सरस्वती सदन
सरस्वती सदन
अपना घर होना, सबका सपना होता है। जब हमारा ये सपना साकार हुआ, तब आया सवाल उस सपनों के घरौंदे के नामकरण का। मैंने अपने घर का नाम, अपनी दादी सास के नाम पर ' सरस्वती सदन' रखा। मैं उनके साथ बहुत ज़्यादा तो नहीं रही, पर जो भी समय उनके साथ बिताया, वो यादगार बन गया। सभी उनको सरसुती-सरसुती बुलाते। एक दिन मैंने उनसे पूछा तो पता चला कि 'सरसुती' उनके नाम, सरस्वती का ही विकृत रूप है। मैं पेशे से डॉक्टर हूँ और ससुराल पक्ष की पहली कामकाजी बहू भी। मेरी दादी सास को मेरी पढ़ाई लिखाई पर खासा गर्व था। बहुत प्रोत्साहित करती रहती थीं जब तब। खुद भी इंटर तक पढ़ी थीं वो। अपने इंटर के सर्टिफिकेट को वो सबको बड़े प्यार से दिखाती थीं। जब मेरा बेटा हुआ तो उसका नाम 'सुबोध' भी उन्होंने ही रखा था। बहुत खुश हुईं थीं वो अपने इकलौते पोते के बेटे को गोद में ले कर।
" अब तो सोने की सीढ़ी चढ़ के स्वर्ग जाऊँगी मैं। परपोते का सुख ले ही लिया अब मैंने।", दादी ने बड़े चाव से कहा था। डॉक्टर होने के साथ-साथ मेरी सरकारी नौकरी थी,जिसके चलते छुट्टियों की थोड़ी मारामारी रहती थी। मैं, परिवार को समय भी कम ही दे पाती थी। इस बात का अपराधबोध भी कम न रहता मुझे।
सब कुछ सही चल रहा था कि अचानक से कोरोना नाम के दैत्य ने संसार में दस्तक दे दी। कहने को तो ये वायरस था, मतलब उसके जीवित या मृत होने में भी संशय था, पर इसने चुपके से सबके जीवन में उथल-पुथल मचा दी थी।अब हमेशा से इंसान अक्सर विपदा में भगवान को याद करता है और बीमारी में डॉक्टर को। इस बार भी यही हुआ, हम डॉक्टरों को हमारा फ़र्ज़ बुला रहा था। हम भी कहाँ पीछे हटने वालों में से थे, हम तो तैयार थे एक अनजाने दुश्मन से लड़ने को।
चारों तरफ लॉक डाउन हो चुका था। कर्फ़्यू लगा था सड़कों पर। बाज़ार बन्द थे। सिर्फ दूर तक पसरा था सन्नाटा। ऐसा माहौल शायद ही इतिहास में कभी रहा हो और ईश्वर करे कि आने वाली पीढ़ियों को कभी ऐसा समय न देखना पड़े।
कोरोना कितना भी बुरा क्यूँ न हो, इसने डर के साये में ही सही, घर वालों को आपस मे जोड़ दिया था। मेरे पति, सुयश हमेशा घर पर रह कर बेटे सुबोध यानी सुब्बू के साथ कुछ वक़्त बिताना चाहते थे, पर काम के चलते ऐसा कभी हो नही पाया था। कोरोना ने उसे भी संभव कर दिया था। सुयश का घर से काम करना और सुब्बू के ऑनलाइन क्लासेस ने दोनों को साथ रहने का अच्छा मौका दिया था पर मैं इतनी किस्मत वाली नही थी कि घर पर रह पाती। मुझे हॉस्पिटल जाना ही था।
बाकी के दिनों में जब हम मियाँ-बीवी काम के चलते घर से बाहर रहते थे तब सुब्बू को घर पर अपनी कामवाली, निर्मला के साथ छोड़ते थे। निर्मला हमारे साथ, सुब्बू के जन्म से पहले से है तो अब वो कामवाली कम है, हमारे घर की सदस्य ज़्यादा। सुब्बू भी सारा दिन " निर्मला आँटी-निर्मला आँटी" की रट लगाए रहता। निर्मला भी सुब्बू से उतना ही लगाव रखती। उसका लगाव शायद इसलिए भी ज़्यादा था क्योंकि खुद उसका बेटा निशांत, हमारे सुब्बू से कुल 4 साल ही बड़ा था। शायद सुब्बू में उसको निशांत की छवि दिखती थी। निर्मला कॉलोनी के पास की झुग्गी झोपड़ी में रहती थी, उसका पति रामदीन, रिक्शा चलाता था। दोनों की आमदनी से किसी तरह घर चल रहा था उनका।
कोरोना अपने साथ लॉक डाउन का सन्नाटा लाया था। लोग घरों में कैद थे तो खाली सड़कों पर तो रिक्शा दौड़ता नहीं। बस, आमदनी का ज़रिया बन्द हो गया। निर्मला ने जब मुझसे गाँव जाने की बात की तो मुझे उसकी मजबूरी समझ मे आ गयी थी। तभी उसने कहा," हम दोनों जन भूखे पेट भी सो लेंगे पर नीशू की बड़ी चिंता है दीदी। हो सके तो इसको अपने पास ही रख लो। बड़ी मेहरबानी होगी आपकी। घर के काम में भी मदद कर देगा।"
ये तो वही बात हुई कि, अंधा क्या चाहे, बस दो आंखें। मैंने सोचा कि सुब्बू को भी अकेलापन न होगा। मेरी भी मदद हो जाएगी और नीशू भी कोरोना के खतरे से बचा रहेगा। मैंने भी झट से नीशू को रोकने की हामी भर दी। नीशू कभी कभार हमारे घर आता रहता है तो सुब्बू उसे जानता भी है। मेरे हामी भरते ही निर्मला के चेहरे पे खुशी की लहर दौड़ गयी। शायद नौकरी से निकाले जाने का अंदेशा टलता नज़र आ रहा था। मैं वैसे भी उसे नौकरी से न निकालती पर गरीब आदमी के डर का इलाज शायद एक उम्मीद से हो जाता है।
मैं हॉस्पिटल से जब घर लौटती, सुयश दोनों बच्चों के साथ मिल कर खाना बना लेते थे।मुझे गेस्ट रूम में पनाह लेनी पड़ी। मैं मरीजों के सीधे संपर्क में थी, इसलिए ऐतिहात बरतना बहुत ज़रूरी था। लगातार 15 दिन काम करने के बाद, मेरी भी तबियत साथ छोड़ती नज़र आ रही थी, इसलिए मुझे छुट्टी दी गयी। मैं अपने नए कमरे में सो रही थी। तभी बगल के ड्
रॉइंग रूम से सुब्बू और नीशू की आवाजों से मेरी नींद उचट गयी। दोनों बहुत धीमी आवाज़ में या यूँ कहें कि फुसफुसाहट में बात कर रहे थे। मुझे लगा कि पता नहीं ये नीशू क्या पाठ पढ़ा रहा है सुब्बू को।
सुब्बू को लेकर मैं हमेशा से बहुत जल्दी घबरा जाती थी। बहुत मन्नतों के बाद मिली औलाद शायद एक वरदान जैसी ही लगती है। सुब्बू भी मेरे लिए एक वरदान ही तो है। हालांकि उसने कभी भी मुझे परेशान नहीं किया लेकिन माँ का दिल है, कभी भी किसी भी बात पर घबरा सकता है। जब मैंने निर्मला के कहने पर नीशू को अपने घर में रखने का निर्णय लिया था, कही न कहीं एक डर तो था कि नीशू की संगति में सुब्बू न जाने क्या उल्टा सीधा न सीख जाय। नज़र भी रखते थे दोनों बच्चों पर हम दोनों मियाँ-बीवी, जितना संभव था। बच्चों का क्या है, सही-गलत का बोध तो होता नहीं, कहीं से भी कुछ भी सीख लेते हैं।
मैं अपने ही विचारों में खोई हुई थी कि सुब्बू की आवाज़ कुछ तेज़ हुई। अब मैं साफ-साफ दोनों की बातचीत सुन सकती थी।
" अरे नीशू भैया, चिंता क्यूँ करते हो? मैंने बोला न आपको, मेरी मम्मा मना नहीं करेंगी। मैं आपको पढ़ना-लिखना सिखाऊंगा, बिल्कुल जैसे स्कूल में सिखाते हैं। मेरी मम्मा ने मेरी नर्सरी की भी किताबें बहुत संभाल के रखी हैं। मैं टीचर बन जाऊँगा और आप मेरी क्लास के बच्चे बन जाना।", सुब्बू बिल्कुल किसी बड़े की तरह बात कर रहा था।
" पर जब ये कर्फ्यू हटेगा तो मुझे झुग्गी में वापस जाना पड़ेगा। मेरी अम्मा और बाबा पढ़ने को मना कर देंगे। तब क्या करेंगे हम दोनों। बाबा कह रहे थे किसी ढाबे पे मुझे नौकरी दिलवाने को। कैसे पढ़ूँगा मैं ? सुब्बू बाबा, तुमको तो पता है न कि मैं मेमसाहब की तरह डॉक्टर बन के गाँव में अस्पताल खोलना चाहता हूँ।", नीशू की भर्राई आवाज़ में उसके आंसुओं की खनक साफ सुनाई पड़ रही थी।
" मैंने बोला न, तुम चिंता न करो। मैं मम्मा से बोलूँगा कि ऊपर वाला कमरा खाली है, उसी में तुम अपने अम्मा-बाबा के साथ रह लेना। रामदीन अंकल अपने रिक्शे से हम दोनों को स्कूल भी छोड़ देंगें। निर्मला आँटी मना नहीं करेंगी।", सुब्बू ने बड़े विश्वास के साथ कहा।
" पर हम इतना किराया कहाँ से लाएंगे। हम गरीब लोग हैं सुब्बू बाबा। मैं कभी नहीं पढ़ पाऊँगा। मैं गरीब ही रहूँगा। मैं अपनी अम्मा को नई साड़ी कभी नहीं दिला पाउँगा न ही बाबा का रिक्शा चलवाना कभी छुड़वा पाउँगा।", नीशू से अब आँसू रुक नही सके और वो फ़ूट-फ़ूट कर रोने लगा।
मैं भी अब खुद को रोक नहीं पा रही थी। मेरे कदम भी खुद-ब-खुद उधर चल पड़े, जहाँ मेरा बेटा अपने दोस्त का भविष्य सँवार रहा था।
" क्या बातें चल रही हैं, ज़रा मुझे भी तो पता चले।", मेरे अचानक पहुचने से दोनों चौंक गए।
" कुछ भी तो नहीं मेमसाहब", नीशू ने हकलाते हुए कहा।
मैंने सुब्बू की तरफ देखा तो उसने बड़े प्यार से मेरे गले मे बाहें डालते हुए बोला," मम्मा, आप कहती हैं न कि सब बच्चों को पढ़ना चाहिए। नीशू भैया भी पढ़ना चाहते हैं पर इनके पास स्कूल जाने के लिए पैसे नहीं हैं न। इसलिए मैंने इनको बोला कि मैं इनको पढ़ा दूँगा। मेरी बुक्स रखी हैं न ?आप गुस्सा तो नहीं होंगी न?" सुब्बू ने मेरा चेहरा देखते हुए पूछा। शायद सुब्बू को लगा कि मैं उसको डाँट दूँगी।
" बस इतनी सी बात। अगर नीशू पढ़ना चाहता है, तो मैं खुद उसे पढ़ाऊंगी। बेटा, विद्या बांटने से बढ़ती है। ये तो बहुत अच्छी बात है कि नीशू का पढ़ाई करने का मन है।", मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
" मम्मा, नीशू भैया कब से पढ़ना शुरू करेंगे?", सुब्बू ने अधीर होते हुए पूछा।
"अभी से। जाओ दोनों, ऊपर वाले स्टोर रूम में पुरानी बुक्स हैं। सुब्बू, लेकर आओ। नीशू की पढ़ाई आज से शुरू होगी और इसकी स्कूल की फीस मैं दूँगी।"
" मतलब मुझे ढाबे पर नौकरी नहीं करनी पड़ेगी?", नीशू ने चहकते हुए पूछा।
मेरे 'न' में सिर हिलाते ही उसने मेरे पैर छुए। मुझे गर्व महसूस होना चाहिए था खुद पर लेकिन उस क्षण मुझे अपने बेटे की सोच पर गर्व महसूस हो रहा था। आंखों ही आँखों मे अनुमति लेकर दोनों बच्चे चहकते हुए सीढ़ियों से छत पर गए अपनी बुक्स लेने। पढ़ेगा देश, तो बढ़ेगा देश।
इस कोविड ने मुझे मेरे माँ के फ़र्ज़ निभाने में अव्वल घोषित कर दिया था। आज मैं उस अपराधबोध से भी मुक्त हो चुकी थी कि कामकाजी महिला होने के नाते मेरी परवरिश में कहीं कुछ कमी तो नहीं रह गयी। आज इस लॉक डाउन ने इन विषम परिस्थितियों में भी नई ऊर्जा का संचार किया था। मेरे घर का नाम आज सार्थक हो चला था। सरस्वती की कृपा बरसेगी अब मेरे घर पर। सरस्वती-सदन ने समाज के प्रति अपना दायित्व निभा दिया।