Ashish Anand Arya

Abstract Comedy Drama

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Ashish Anand Arya

Abstract Comedy Drama

लाला Vs टाला : जीवन 🎊 मधुशाला

लाला Vs टाला : जीवन 🎊 मधुशाला

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सम्पूर्ण देश लॉकडाउन का शिकार हुआ। लाखों हताहत हुए। विश्व भर में दौड़ाये-भगाये-अस्वीकारे गये भारतीय घर को लौटे बुद्धू की तरह मातृभूमि की शरण में लौट आये।

अब देश तो वही है। सामान-वामान, संसाधन-वंसाधन सब उतने ही। जनसंख्या का बोझ धरती पर बढ़ा, तो सबकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाली जुबानें लम्बी हो आयीं।

जब सबको परेशानी ने घेरा है, तो हमेशा से ही हर आपाधापी पर कलम और जीभ चलाने वाले इस आधार पर अब भला डेरा क्यों न डालें ?

कलम चली और सीधे बन पड़ी जलजली। लॉक-डाउन से सभी को हताहत करने वाली सरकार की तरफ़ से जनता को सरकारी अनुदान बिल्कुल ज़रूरी है। इसी विषय पर खूब संवाद छिड़े। अब चर्चा का मंच सजा, तो कविवर उस मंच से नीचे की सृष्टि पर भला कैसे संतोषिया लेते ?

कविवर ने जैसे ही अनुदान की माँग की, सरकारी नेता महोदय के पास भी बाँचने के लिये तथ्य जाग पड़े। विधिवत प्रश्नों को कुछ यूँ प्रस्तुत किया गया-

"कवि और शायर, मंचीय और अमंचीय(दोनों) ये हैं क्या ? कविता भी पेशा है क्या? कवि कर्म तो देने के लिए होता है, लेने के लिए नहीं! संकट में सीना खोलकर खड़े होने का, जो हताश हैं उन्हें साहस देने का, स्वयं कर्त्तव्य की भावाग्नि बनने का... नाम है कविता! हताश होकर भिक्षा माँगने का नाम कतई नहीं कविता। लॉक-डाउन में व्यवसाय प्रभावित हुए हैं, तो उनकी तरह ही प्रभावित कही जाने वाली कविता भी व्यवसाय है क्या ? और यदि ऐसा ही है तो, कवि अन्यान्य क्षेत्रों में कविता बेचें ...समाज का मार्गदर्शक बनने का दम्भ न भरें।"

सटीक लगते प्रश्नों का जैसे ही भावुकता में अकल्पनीय गोते लगाने वाले साहित्यकार से पाला पड़ा, उन्हें जवाब भी मिला, बड़ा करारा जवाब-

"क्या एक दम्भ की भावों में उपस्थिति के कारण साहित्यकार भूखों मर जाये । कवि कर्म क्या केवल देने के लिए होता है ? बातें कहने और सुनने के लिये बहुत अच्छी होती हैं, पर उनसे पेट नहीं भरता। मंच का कवि अच्छी बातों और मुस्कुराहटों का परफार्मिंग आर्टिस्ट ही होता है, और ये सब उसके चेहरे पर होता है, क्योंकि सिर्फ उसी के मानदेय से घर चलाने की उसकी विवशता होती है। कई लोग जो एक सरकारी नौकरी में होते हैं, उनके घर हर महीने एक बंधी रकम आ ही जाती है, तो वो तरह-तरह के उपदेश देने की स्थिति में होते हैं। चूँकि कविता व्यवसाय नहीं है, तो ये किसने तय कर दिया कि जो कवि है, वो भूखों मरे? और जिसने तय किया, वो होता कौन है इस तरह के सिद्धांत प्रतिपादित करने वाला। यथार्थ और सिद्धांत में सामंजस्य बनाकर सत्य को जीवन के हिसाब से चलाने की क्षमता दिखा पाने वाले बहुत ही कम लोग होते हैं।" कहते-कहते फ़िर बात खत्म होने से पहले कवि ने भावुकता को अद्दभुत शब्द दिये-

"बहुत मजबूर होकर गीत रोटी के लिखे मैंने

तुम्हारी याद का क्या है उसे तो हर रोज़ ही आना है।"

कवि के कथन खत्म होते ही, फ़िर से ज़ुबान खोलने का पलड़ा सरकार के पास था-

"तो... फ़िर तो यह माना जाय कि 'साहित्यकार' स्वयं को साहित्यकार मानने का जो दम्भ (गर्व) रखता है, वह झूठा है । एक कवि के सामने भी कपड़े रोटी का संघर्ष तो होता ही है। और मान लिया कि मंच का कवि परफ़ार्मिंग आर्टिस्ट होता है और उसी के मानदेय से घर चलाता है, किन्तु यह कौन मानेगा कि 'मंच के कवि' दो तीन महीनों के राष्ट्रीय संकट-काल में निर्धनता की ऐसी स्थिति में आ गए कि रोटी की ऐसी समस्या खड़ी हो गई, जैसी दर-ब-दर होते उन मजदूरों-कारोबारियों के सामने थी, जिनके लिए राहत-कोश बनाये गये। अब मजदूर हो, या कोई सरकारी सेवक हो, या कोई अन्य कर्मचारी जो सरकार (या अन्य) द्वारा निर्धारित कार्य और लक्ष्य का संपादन करता है, अपने जीवन-काल में से 'तयशुदा' समय और श्रम देता है, जिसके एवज़ में वह रोटी कमाता है । देश की सारी प्रक्रिया, व्यवस्था और प्रशासन इसी से चलते हैं, न कि कविता-पाठ से। हाँ, ये मान सकते हैं कि अध्यापक को छोड़कर, इनमें से कोई भी वैचारिक और बौद्धिक संपदा नहीं देते, लेकिन आज 'मंच के कवि' देश को कितनी बौद्धिक और वैचारिक संपदा दे रहे हैं, सभी को ज्ञात है !"

सरकार की बात अभी खत्म हुई ही थी कि अक्सर लेन-देन के पचड़ों में अहम भूमिका निभाने वाले एक लाला जी ने भी एक जमाने के लेखक होने का दावा करते हुए अपनी शाब्दिक क्षमता को फौरन सामने प्रस्तुत किया-

"अब लेखक होने के नाते मुझे किसी कर्मचारी-वर्ग, या फिर किसी वर्ण-व्यवस्था विशेष में कोई आस्था नहीं। न ही अपने कुछ होने का दंभ है। बस गलत को ग़लत कह लेता हूँ, इतना सा विनम्र गर्व है खुद पर। मेरे लिए बामन, ठाकुर, वैश्य, लाला, शूद्र सब शोषण जनित घिनौने नाम हैं जिनकी आड़ में एक मनुष्य को दूसरे पर अभद्र श्रेष्ठता दी गई। न जाने किस कालखंड में यह व्यवस्था सही रही होगी। मुझे यह चंद महत्वाकांक्षी लोगों की अपनी सत्ता निरंकुश रखने की क्रूर व्यवस्था से अधिक कुछ नहीं लगती। और जिन लोगों को अपने कुछ भी होने का दंभ है उनकी शिक्षा पर संदेह और सोच पर तरस आता है। ज्ञान के ठेकेदारों ने अपना प्रतीक फरसे वाला चुना, इससे क्या पता चलता है? यही न... कि उनका भरोसा ज्ञान से ज्यादा फरसे में था, वरना ज्ञानी विप्रों का कोई अकाल नहीं था वशिष्ठ से लेकर द्रोणाचार्य तक। कारण है... वही समाज में अपनी श्रेष्ठता का अश्लील प्रदर्शन। दया आती है इस सोच पर। ये लोग कब मध्यकालीन अमर चित्रकथा दुनिया से बाहर आएंगे? इनसे तो, वे शूद्र कहीं श्रेष्ठ है जिन्होंने अपना नायक संविधान लिखने वाले अम्बेडकर को चुना। यह जातियों के नहीं, शोषण की श्रेणियों के नाम हैं। इनका होना तो ऐसा है जैसे कोई जलती अर्थी से सिगरेट सुलगा के धुंए के छल्ले का छलावे रचे।"

इतना सब सुनाने के बाद लाला जी ने सरकार और तथाकथित कवि महोदय को सार-रूपी ज्ञान देने के लिहाज़ से एक लम्बी साँस खींची और पुनः अपने अधरों पर बलखाये-

"काफ़ी शोधों के उपरांत अंततः ये तय पाया गया कि हम लाला लोग वर्ण व्यवस्था का हिस्सा नहीं हैं। इसलिए हमें अवर्ण समझकर हमलोगों को देश की समस्त मधुशालाओं को चलाने की ज़िम्मेदारी दी जाए। हम उसमे घटतौली कर वैश्य बनेंगे। जो रंगबाजी दिखायेगा, उसको हौंकेंगे और ठाकुर बनेंगे तथा हौंकने के बाद उसको ज्ञान देकर ब्राह्मण बनेंगे और यदि किसी ने उल्टी आदि की तो उसको साफ कर शूद्र रूप धरेंगे। इन सबके उपरान्त दुकान बंद होने के बाद बढ़िया चखना रखकर आराम से सिर्फ दो पेग मार कर खुद को लाला सिद्ध करेंगे तथा पीने के दरमियान अंग्रेज़ी अवश्य बोलेंगे। इति सर्वत्र सिद्धम!"

इस प्रकार देश के भीतर एक बार फ़िर से लम्बी चली बहस का बड़ा ही शांतिप्रिय हल प्रेम के प्याले परोसने के मंचन के साथ ही निकल आया। पर विकट समस्या अब देश में यह है कि इस व्यवस्था को सनातनी तो एक बार पचा भी लें , पर तनातनी सम्प्रदाय के लोग ऐसा बिल्कुल नहीं होने देने के प्रयास में हमेशा जुटे रहते हैं !

 उपर्युक्त व्यंग्य रचना साहित्यिक जगत के प्रख्यात विद्वानों के बीच चली लम्बी टाँग-खिंचाई के अंशों को चुनकर संवर्धित की गयी है।

अतः पढ़कर आनंदित होने में ही जीवन का सार समझें !

अब चूँकि वर्णमाला की शुरुआत ही अ वर्ण से होती है, कुल मिलाकर सब अव्वल बनना चाहते हैं।


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