"अवलंबन"
"अवलंबन"
आज जब वो रिहर्सल के लिए घर से निकली तो उसके मन में अपनी सास और उनकी सहेली के बीच हुई वार्ता ही घूम रही थी। "तुम्हारी बहू तो, कुशल गृहणी होने के साथ साथ धार्मिक भी है । अल सुबह उठ पूजा पाठ से निवृत हो घर का भी सारा काम संभालती है।"
"हाँ... मुझे भी डर था कि बेटे के जाने के बाद अपने आपको संभाल पाएगी या नहीं।
इधर कुछ दिनों से संगीत भी सीख रही है। आगे चलकर स्कूल में बच्चों को संगीत सिखाने में मन रमा रहेगा । नहीं तो पहाड़ जैसी जिंदगी यू काटना आसान नहीं होता है।"
"हाँ... वो सब तो ठीक है लेकिन ध्यान रखना इस उम्र में खुली हवा में पंख लगते भी देर नहीं लगती।"
पति के जाने के बरसों बाद उसने आजादी की हवा में सांस ली थी। यू हल्के रंग के पोशाक, एकांकी जीवन जीते मन में नीरसता आने लगी थी। उसे अहसास ही नहीं रहा कि वो समय के हाथों की कठपुतली बन चुकी है।
अचानक पीछे से किसी की आवाज़ पर उसकी तंद्रा भंग हुई। मैडम आपको छोड़ दू क्या? उसने गौर से उसे एक पल देखा और ना कि मुद्रा मे सिर हिला दिया।
चिलचिलाती धूप... दुपट्टे से सर ढक कर पैदल ही निकल पड़ी।
" आज तुमने कितनी देर कर दी। तुम्हें मालूम था ना होने वाले जलसे के लिए आज फाइनल रिहर्सल है।"
"...आज ट्रैफिक बहुत था इस वजह से लेट हो गया।" उसने सर झुकाये ही दुपट्टे से माथे से बह रहे पसीना पोंछते हुए कहा।
"अच्छा पहले तुम ठंडा पानी , शरबत वगैरह पियो फिर आ जाओ रिहर्सल के लिए हम सब तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।" उसने एक पल उसकी ओर चिंतित दृष्टि से देखते हुए कहा।
कुछ ही महीनों में उसके जीवन में खुशी और आशाओं के कोपल फिर से फूटने लगे थे। आज स्टेज की ओर बढ़ते पद चाप में दृढ़ संकल्प के खनक सुनाई दे रहे थे। ...उसने खुलकर दिल से गाया, आत्मा से निकली आवाज़ का प्रस्फुटन हुआ। सब उसकी गायकी पर मंत्रमुग्ध थे। अपने लय में गाती गई ...गाती गई... अचानक किसी के जोर से झकझोरने की आवाज़ से उसने घबराकर आँखें खोली ।
"तुम भुल से शायद कोई अपना प्रेम पत्र टेबल पर छोड़ कर आ गई थी। चलो घर और आज से तुम्हारा यह गाना बजाना बंद ।" सास ने बहू का हाथ अपनी ओर खींचते हुए कहा। किंतु अब तक इतने सालों पिंजरे में बंद बहू ने अपनी दुनिया तलाश ली थी । उसने सास का हाथ हौले से छुड़ाकर अपने गुरु के करीब जाकर खड़ी हो गई।
देखते ही सास गुस्से में लाल पीली हो गई। "अपने खानदान का क्या जरा सा भी तुम्हें ख्याल नहीं है ? "
"ख्याल ? उसने नज़रे मिलाते हुए विनम्र भाव में कहा ...माँ जी काश की आपने कभी अपने फायदे और बेबुनियाद की चादर से निकलकर मेरा ख्याल किया होता ...। क्षमा चाहती हूँ । ...आज तो आप है लेकिन कल ? अकेली बिल्कुल अकेली... कहते हुए गत सालों में कटे नीरसता के पल उसके आँखो में वेदना बन उतर आईं और छलकते आँसुओ ने उसके दुख की पूरी कहानी कह दी ।
"... थोड़ा इनकी उम्र का ही लिहाज कर लिया होता वह तुमसे कितने बड़े हैं।" कहते हुए उसने उसके गुरु जी ओर अग्नेय दृष्टि से देखा।
" ...अब मुझ विधवा का ही हाथ कौन थामेगा माँ जी ? " वैसे भी ये फैसला सिर्फ मेरा है और मैं खुश हूँ।
... किन्तु मैं अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहती। आपकी सेवा भी करती रहना चाहती हूँ। उसने सर झुकाए विनम्र स्वर में कहा।
किंतु युगों से रूढ़िवादिता का आवरण ओढ़े सास ने एक पल बहू की ओर देखा और अपने आँचल से मुँह पोंछती बाहर चली गई।