सौदा
सौदा


" कहाँ थी रे सुखिया तू 4 दिन से ? बता तो सकती थी। अरे ! फ़ोन ही कर दिया होता तूने। पता है, कितना परेशान थे हमलोग तेरे लिए ?", मिसेज राय की आवाज़ में परेशानी ज़्यादा थी या गुस्सा, इसका अंदाजा लगाना, ज़रा मुश्किल था।
" अरे दीदी ! ठीक तो हैं न आप। क्या हो गया था आपको ?", सिया ने बड़े अपनेपन से पूछा।
" का हम बताते किसी को मेमसाब? हमका खुद ही कौन सा पता था कुछ। कौनो जन हमका बताइस ही न। हम बुध का पहुंचेंन घरे। रतिया में खाय पिय के सुतेल गयन। तब्बे पता चला कि हमार देउर, लुगाई लै के आय गवा।", सुखिया ने ऐसे बताया, जैसे कोई फ़िल्म उसकी आँखों के सामने चल रही हो।
" मतलब दीदी, इन 4 दिनों में आपने अपने देवर की शादी कर दी ?, सिया ने बड़े अचरज से पूछा।
" अरे बहू ! काहे की सादी। ओ तो ऊ लईकी खरीद लावा। गवा रहय ऊ गुहाटी। हमलोगन का बोलिस रहा के चाय के बागन मा ऊका नौकिरी मिली है। उहाँ ई जुगाड़ कै लिहिस। लाख रुपिया मा ख़रीदिस है इका।", सुखिया अपनी धुन में बताती जा रही थी।
सिया को आश्चर्य हो रहा था कि आज भी लड़कियों को मवेशियों की तरह बेचा खरीदा जा रहा था। अजीब-अजीब से खयाल उसके दिमाग में आ रहे थे। आज़ादी के इतने सालों बाद भी इतने पिछड़ेपन की उम्मीद नही थी उसको।
सुखिया अपनी धुन में लगी फ़टाफ़ट काम निपटाने में लगी थी।
" बहू, झाड़ू-बुहारू हुइ गवा। बस्स डस्टिंग करै के बचा है।", इसी वाक्य में छुपी होती थी सिया को चाय बना कर देने की सुखिया की हिदायत। सुखिया 20-22 साल से राय परिवार में काम कर रही थी इसलिए अब वो काम वाली बाई कम, घर की सदस्य ज़्यादा हो गई थी। मिसेज राय के इकलौते बेटे, सुयश यानी सिया के बेटे को उन्होंने बचपन से पाला था। सुयश भी सुखिया काकी को बहुत मानता था।
सुबह की चाय-नाश्ता मिसेज राय, सिया और सुखिया साथ मे ही करते थे। सिया का ऑफिस, घर से बहुत पास था तो वो 9:40 तक निकलती थी। सुयश को 8:30 बजे तक निकलना पड़ता था। आज सिया की तबियत कुछ ठीक नहीं थी, तो उसने छुट्टी ले रखी थी।
लड़की खरीद कर लाने की बात मिसेज राय को नागवार गुज़र रही थी। मिसेज राय और सुखिया, दोनों में बहस करने की अदभुत शक्ति थी। 20-22 सालों में दोनों अक्सर एक दूसरे पर शक्ति परीक्षण कर चुकीं थीं। आज शायद फिर से एक ऐसा ही मौका था। चाय की चुस्कियों के साथ बातों के दौर एक बार फिर शुरू हो गए।
" सुखिया, तुझे पता है, लड़कियों की ये खरीद-फरोख्त क़ानूनन ज़ुर्म है ? कोई पुलिस को खबर दे दे तो उसको जेल भी हो सकती है।", मिसेज राय ने किसी कानूनविद की तरह सलाह दी।
" माफ़ करियो मेमसाब। खरीद-फरोख्त तो पढ़े-लिखे और बड़े-बड़े अमीर लोग भी करत हैं। फरक इत्तो है कि अमीरन के हियाँ लरिका बेचे जात हैं और गरीबन के हियाँ लरकीनी बेचीं जातीं हैं।", सुखिया की तरकश के पहले ही तीर स्व मिसेज राय तिलमिला गयीं।
" क्या मतलब है तेरा ? तू कहना क्या चाहती है ? ज़रा सुनूँ मैं तेरे भी प्रवचन।", मिसेज राय भी किसी घायल शेरनी सी फुफकार उठीं।
" अब देखो न मेमसाब, अमीर लोग अपने लड़के की बोली लगात हैं। जहाँ सबसे आछो दाम मिलत है, हुआँ सादी की हामी भरि देत हैं। पर अमीरन के सौदा मा बेईमानी होत है। काहे से कि जब लइका बेचत हैं तो दाम लेत हैं लईकी वालन से पर अपना लइका, लईकी वालन का देय की जगह, बाकी बिटिया अपने घरे लै आत हैं। अब तुमहि बताओ, कि तुम जाओ बजार, सौदा खरिदे। दुकनदार पैसा लै ले और सौदा न दे तो उहका का कहिओ ?", सुखिया ने अपनी दलील दी।
सिया के दुखते हुए सर पे इन सवालों का बोझ भी पड़ गया था। सच ही तो कह रही थी सुखिया। शादी तो बस एक सौदा ही बन कर रह गयी है आजकल। अगर ऐसा नहीं है तो क्यूँ उसकी और सुयश की शादी में 5 लाख नकद, 1 कार और गहनों की बात तय हुई। असल में जब उनका प्रेम विवाह था तो शादी की नींव, प्रेम पर होनी चाहिए थी न कि सौदेबाजी पर।
सिया खुद को ठगा सा महसूस कर रही थी पर ये तय नहीं कर पा रही थी कि सौदे के किस हिस्से में वो ठगी गयी थी। उसके प्रेम को शादी की मंजिल तक पहुँचाने के लिए जो कीमत उसके घर वालों ने अदा की थी तब वो ठगी गयी थी या सुयश के घर विदा होकर आई, तब ठगी गयी थी।
सुखिया की बात का कोई जवाब तो था न मिसेज राय के पास। इसलिए वो बस इस चाय के दौर को जल्द से जल्द खत्म कर देना चाहती थीं।सुखिया को अचानक छाई इस चुप्पी से लगा कि कुछ गलत निकल गया उसके मुँह से। सिया को अचानक से चाय, बेस्वाद लगने लगी। सौदा शायद बहुत महँगा लग रहा था उसको।