कोई तो बचा लो
कोई तो बचा लो
आज ही नेता जी जीवन का पहला युद्ध जीत आये थे !
अब इसे युद्ध न कहा जाये, तो भला क्या कहा जाये? कितने ही विरोधियों से तो लोहा लेना पड़ा था, न जाने कितनी गाड़ियां, कितने लश्कर, और कितना तो असलाहा भी हरकत में आया था और फिर रणनीति के तहत सारे जोड़-घटाने लगाकर कुर्सी हथिया ली गयी थी।
अब खुशी हाथ में थी तो उसका करामाती प्रदर्शन तो बिल्कुल जरूरी ही था। पार्टी-कार्यकर्ता नाम से जाने वाले चमचों,सारे चेलों-चपाटों ने नेता जी के बस एक ही इशारे पर मिलकर यह भव्य परिकल्पना गढ़ डाली थी। इलाके की मुख्य सड़क के सबसे भीड़-चाल वाले इलाके में तंबू गाड़ दिया गया था। बस अब नेताजी को अपने उद्गार जनता को परोसने थे।
नेताजी की फरमाइश पर उनकी तरफ से तो सारी तैयारियां उनके पिछलग्गुओं ने कर दी थी, पर जनता को उन तैयारियों से भला क्या मतलब?
हजार लोगों के बैठने की व्यवस्था और नेता जी को सुनने वाले गिनती के दर्जन भर लोग। नेताजी ने जरा निगाहें टेढ़ी भर कीं, मजमा जुटाने के करतब कर दिखाने के लिए कुछ तो बंदोबस्त जरूरी था।
आनन-फानन में सारे के सारे कार्यकर्ता दौड़े-दौड़े पास के कॉलेज में जा पहुंचे। नेता जी अनुभवी सुझाव के हिसाब से लड़कों को उद्देश्य बड़े संक्षेप में बताया गया, पर गुज़ारिश गज़ब की की गयी।
जवान लड़कों का गर्म खून पल भर में उबाल मारते हुए ताव में आ गया। चमचों के जरिये से पहुँची खबर मिलने के बाद बस चंद मिनटों का समय ही लगा होगा और सारे लाव-लश्कर के साथ लड़कों ने इस तरह समाँ बाँधा कि उनका तमाशा देखने के लिए चंद पलों में ही इलाके की पूरी की पूरी भीड़ पड़ी। नुक्कड़-नाटक के तौर पर पेश किये जा रहे तमाशे का विषय था ध्वनि प्रदूषण!
इधर ध्वनि प्रदूषण विषय पर लड़कों ने अपने गलों से कुछ तान छेड़ी, उधर नेताजी का माइक अपनी ही तरावट में राजनीति की कहानियां कहने को तैयार हो गया।
नेताजी अपनी तरफ़ से अपने मन की सभी पर जाहिर करने को ज़रूर तैयार थे, पर ऐसे भला कैसे नेताजी की सुन ली जाती?
नेताजी की बोली पर किसी का ध्यान न जाते देख उनके कार्यकर्ताओं ने अपनी तिकड़म लगाई और पूरे शहर भर के डी.जे. ढोल-ताशे-नगाड़े-बाजे सब के सब जनता का ध्यान कॉलेज के लड़कों से नेता जी की रैली की ओर खींचने के लिए घटनास्थल पर आ डंटे।
एक बार जनता का ध्यान जो जरा बँटा, फिर क्या मुश्किल था! कॉलेज के लड़कों को पुलिस बुलवाकर पल भर में ठिलवा दिया गया। अब नेताजी सभी तरह के सवालों के लिए सीधे लोगों के सामने थे।
नेताजी सवालों का सामना करने के लिए जो मंच पर आ डंटे थे, पहला ही सवाल सीधा दनदनाते हुए एक गोली की तरह सामने आया-
"आप जीतकर इस इलाके की सत्ता वाली कुर्सी पाये हैं, तो इलाके के विकास के लिए क्या कर
ेंगे? हमारे इलाके की बढ़ती हुई प्रदूषण की समस्या के लिए आपने कुछ समाधान सोचा है?"
ऐसे सवालों का जवाब देने के लिए ही तो नेताजी "नेता जी" बने थे। जवाब फटाफट तैयार था-
"बताइए, आप के हिसाब से इसका क्या इलाज किया जाना चाहिए? मेरे हिसाब से तो इसका जवाब तो बच्चा बच्चा जानता है। पेड़ लगाओ, पर्यावरण बचाओ।" अपनी वाणी द्वारा नेताजी इस प्रकरण पर कार्यान्वित होने को सहज ही सहर्ष तैयार हो गये। पेड़ लगाने में भला कौन सी परेशानी थी? पर इसके संपादन में तो कई पंचवर्षीय योजनाएं व्यय हो जानी थीं। तो हालातिया तौर पर पेड़ बचाओ एक दूसरा आसान उपाय था, जिसे जनता के बीच से ही एक शख्स ने लगभग चिल्ला कर बताते हुए जाहिर किया।
फौरन ही नेता जी ने भी तुरत प्रतिक्रिया देते हुए पूछा-
"बताइए कहाँ के पेड़ों पर भला कौन वार कर रहा है? हम फौरन पेड़ों के बचाव के लिए अभियान चलाएंगे। हमारी पूरी पार्टी साथ जायेगी और आपका सहयोग देगी।" नेता जी बोल रहे थे, तभी नेताजी के कानों में एक चमचे की कानाफूसी हुई-
"मान्यवर उन पेड़ों को काटकर ही तो आपके घर का नया फर्नीचर बनाया जा रहा है। बाहर कहीं से मंगाये जाएंगे तो ऐसे पेड़ों की लकड़ी की चालीस गुना कीमत देनी पड़ेगी।"
कानाफूसी का जवाब भी कानाफूसी में ही दिया गया-
"अरे तभी तो कहा है कि हमारी पार्टी के कार्यकर्ता भी जाएंगे। जिन पेड़ों की हमें जरूरत है, केवल वही काटे जाएंगे। बाकी सारे पेड़ों को हम सब मिलकर बचाएंगे।"
कानाफूसी, फिर कानाफूसी, फिर सवाल के जवाब, फिर कानाफूसी और बस होते होते फिर नेताजी की रैली कुछ ऐसे ही वायदों के साथ सफल समाप्त हुई।
नेताजी की रैली खत्म होने के बाद अब कार्यवाही करके दिखाने का जिम्मा पुलिस के पास था। पुलिस वालों ने भी अपनी ड्यूटी को बखूबी अंजाम दिया। बिल्कुल सीधा-सीधा तर्क देकर मामला दर्ज किया गया। मामला यह था कि नेताजी के विरोधियों के उकसाने पर कॉलेज के छात्र नेता मिलकर नेताजी की रैली के दर्शकों के मनोहारी शांत सुगम डीजे संगीत को दबाने के लिए, ध्वनि प्रदूषण को दबाने वाले नाटक का मंचन जबरदस्ती करके स्थानीय नागरिकों को परेशान कर रहे थे।
अब वो कॉलेज के लड़के, जो सीने के बटन खोल कर घूमा करते थे, जो कोई भी सामने नजर आता, उन सभी से गुहार लगाने की कोशिश करते रहते-
"कोई तो बचा लो!"
पर उनकी भला कौन सुनता ?
आज के इस दौर में जब सब कुछ ही राजनीति है, भला कौन, किसको और जाने भला कैसे भला कैसे बचा सकता है? इसीलिए सीने के बटन खोलकर बड़ी धाक से पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने वाले पेड़ काटते हुए, नये पेड़ों को लगाने की अपील करते रहने और मुस्कुराने का हुनर केवल राजनीति के सीने पर जड़े बटनों को ही है !