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Poonam Singh

Abstract

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Poonam Singh

Abstract

आस

आस

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घंटी की आवाज सुनते ही दरवाजे की ओर वो तेजी से लपके । जैसे कि किसी की बेसब्री से प्रतीक्षा हो।

" बाबा अब तो कबाड़ दे दो। आज ये पांचवा चक्कर है।" 

कबाड़ी वाले को देखते ही बाबूजी तैश में आ गए।

"अरे ये तेरा पांचवा चक्कर हो या सौवां, एक बार कह दिया ना नहीं दूंगा।" 

 "बाबूजी दे दीजिए ना! देखिए ना कितनी रद्दी इकट्ठी हो गई है।" बेटे ने बीच में हस्तक्षेप किया। 

"ऐसे कैसे दे दूं ! वो कबाड़ नहीं मेरी बेटी की लिखी हुई धरोहर, यादें हैं वो।"

'जबसे से शहर में हुए दंगो के बारे में सुना था तब से ही बाबूजी सदमे में आ गए थे। पत्रकारिता की दुनिया जितनी चैलेंजिंग होती है खतरा भी उतना ही होता है। शहर में हुए दंगो की रिपोर्टिंग के लिए दीदी नहीं गई होती तो आज वो हमारे बीच होती। बाबूजी का दिल मानने को तैयार ही नहीं था कि बेटी अब कभी वापस नहीं आएगी। 

'क्या करूं कुछ समझ नहीं आता ...। क्यूं ना बहन की तस्वीर दीवार पर लगा दूं...! तस्वीर लगी देखेंगे तो धीरे धीरे हक़ीक़त मन में उतर जाएगी कि दीदी अब इस दुनिया में नहीं....। हां यही सही रहेगा।'

ठक - ठक की आवाज सुनते ही पिताजी दौड़े आए।

 '" अरे बेटा ये क्या तू ठक - ठक करने में लगा है ? "

"कुछ नहीं बाबूजी बस वैसे ही ...।"  

"ये क्या ! अनु कि तस्वीर तूने क्यूं लगाई ? और उसपर पर पर ये माला भी पहना दिया।  

चल हटा इसे यहां से।" झुंझलाते हुए गुस्से में कहा और माला खींच कर नीचे गिरा दिया। 

"मेरी अनु आएगी... जरूर आएगी । किसी जरूरी काम में फंस गई होगी। वो अपने पिता से कभी नहीं रूठ सकती।"

 बड़बड़ाते हुए घर से बाहर निकल गए ।  

"बाबूजी... ! रुकिए तो सही बाबूजी... कहां जा रहे है ?" इससे पहले की दूर निकल जाए अभी देखता हूं। जरूर किसी पत्रिका की स्टॉल पर गए होंगे। जहाँ वो अख़बार व पत्रिका में दीदी द्वारा लिखित कोई आर्टिकल या संदेश ढ़ूढ़ रहे होंगे । उन्हें अभी भी उम्मीद है कि दीदी ने जरूर कुछ नया लिखा होगा या अपने बाबूजी के नाम कोई संदेश दिया होगा। '

 '..नहीं ...नहीं ! इस तरह बार-बार उन्हें रोकना सही नही होगा, कम से कम दीदी की वापसी के आस में उनके जीने की उम्मीद तो बची है।'


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