" दुआ ले लो "
" दुआ ले लो "
धनराज ऑफिस जाने के रास्ते में हर रोज़ एक मंदिर के दर्शन हेतु उतरता और दर्शन पश्चात मंदिर के बाहर बैठे एक फकीर की झोली में नियमतः कुछ रुपए डालता और ऑफिस के लिए निकल जाता। फकीर भी हर रोज की तरह उसे एक ही आशीर्वाद देता 'दुआ ले लो।'
छुट्टी वाले दिन खासतौर से मंदिर के बाहर बैठे कई दिन - दुखियों को राशन व कुछ जरूरत के समान वितरण करता और जाने से पहले उसके कानो मे वही आवाज़ गूंजती 'दुआ ले लो।'
ऐसे वो अनेकों समाज सेवा कार्य किया करता था। धनराज का मानना था कि आज वह अपने बिजनेस में सफलता के जिस मुकाम पर है वह अपने माता, पिता , ईश्वर व फकीरों की दुआओं का ही फल है।
किन्तु उसे एक बात समझ नहीं आती थी कि बाबा हमेशा आशीर्वाद मे यही क्यों कहते है, 'दुआ ले लो' और बाबा की झोली में जितनी मुद्राएं डालता हूँ इसके पश्चात तो उन्हें भीख माँगने की आवश्यकता पड़नी नहीं चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं बाबा ... । फिर एक ही पल में, वहम सोचकर सर को झटक देता।
किन्तु, आज देव दर्शन के पश्चात फकीर बाबा की झोली में पैसे डालते हुए उसके हाथ ठिठके...। बाबा ने उसकी ओर देखे बगैर ही कहा, "तेरी आँखों में जो प्रश्न है चल आज मैं तुझे उसका उत्तर देता हूँ ।" धनराज एक पल के लिए अचंभित रह गया। किन्तु दूसरे ही पल जिज्ञासा वश उसके पीछे पीछे चल पड़ा । मंदिर से कुछ ही दूरी पर गरीबों की बस्ती थी । वहा पहुँचते ही बस्ती के मुहाने पर ही कूड़े, गंदे नाले के दुर्गंध से उसका नाक भर गया । बस्ती में दौड़ते नंग धड़ंग छोटे-छोटे बच्चे, इधर उधर बैठे लोग , उनकी दरिद्रता देखकर लगता था जिंदगी ने कभी इधर दस्तक ही नहीं दिया हो। उसके मन में प्रश्नों की कतार लग गई किन्तु वो चुपचाप फकीर के पीछे पीछे एक छोटी सी झोपड़ी में पहुँचा। वहाँ एक अत्यंत दुर्बल इंसान एक चटाई पर मैले कुचैले चादर पर लेटा हुआ था। प्रतीत होता था लंबे समय से बीमार हो। उसने अपने अत्यंत निर्बल आवाज में कहा "बाबा आज जल्दी आ गए । "
"हाँ तुम्हे देखने चला आया । कैसी तबीयत है तुम्हारी? "
'...कैसी रहेगी बाबा , ये कैंसर का रोग तो साथ ही ले जाएगा।"
"तुम हमसे दूर ही रहना बाबू...।" उसने धनराज की ओर देखते हुए कहा ।
" ये लो थोड़े और पैसे रख लो, दवा मंगवा लेना।" झोले में से एक पाँच सौ का नोट निकालकर उसे देते हुए कहा।
'ये तो वही नोट है जो अभी कुछ देर पहले मैंने बाबा को दी थी।' धनराज मन ही मन बुदबुदाया । वहाँ से निकलकर वो एक दूसरी झोपडी की ओर गए । वहाँ एक अपाहिज महिला आपने दो नन्हें बच्चों के लिए बासी रोटी परोस रही थी।
"फिर बासी रोटी ?" बाबा ने टोकते हुए कहा।
"...हाँ बाबा ! आज फिर उसने तुम्हारा दिया हुआ पैसा मुझसे छीनकर शराब पी लिया। कसाई कही का। समझता ही नहीं कि मैं अपाहिज कैसे कमाऊ और खिलाऊँ इन्हें।"
"अच्छा यह ले रुपए!" उसने दो सौ का नोट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा। "कुछ ताज़ा बना लेना और यह बासी रोटी मुझे दे दे मैं खा लूँगा।"
यह सब देख उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। अमीरी और गरीबी की दुनिया का गहरा फर्क आज उसने अपने आँखों से देखा। उसका संशयी मन अब शांत हो चुका था। बाबा के पीछे मंदिर से निकल कर उसने गाड़ी का रुख विपरीत दिशा में घर की ओर मोड़ा और शीशा बंद करने से पहले एक बार फकीर बाबा की ओर देखा जो दूर से ही उसके लिए आशीर्वाद का हाथ उठाए हुए थे। 'आज तुम्हारे ,'दुआ ले लो' का अर्थ सही मायने में समझ आ गया बाबा ।'
उसने एक ट्रस्ट खोलकर अपनी सारी सम्पत्ति दरिद्र नारायण की सेवा हेतु लगा दिया।