आवाज उसके कानों में पड़ी। ये आवाज सुनकर ही मानो उसकी जान में जान लौटी। वरना, इससे पहले तो दो दिनों में हर एक घड़ी किस तरह एक दिल का पत्थर बनकर बीती थी, इसे तो बस सुचित्रा ही जानती थी। 

घर में दाखिल होने के साथ ही घुँघरूओं की आवाज कानों में पड़ने के बाद सुचित्रा ने सबसे पहले रसोई-घर में जाकर पूरा गिलास भरकर पानी पीया। परेशानी में सूखते गले में इससे जरा तरावट पहुंची। तभी दरवाजे पर उसे किसी के आने की हलचल सुनायी दी। रसोई-घर से बाहर निकल कर उसने देखा, भइया-भाभी वापस लौट आये थे। तीनों मिलकर एक साथ माँ के कमरे में गये। सामने का नजारा देखकर तीनों का मुँह खुला का खुला रह गया। प्रभा का दाहिना हाथ सिरहाने पर ऊँचे बंधे घुँघरूओं पर मुट्ठी बनकर कसा हुआ था। कमरे में आती हवा से घुँघरू बज रहे थे और प्रभा के निर्जीव हो चुके बदन की गर्दन एक ओर को झूल चुकी थी।


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