विरासत
विरासत


साहिल और समीरा को एकसाथ देखकर कोई भी बिना मुस्कुराए रह नहीं सकता था। दोनों के रिश्ते की गर्माहट, उनके बीच की ताज़गी , उन दोनों के चेहरे पे साफ झलकती थी। उन दोनों को देख कर कोई कह नहीं सकता था कि दोनों की शादी को 10 साल हो चुके थे। उम्र बढ़ ज़रूर रही थी पर इन दोनों के चेहरों पे कोई सबूत छोड़े बग़ैर। शायद किसी को खुश देख कर उम्र अपने हस्ताक्षर के तरीके बदल देती है।
देखने में इन लव बर्ड्स की शादी के लिए पहला कयास लव मैरिज को ही जाता है पर इनकी शादी का किस्सा सबसे ज़्यादा मज़ेदार है। दोनों के पापा मैट्रिमोनियल साइट पे मिले और दोनों को लगा कि बात बन सकती है। इसी उम्मीद के साथ दोनों के पापा ने इन दोनों को एक दूसरे के मोबाइल नम्बर दे दिए कि आपस में बात कर के देख लें, अगर सब सही लगे तो बात आगे बढ़ाई जाए।
साहिल और समीरा, दोनों ही सरकारी नौकरी में थे। घर में सबसे छोटे होने की वजह से कोई जिम्मेदारी भी नहीं थी। हफ्ते भर बाद जब साहिल के पापा ने समीरा से मिलने या शादी की बात आगे बढ़ाने की बात की तो साहिल ने बड़ा हीअटपटा सा जवाब दिया," मिल के लड़की देखना मुझे समझ में नहीं आता। आप लोगों को सब सही लगे तो शादी की तारीख निकलवा लो। वैसे भी हफ्ता बीत गया और समीरा मुझे बिना किसी शिकायत के झेल रही है, आगे भी झेल ही लेगी।"
यही बात जब समीरा के घर वालों ने पूछी तो समीरा का जवाब भी कम मज़ेदार नहीं था। " क्या देखना है ? वीडियो कॉल पे देख तो लिया है। मुझे कौन सा उसको किसी फिल्म का हीरो बनाना है कि स्क्रीन टेस्ट लूँगी मैं ?
मिलने मिलाने में टाइम वेस्ट करने का क्या फ़ायदा ? शादी ही करवा दो इस से पहले के मेरा मूड बदले।"
शादी के 10 साल बाद भी दोनों इस बात को याद करके खूब हँसते हैं। शादी के पहले और बाद कि ज़िन्दगी में ज़मीन आसमान का फर्क होता है। इनकी शादी भी इससे अछूती नहीं थी। बस इतना ज़रूर था कि बदलाव औरों से ज़रा कम थे। दोनों अपने ऑफिस के काम के दवाव को समझते भी थे और एक दूसरे को पूरा सपोर्ट भी करते थे। इनका एक ही बेटा था, सलिल।
सलिल बेहद समझदार और प्यारा बच्चा था। कभी तोड़-फोड़ या बच्चों के साथ मारपीट जैसी कोई हरकत उसने नहीं की। यहाँ तक कि ऑफिस से ताकि हुई समीरा जब शाम को उसका होमवर्क कराती, सलिल ज़्यादा परेशान नही करता था।
सब कुछ परीकथा जैसा था पर फिर भी कुछ तो था जो कि समीरा को खटक जाता था।
शादी के इतने सालों बाद दोनों का ट्रांसफर बरेली से लखनऊ हुआ था। साहिल के लखनऊ में तमाम रिश्तेदार और दोस्त थे इसलिए ये ट्रांसफर कम, वरदान ज़्यादा लग रहा था। 1-2 महीनों में जब दोनों की गृहस्थी स्थिर हो गयी,तब शुरू हुआ वीकेंड पार्टियों का दौर। जब भी पार्टी समीरा के घर होती, उसकी कोशिश रहती कि सबकुछ अच्छे से हो। अक्सर हो भी जाता था।
दिक्कत तब शुरु हुई जब रमन और राधिका ने इनकी ज़िन्दगी में दस्तक दी। राधिका एक साधारण पढ़ी लिखी लड़की थी। रमन साहिल का जूनियर था। जल्द ही वो भी इस ग्रुप में शामिल हो गया। जब पहली बार रमन के घर पे पार्टी हुई, सब राधिका के टेस्ट की तारीफों के पुल बाँध रहे थे। राधिका ने घर बहुत ही सुंदर तरीके से सजा रखा था। जब खाने पीने का दौर शुरू हुआ तो किसी को पनीर लाजवाब लग रहा था तो किसी ने ऐसे वेज कबाब पहले कभी नहीं खाए थे।खाना सच में बहुत ही स्वादिष्ट था। चलते चलते समीरा ने पूछ ही लिया," राधिका, खाना कहाँ से आर्डर किया ? अगली बार हम भी वहीं से करेंगे।" इससे पहले के राधिका कुछ बोलती, साहिल ने जवाब दिया, " ये सब राधिका के हाथों का जादू है। जबसे रमन ने हमारा ऑफिस जॉइन किया है, तबसे हमलोग अक्सर राधिका के हाथ का कुछ न कुछ खाते रहते हैं।"
"ओह ! सच में जादू है तुम्हारे हाथों में।" बोलने को तो बोल दिया समीरा ने, पर साहिल को अंदाज़ा लग गया था कि तूफ़ान अब दूर नहीं।
सारे रास्ते दोनों में आपस में कोई बात नहीं हुई। सलिल, कहने को 6 साल का था, पर समझ बड़े बुजुर्गों सी थी उसमें। बातें भी वो वैसी ही करता था। आज उसको भी चुप रहने में ही अपनी भलाई नज़र आई। घर पहुँच कर तीनों ने कपड़े बदले और सोने चले गए।
नींद समीरा की आँखों से कोसों दूर थी। ऐसा नहीं था कि साहिल ने पहली बार किसी की तारीफ की थी या उसको राधिका से कोई दिक्कत थी। पर कुछ तो था जो समीरा को सोने नहीं दे रहा था।
उसको याद आया कि जब पहली बार उसके यहाँ पार्टी होने वाली थी, साहिल ने समीरा से कहा, " खाना मैं आर्डर कर लूँगा, बाकी ज़िम्मेदारी तुम्हारी। खाना तुमसे मैनेज नहीं हो पायेगा।" फिर बाद में भी जब जब पार्टी हुई, ये एक नियम बन गया। खाने की ज़िम्मेदारी हमेशा साहिल की ही रहती।
ज़्यादा दूर क्या जाना, कुछ महीने पहले की पेरेंट्स टीचर मीटिंग में सलिल की टीचर ने शिकायत की थी कि वो अपना लंच अक्सर आधा डस्टबिन के हवाले कर देता है। घर आकर जब उसने साहिल को ये बात बताई, तो उसने भी सलिल का ही पक्ष लिया और बोला," आधा तो खा लेता है न।" साहिल के बोलने का अंदाज़ इतना अजीब था कि समीरा को ज़्यादा बुरा लग गया।
उस वक़्त भी इस टिप्पणी पे ऐसा घमासान वाक युद्ध हुआ दोनों के बीच, के आसानी से उसे तीसरे विश्व युद्ध की श्रेणी में रखा जा सकता था। समीरा जितना सोने की कोशिश कर रही थी, उतनी ही उसको बातें याद आ रही थीं।
जब तब सलिल भी अपने दोस्तों के टिफ़िन पे लंबी कहानी सुनाता। कभी किसी की मम्मी ने सत्तू का पराठा भेजा था लंच में तो किसी की मम्मी सैंडविच बहुत अच्छे बनाती थी। समीरा तरस गयी थी कि उसका बेटा कभी उसकी भी ताऱीफ कर दे। बहुत पूछने पे एक बार सलिल ने बोला था, "मम्मा, मैगी ठीक बनती है आपकी।" अब इसको तारीफ या बेइज़्ज़ती, किसी भी श्रेणी में जगह मिल सकती है।
पिछले महीने सलिल का बर्थडे था। समीरा के मम्मी पापा इस बार महीने भर के लिए आये थे। नानी को देखते ही सलिल सबसे ज़्यादा खुश था। लगातार उनसे अपनी फरमाइशें बता रहा था।
" नानी, आपको याद है न गुलाब जामुन, जलेबी और बेसन के लड्डू आपको बनाने हैं। शाम को खीर खिला दो आप।प्लीज अपने हाथ के आलू के पराठे कल टिफिन में देना। हमेशा आशू की मम्मा ही आलू के पराठे बेस्ट बनाती हैं। सबको कल पता चलेगा कि नानी इज बेस्ट।" इतना कहते ही उसने नानी के गले में बाहें डाल दीं। सुधा जी समीरा की माँ थीं। खाना बनाने और खिलाने का इनको खास शौक था। जब समीरा, संजना और संजय छोटे थे, तब इन सबके दोस्त सुधा जी के पीछे लगे रहते थे, " आँटी ये बना दो। आँटी वो खिला दो।"
अब इन तीनों के बच्चों का भी वही हाल था। तीनों अलग-अलग शहर में रहते थे। सुधा जी के पतिदेव, रमेश जी रिटायरमेंट के बाद, सुधा जी के साथ कानपुर में रहते थे। संजना अपने पति और 2 बच्चों के साथ दिल्ली में रहती थी। संजय अपनी पत्नी और 5 साल की बिटिया के साथ मुंबई में रहता था। समीरा ही सबसे पास में थी तो सुधा और रमेश जी अक्सर उसके पास आ जाते थे, इससे समीरा की भी बड़ी मदद हो जाती थी। हालांकि ये लोग कभी 10-15 दिन से ज़्यादा नहीं रुकते थे। पर नाना- नानी के आने का सुख सलिल के लिए अनमोल था। इस बार तो उसने ज़िद्द करके उनको लंबे समय के लिए बुलाया था।
अगले दिन सन्डे की छुट्टी थी और वो देर तक सो सकती थी पर अभी तो मुद्दा ये था कि रात के 1 बज चुके थे पर उसको नींद आ ही नहीं रही थी। यही सब सोचते सोचते जाने कब उसकी आंख लग गयी। सुबह उठी तो सर दर्द से फट रहा था। कोई और सन्डे होता तो शायद थोड़ा और सो लेती वो, पर आज तो किचन से आलू के पराठों की खुशबू ने उसे उठा दिया। वो समझ गयी कि माँ ने सबका नाश्ता बना दिया है।
" समीरा बेटा, तू भी जल्दी से आ के नाश्ता कर ले। सब इंतज़ार कर रहे हैं तेरा।" सुधा जी ने किचन से ही आवाज़ लगायी।
समीरा भी जल्दी से तैयार हो के डाइनिंग टेबल पर पहुँच गयी। सलिल और साहिल तो पहले से टेबल पर थे।
" वैसे कुछ भी कहो, माँ पूरी अन्नपूर्णा हो आप। आपके हाथों में जादू है।", साहिल ने सुधा जी की तारीफों के पुल बाँधने शुरू कर दिए।
" मेरी नानी तो मास्टर शेफ हैं।", सलिल ने उसी में अपनी राय जोड़ दी। रमेश जी भी मुस्कुरा दिए। सब उन आलू के पराठों में इतना खो गए कि किसी को समीरा की आँखों की नमी दिखी ही नहीं। इतने में काम खत्म कर के सुधा जी भी नाश्ता करने सबके साथ बैठ गयीं। समीरा का उतरा हुआ चेहरा देखते ही बोल पड़ी, " क्या हुआ ? इतनी उदास क्यूँ है सुबह सुबह ?"
समीरा इतना सुनते ही फफक के रो पड़ी। किसी को उम्मीद नहीं थी कि वो इस तरह रो भी सकती है।
" मैं दुनिया की सबसे बुरी कुक हूँ। मेरे हाथ में वो स्वाद है ही नहीं। मेरे बेटे को , मेरे पति को कभी कुछ अच्छा बना के खिला ही नहीं पाती। आप तो दुनिया की बेस्ट कुक हो माँ। नानी के भी हाथों में जादू था। जब अच्छे स्वाद की विरासत थी घर में, तब भी क्यूँ नहीं दी आपने मुझे ये विरासत ? आपने बचपन से कभी हम दोनों बहनों को किचन में नहीं जाने दिया। क्यूँ किया ऐसा आपने ?", इतना कह कर वो चुप हो गयी। शायद उसकी आवाज़ इतनी रुँध गयी थी कि कुछ समझ पाना मुश्किल था।
सारी बात सुनने के बाद सुधा जी ने जिस गंभीरता के साथ समीरा को समझाया, उससे उनका इतने सालों के दर्द सहजता से महसूस किया जा सकता था।
" बेटा, दरअसल मैं चाहती थी कि तुम दोनों बहनें अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो और अपने पैरों पे खड़ी हो। आज मैं तुम दोनों को देख के गर्व महसूस करती हूँ। मुझे खुशी है कि तुमको कभी अपनी छोटी से छोटी ज़रूरत के लिए अपने पति या किसी के भी आगे हाथ नही पसारना होता है। रही बात बुरी कुक की, तो खाना हाथों से नहीं, दिल से बनाया जाता है।
तुम उसको काम की तरह नहीं करो। उसमें रुचि लो, तुम्हारे हाथों का स्वाद सबकी ज़ुबान पर चढ़ जाएगा। रही बात तुमको कुकिंग की विरासत न देने की, तो उसकी वजह भी सुन लो। मुझे कुकिंग का शौक हमेशा से था। शादी के बाद यही शौक मेरे लिए अभिशाप बन गया। पहले शादियों में कैटरर का चलन नही था, मिसराइन बुलाई जाती थीं खाना बनाने के लिए। खानदान तो छोड़ो, गांव तक मे अगर शादी होती या कोई और मौका होता, मुझे रसोई संभालनी पड़ती। जब तुम तीनों भाई-बहन स्कूल जाने लगे, तो मैं भी तुम्हारे पापा के साथ शहर में आ गयी।
पर यहाँ भी मेरी कैद खत्म न हुई। आये दिन हमारे घर मे तुम्हारे पापा के दोस्तों का जमावड़ा लगता और मैं नज़र आती किचन में। मैं ज़िन्दगी के छोटे-छोटे पलों के कभी आनंद नहीं ले पाई। यही वजह थी कि मैंने मन ही मन ठान लिया था कि वो विरासत जो मेरी बेटियों से उनकी छोटी छोटी खुशियों के पल छीन ले, अपनी बेटियों को दूँगी ही नहीं।"
किसी मंझे हुए दार्शनिक की तरह सुधा जी ने अपना पक्ष रखा। रमेश जी, जो आज तक अपनी पत्नी की पाक दक्षता पे फूले नहीं समाते थे, आज पहली बार सुधाजी के नज़रिए से सोचने लगे। अचानक एक चुप्पी जो पसर गयी थी सुबह सुबह नाश्ते के समय, उसको तोड़ते हुए वो बोले," सिर्फ अच्छा कुक होना ही सबकुछ नहीं है बेटा। तुम सबका कितना ध्यान रखती हो। ऑफिस और घर, दोनों की ज़िम्मेदारी बख़ूबी निभा रही हो। सबसे अच्छी बात है कि सलिल बेटू को तुम पूरा समय दे पाती हो। उसकी पढ़ाई पर भी ध्यान देती हो।
इन बीते सालों में जब भी मैं साहिल के परिवार वालों से या रिश्तेदारों से मिला, सब तुम्हारी बहुत सराहना करते हैं। रही बात खाना बनाने की, तो मेरी बिटिया बहुत जल्द ही सबको पीछे छोड़ देगी। आखिर विरासत को थोड़ा सा पॉलिश ही तो करना है।"
ये सुनते ही सबके चेहरों पे खुद-ब-खुद मुस्कुराहट आ गयी।
" वैसे माँ, आपके आलू के पराठे सच मे लाजवाब बने हैं।", जैसे ही समीरा ने ये बोला, सबकी हंसी निकल गयी। वो बोझिलता, जो थोड़ी देर पहले अपना कब्जा जमा चुकी थी, शायद खिड़की के सहारे फुर्र से उड़ गयी।