Poonam Singh

Abstract

5.0  

Poonam Singh

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" शक्ति"

" शक्ति"

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शरद ऋतु की गुनगुनी धूप और रंग बिरंगे फूलों की खुशबू ने पूरे वातावरण को अपने खुशनुमा आगोश में भर रखा था। आज बरसों बाद फिर से एक बार अमृता को एक ऐसी खुशी के आनंद की अनुभूति हो रही थी जिसकी उसे बेसब्री से प्रतीक्षा थी। मन अनगिनत सपनों की दुनिया में विचर रहा था।

"बहूरानी चाय लाऊ तुम्हारे लिए?" हरि काका की आवाज से अमृता की तंद्रा टूटी। "चा.. आ..य.. ठीक है काका ले आओ..,। और हाँ सुनो.. अपने लिए भी लेते आना।" अमृता ने मुस्कुराते हुए कहा। हरि काका ने मुस्कुराते हुए सिर हिलाकर जवाब दिया और रसोईघर की तरफ चले गए। 

"काका.. चाय वाकईं बहुत अच्छी बनी है।" ‌‌"ऐसी तो हमेशा ही बनती है बहूरानी, पर तुम्हें शायद आज ज्यादा अच्छी लगी । " इतना कहते हुए हरि काका खुरपी लेकर बागवानी करने बैठ गए। "ध्यान से काका कहीं तुम्हारी खुरपी से कोई कली आहत ना हो जाए ।" "अरे नहीं बहूरानी यह तो हम बरसों से करते आ रहे हैं, और ये फूल पत्तियाँ भी है ना.., हमारे हाथों के स्पर्श को भली भाँति पहचानते हैं। अगर यह हमारी गलती से मुरझा भी जाये ना, तो हमें इनमें प्राण फूंकना भी आता है बहूरानी।" हरि काका ने विश्वास भरे नेत्रों से अमृता की ओर देखते हुए कहा।

'काश कि मेरी भी इन हाथों में प्राण फूंकने की क्षमता होती.., तो आज मेरी जीवन बगिया भी खुशीयों से लहलहा रही होती। जो कि बिना किसी क़सूर के समय के हाथों मजबूर हमेशा के लिए मिटा दिए गये।'

 मन ही मन अमृता बुदबुदा रही थी।

"क्या हुआ बहूरानी.? कहाँ खो गई..? और तुम्हारी आँखें डबडबा क्यों गई?" "कुछ नहीं काका"

अमृता ने अपने आँखो की कोर पर ठहरे हुए आँसुओं को पोछते हुए कहा।

तभी घर की डोर बेल बजी। "कितनी देर लगा दी बहू गेट खोलने में..।" मंदिर से आई सासू माँ ने घर में प्रवेश करते हुए कहा। "अच्छा जल्दी से एक कप चाय बना दो तब तक घर की आरती करके आती हूँ।"

"जी.. ठीक है, माँ जी.."

"और हाँ चाय बनाकर तुम तैयार हो जाना डॉक्टर से मिलने जाना है ।" "डॉ..क्टर... ,डॉक्टर से मिलकर क्या होगा माँ जी.. मेरी किस्मत में संतान का सुख विधाता ने लिखा ही नहीं।" निराशा भरे शब्दों में अमृता ने कहा। ऐसा कहकर शायद किसी अनहोनी के भय से अमृता क्लीनिक पर जाने की बात को टालना चाहती थी। "अरे.. नहीं, ऐसा नहीं कहते बहू.., भरोसा रखो ईश्वर पर ।"  ईश्वर ..काश कि ये भरोसा आपको भी होता माँ जी...।" अमृता मन ही मन बड़बड़ाई।

थोड़ी ही देर में दोनों क्लीनिक पहुँची..। हे प्रभु इस बार तो अच्छी खुशखबरी सुना दो। सासू माँ मन ही मन प्रार्थना कर रही थी।

"चलिए माँ जी रिपोर्ट मिल गई हैं।" " हाँ हाँ चलो..।" माँ ने गाड़ी में बैठते ही कौतूहल वश जानना चाहा ..। "क्या कहा डॉक्टर ने ?" अमृता बिना किसी प्रतिक्रिया के कार की खिड़की पर अपना सिर टिकाए बाहर की ओर शून्य भाव से देखे जा रही थी। "क्या कहा डॉक्टर साहिबा ने बताती क्यों नहीं ?, या फिर इस बार भी... "

"आपकी प्रतीक्षा पूरी हुई माँ जी।" "सच..!" यह सुनते ही सासू माँ की खुशी का ठिकाना ना रहा। दोनों हाथों को ऊपर की ओर कृतज्ञ भाव से उठाते हुए कहा "लाख-लाख शुक्र है तेरा परवरदिगार आखिरकार तूने मेरी फरियाद सुन ही ली।" पर अमृता इस खुशी से अनभिज्ञ खिड़की से बाहर शून्य में नज़रें गड़ाए हुए जैसे कि किसी प्रश्न का उत्तर ढूढ़ रही थी। अतीत की निर्मम यादों ने उसे फिर से घेर लिया था। किससे अपने मन की व्यथा कहती सिवाय ईश्वर के..। 'क्यों इतना सबकुछ मेरे साथ हो गया और मैं बेबस लाचार खामोश सब कुछ सहती रही। ईश्वर ने भी उसकी.. क्यों नहीं सुनी ??  कितनी ही फरियाद की, गुहार लगाई । मेरी शक्ति को मुझसे छीन कर छिन्न-भिन्न कर दिया गया और मैं अपनी आँखों के सामने अपना सबकुछ लूटता हुआ देखती रही । मेरी ना सही कम से कम उनकी ही सुन लेते प्रभु जो तुम्हारे नाम की घंटी बजाते और आरती करते हैं । तो आज उन मासूमों से विलग होने का दुख तो नहीं होता। आज समाज कहाँ से कहाँ तरक्की की ओर अग्रसर हो रहा है प्रभु, पर तुम्हारे इस धरती पर अभी भी ना जाने कितने ही ऐसे कुंठित मानसिकता वाले इंसान है जो बेटा और बेटी के फर्क को लेकर नकारात्मक सोच लिए बैठे हैं।' इन्हीं ख्यालों में खोई गाड़ी कब दहलीज पर आकर रूकी पता ही नहीं चला। "संभल के ध्यान से उतरना बहू।" घर में प्रवेश करते ही सासू माँ ने हरि काका को आवाज लगाई। "हरि काका जल्दी से गरमा गरम दूध लेकर आओ बहूरानी के लिए।" "चल ठीक से संभल कर बैठ, तू अब हिलना - डुलना नहीं। किसी भी चीज की जरूरत हो तो मुझे बोलना।" सासू माँ की खुशी के मारे ज़मीन पर पाव ही नहीं टिक रहे थे। इस बीच कभी-कभी अमृता की ननद सुप्रिया का भी फोन आता रहता था। "कैसी हो भाभी ? "

"ठीक हूँ सुप्रिया दीदी।"

"ठीक हो बस.. ? । खुश नहीं हों ?"

"हाँ.. खुश भी हूँ ।"

" तुम कैसी हो ? कभी आओ ना इधर।" "हाँ भाभी जरूर आऊँगी बस अब कुछ ही दिनों में भतीजे का मुँह दिखलाओगी ना ?! "

खुशी से सुप्रिया ने दूसरी तरफ से कहा। 

समय बीता और वह शुभ दिन भी आया जब अमृता ने एक बहुत ही सुंदर फूल सी बच्ची को जन्म दिया। ये समाचार सुनते ही सासू माँ के पैरों तले जमीन खिसक गया। पोती का मुँह तक भी नहीं देखा और सुप्रिया को लेकर भागी भागी डॉक्टर के पास गई ,और फनफनाती हुई केबिन में घुसी और पूरे तैश में बोली.. "क्यों डॉक्टर साहिबा आपने तो कहा था इस बार पोते का मुँह दिखाएगी।" डॉक्टर ने भी थोड़ा असमंजस भरी नज़रों से सासू माँ की तरफ देखा और कहा.. "आप दो मिनट रुकिए माँ जी। पहले आप मुझे अपना वो रिपोर्ट दिखाइए जो मैंने आपको नौ महीने पहले दिया था।" सुप्रिया ने फाइल डॉक्टर के आगे बढ़ा दिया । बहुत ध्यान से निरीक्षण करने के पश्चात उन्होंने कहा.. "माँ जी, दरअसल यह रिपोर्ट अमृता की है ही नहीं । इसी नाम की एक और अमृता उस दिन भी आई थी दोनों की जाँच मैंने ही की थी, पर तभी यहाँ अचानक लाइट चली गई । इसी कारण हो सकता है , अँधेरे में गलती से दोनों की फाइल बदल गई होगी.. , और नर्स ने दूसरी अमृता की फाइल थमा दी होगी। "

क्या...या..। अब तो सासु माँ को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करें। धड़ाम से सोफे पर बैठ गई, और लगी अपने नसीब को कोसने। इन सब उथल - पुथल के बीच सुप्रिया मन ही मन बहुत खुश थी। 'जो हुआ अच्छा ही हुआ। इसी को कहते हैं..' "जाको राखे साइयां मार सके ना कोई ।'' इससे पहले कि उसे अपनी सीता जैसी भाभी के खिलाफ माँ के उटपटांग ताने सुनने पड़े, चुपके से वहाँ से खिसक गई और भाभी के पास पहुँचते ही गले लगाकर बधाई की बौछार कर दी ।

"ओ भाभी.. बहुत बहुत बधाई ... आज तो वाकई बहुत खुशी का दिन है।" "हरि काका चलो सब जगह खूब मिठाइयाँ बाँटो और खुशी मनाओं।" "हाँ हाँ बिटिया जरूर ।"आज हरि काका की भी आँखें खुशी से नम हो गई थी। "भाभी अब तुम माँ से बिल्कुल भी डरना मत। हिम्मत से मुकाबला करना।" "हाँ दीदी " अमृता ने अपने फूल सी बच्ची की ओर वात्सल्य भरी नज़रों से निहारते हुए कहा.. "मेरे जीवन में अब शक्ति आ गई हैं..।"



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