vijay laxmi Bhatt Sharma

Abstract

4.8  

vijay laxmi Bhatt Sharma

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स्वाभिमान

स्वाभिमान

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परेशान वो बैठा था क्या करे क्या ना करे उधेड़ बुन मे था उसने फ़ोन उठाया। एक नम्बर मिलाने के लिये निकाला। सोचने लगा क्या फोन मिलाऊँ या नहीं इतनी बार बात का कोई नतीजा निकला ही नहीं। और फिर फोन का वेलेन्स खत्म होने का डर। कहाँ से रीचार्ज होगा। परिवार के साथ भगवान ना करे कोई मुसीबत आ जाये तो फोन मे पैसे रहने चाहिये। फिर कुछ सोच उसने फोन मिला ही दिया सामने से आवाज़ आई तो उसने हिम्मत कर कहा सर मुझे कुछ एडवांस मिल जा। अभी पूरा बोल भी नहीं पाया था की फ़ैक्टरी के मलिक की रौबिलि आवज आई मैने ख़ैरात नहीं खोली एक महीने से फ़ैक्टरी मे कोई काम नहीं हुआ। अपने खर्चे पूरे नहीं हो रहे तुम्हें समझ नहीं आती। उसने हिम्मत कर कहा तनख़्वाह नहीं मांग रहा केवल थोड़ा। फिर बात पूरी किये बैगेर उधर से फिर मालिक की आवाज़ कौन सी तनख़्वाह शर्म नहीं आती बिना मेहनत खाना चाहता है। अब कभी फोन मत करना। मुफ़्तख़ोर और फोन बंद। 

उसकी आँखों मे थमा हुआ पानी टपकने लगा। कभी मुझ पर इतना विश्वास था मालिक को की सबसे कहते थे इसके पास लाखों रुपये छोड़कर चला जाता हूँ मै सच मे बहुत ईमानदार है ये लड़का। मेरा विश्वास पात्र भी । मैने भी कभी उस पैसे पर अपनी नज़र नहीं डाली। आज ऐसे दुत्कार रहे हैं जैसे जानते ही नहीं। बीस साल में इतना भी नहीं की राशन ही पूछ लेते। कितना मतलबी है इनसान। अब क्या होगा उसने सोचा खुद को सम्भालने लगा। सामान्य करने लगा खुद को जैसे किसी जंग की तैयारी मे हो। तभी पत्नी जो दरवाज़े की ओट से सब सुन रही थी वो बातों से अनजान बन हंसती हुई अन्दर आयी अरे उदास क्यूँ बैठे हो सब ठीक होगा अभी तो गुज़ारे लायक़ सब है हमारे पास फिर कुछ ना कुछ हो ही जाएगा। उसने पत्नी की तरफ देखा केवल दंत पंक्तियाँ ही नजर आ रही थी गाल का मास अब हड्डियों में बदल चुका था। कभी सुन्दर भरा चेहरा होता था उसका आज मुरझा गया है पर मुस्कान ज्यूँ की त्यूँ कभी हिम्मत नहीं हारती थी तभी तो ग्रहस्थी की गाड़ी चल रही थी।  

  छोटी सी तनख़्वाह केवल दो वक्त की रोटी और बच्चों की फीस भरने मे निकल जाती कोई बचत का सवाल ही नहीं था पर उसमें से भी पत्नी ने इतना बचा रखा था की एक महीना निकल गया था जैसे तैसे। कभी कुछ माँगा नहीं और आज इस हाल में भी उसे हँसते देख कुछ हिम्मत सी बंधी। वो सोचती है किसी को पता नहीं की वो केवल एक समय ही एक रोटी खाती है वो भी तब जब मै भूख नहीं है कह एक रोटी लौटा देता हूँ और कितनी आसानी से कह दिया उसने की अभी सबकुछ है। पत्नी सोच रही थी की ये सोच रहे हैं मुझे नहीं पता जैसे की तुम एक रोटी मेरी वजह से भूख नहीं कह कर छोड़ देते हो इसीलिये मै थोड़ी मोटी रोटी बना देती हूँ। पर अब तो कुछ बचा ही नहीं कह तो दिया मैने की गुज़ारे लायक़ है पर है कहाँ।  

दोनो उलझानो में गुम थे पत्नी उठ कर चली गई बच्चियों की आवाज़ थी माँ कुछ खाने को दो पत्नी उन्हें फुसला रही थी । उसकी बेचैनी बड़ने लगी किसी भले मानस ने एक बड़े आदमी का पता दिया था की यहाँ से मदद मिल सकती है पर उसके स्वाभिमान ने उसे मदद माँगने से रोक लिया पर आज बिलखती बेटियों को देख उसने अपने स्वाभिमान को ताक पर रख अपने आप से एक जंग छेड़ दी की बच्चियों की क्या गल्ती है उन्हें किसी तरह भी भरपेट खाना मिलना चाहिए। कोई काम नहीं हो रहा नहीं तो वो मज़दूरी कर ही उनका पेट पालता।

फिर कुछ सोच एक मेसिज कर ही दिया उसने उस भले मानस को।बात करने के लिये कोई जवाब नहीं आया तो परेशानी मे उसने फिर कर दिया उधर से जवाब आया क्या काम है उसने अपनी सारी कहानी बता दी। दूसरी तरफ़ से आवाज़ आयी अरे अपने लिये नहीं तो बच्चों के लिये तो कम से कम पूरा मेसिज लिखते । अगर बच्चियों को कुछ हो जाता अजीब आदमी हो तुम। मै कुछ करता हूँ । उसने फिर एक सवाल पूछा कहा भाई साहब आप फोटो तो नहीं खिंचोगे। बड़ी मुश्किल से एक इज्जत ही है मेरे पास बची हुई सर उठाकर जीने के लिये।

बेटियों को स्वाभिमान से जीना सिखाने के लिये। मै भिखारी नहीं हूँ। आज तक केवल अपने हाथों पर विश्वास कर मेहनत की है जो मेहनत से मिला उसी मे गुज़ारा किया किसी का एक पैसा नहीं लिया। पर आज मेहनत करने वाले हाथ भी लाचार हैं। उधर से आवाज़ आई बेफ़िक्र रहो मै बच्चियों के लिये दूध और तुम्हारा राशन भिजवा रहा हूँ कोई रख कर चला जाएगा किसी को पता नहीं चलेगा। फोन बंद । फफक कर रो पड़ा वो ये हाथ कभी उठे नहीं थे माँगने के लिये पर आज। सोचने लगा गाँव ही अच्छा था खुली हवा अपने खेत अपना घर किसी की सुननी नहीं पड़ती थी । लड़कपन मे महानगर की चकाचौंध यहाँ ले आयी शादी फिर ये दो बच्चियाँ। अब घर लौट जाऊँगा जैसे ही बसें खुलेंगी सीधे गाँव। अगर बीस साल वहाँ खेतों में काम किया होता तो आज ये नौबत ना आती।

एक साल का राशन तो होता ही साग सब्ज़ी भी घर की ही। शुद्ध हवा। स्वाभिमान की ज़िंदगी यहाँ मकान मालिक की सुनो। फ़ैक्ट्री मलिक की सुनो ना अच्छा खाना ना कहीं जाना बस कोल्हू के बैल की तरह लगे रहो काम पर। गाँव मे चार लोग तो मिलेंगे बात करने। राशन पहुँच गया था काँपते हाथों से लिया उसने पीड़ा आँखों में झलक रही थी। बेबसी और स्वाभिमान की जंग थी पत्नी भी आ गई थी थाम लिया उसके काँपते हाथों को। सब सुन लिया था उसने पर अनजान बनी थी बच्चियाँ आ गईं थीं माँ खाना आ गया ताली बजा रहीं थीं। उनके मुरझाए चेहरे पर मुस्कान देख दोनो पति पत्नी राशन खोलने लगे पत्नी बोली गाँव चले जाएँगे अब। नहीं सहेंगे अब और।

वो आवक था कैसी है ये सब समझ जाती है मै हिम्मत नहीं जुटा पाता और ये हंसकर बोल जाती है। इस बार हिम्मत जुटा चुका था मै हाँ हाँ गाँव चले जाएँगे मेरी बात हो गई है इनसे जिन्होंने राशन भेजा है वही भेजेंगे पत्नी मुस्कुराई शायद आज खुश थी क़ी पति का आत्मविश्वास लौट आया है । उसने सुन लिया था सब पति हिम्मत नहीं कर पाएँगे शायद कहने की की गाँव चलते हैं।पर खुद ही बोल पति का बोझ कम कर दिया। वो खुश था पत्नी सच मे जीवन संगिनी बन सुख दुःख मे उसका कितना साथ देती हाई। उस भले मानस का धन्यवाद किया जिसने ये सब समान भिजवाया था बिना जाने पहचाने। उसके मन से बहुत सारे आशीष निकल रहे थे बेटियों की मुस्कान में उस इनसान का चेहरा ढूँढ बस उनके लिये प्रार्थना कर रहा धा की उनके भंडार भरे रहें। वो खुशहाल रहें। आज बहुत दिन बाद सारा परिवार खुश था एक बोझ कम हुआ था। अब क्या होगा ये सवाल नहीं सता रहा था उसे अब।


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