प्रेरणा
प्रेरणा


विदुषी एक उच्च पदासीन सरकारी सेवारत अधिकारी थी। हमेशा से पढ़ाई लिखाई में अव्वल रही। ये अलग बात है कि उसने पढ़ाई की विज्ञान की, नौकरी है वित्तीय सेवा की तो अब वो विज्ञान को किनारे कर, अर्थशास्त्र की विशेषज्ञ हो गयी है। इतने सालों में एक बात जो नहीं बदली, वो थी उसका साहित्य के लिए प्रेम। उसकी लिखी कहानियों और कविताओं को अखबारों और पत्रिकाओं में जगह मिली तो उसका हौसला बढ़ा। फिर आखिरकार वो दिन आ ही गया जब उसका उपन्यास ' वेदना' छप गया। उसकी लेखनी का जादू ऐसा चला कि मात्र 6 महीनों में उसकी 1 लाख से ज़्यादा प्रतियाँ बिक गयी। ये उपन्यास एक ऐसी लड़की के जीवन पर आधारित था, जिसने बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को झेल कर भी हार नहीं मानी । उस लड़की के संघर्ष की कहानी थी 'वेदना' में। पिछले 1 साल से विदुषी उस लड़की से बार बार मिली उपन्यास के सिलसिले में। उपन्यास की अपार सफलता अपने साथ कुछ ज़िम्मेदारी भी लायी थी। अब समस्या ये थी कि अगली बार भी अपने पाठकों को वो निराश नहीं कर सकती थी।
पिछली उपन्यास में वो इतना खो चुकी थी कि नायिका के दर्द को कहीं न कहीं उसने अपनी ज़िंदगी में जगह दे दी थी। कुछ नया लिखना चाहती तो थी, पर विचारों का सिरा पकड़ में ही नहीं आ रहा था। उसको अपनी नई कहानी की प्रेरणा मिल ही नहीं रही थी। ये भी कह सकते हैं कि विचार उसके ज़ेहन तक आते-आते रास्ते बदल रहे थे। उसकी उलझन बढ़ती जा रही थी। यही हाल उसकी झुंझलाहट का भी था। ऑफिस में भी सारा दिन उसका किसी काम में मन न लगा। शाम में मौसम कुछ खुशनुमा हुआ तो उसका मन घर जाने को हुआ। शायद घर जाकर मन कुछ स्थिर हो जाये, इसी विचार से वो घर के लिये निकल गयी। आज एक अजीब इत्तेफाक था कि आज सरकारी गाड़ी का ड्राइवर छुट्टी पर था और उसकी खुद की गाड़ी सर्विस सेंटर पे थी। कुल मिला के वो आज टैक्सी के भरोसे थी। बहुत दिनों बाद इतना खुशनुमा मौसम था। वो पैदल ही चल पड़ी कि अगले स्टॉप से मेट्रो पकड़ के घर जल्दी पहुँच जाएगी। विदुषी के दिमाग में विचारों का लगभग एक जाल सा बन चुका था। विचार बहुत थे पर सब एक दूसरे में उलझ से गए थे।
घर, ऑफिस, बीमार बुजुर्ग सास-ससुर और ऊर्जा की फैक्ट्री उसका छोटा सा बेटा.... सबमें तालमेल बना पाना आसान नहीं था। उसी सब के बीच से थोड़ा सा वक़्त खुद के लिए चुरा पाना उसके लिए बहुत मुश्किल होता था। अपने विचारों में खोई हुई कब वो अपनी कॉलोनी की रोड पे पहुँच गयी, उसको पता ही नहीं चला। जब उसकी तन्द्रा टूटी, तब तक वो अपने घर से 5 मिनट की दूरी पे थी। अचानक से उसको याद आया कि रोज़ की तरह आज रास्ते में न तो रात के खाने में क्या बनेगा, ये सोचा और न ही इस बात से उसको डर लगा कि आज घर में बेटू की शैतानियों की लिस्ट कितनी लम्बी होगी। अपनी ही सोच पे वो मुस्कुरा उठी। अपने ही खयालों के ताने बाने में वो सीधे अपने कमरे में आ गयी।
अचानक से उसको अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ, बेटू खुद से चल के उसके सामने आ गया और उसकी साड़ी का पल्लू पकड़ के खींचने लगा ।घुटनों के बल रेंगते-रेंगते आज पैरों से चलने का शुभारंभ किया। उसके मुँह से निकला वो अनमोल शब्द, "माँ" काफ़ी था विदुषी के दिमाग में चल रहे तूफान को शांत करने के लिए।
आखिर एक लंबी जद्दोजहद के बाद उसको अपनी नई कहानी की प्रेरणा जो मिल गयी थी। इस बार माँ और बच्चे के रिश्ते की गर्माहट को उसने दर्द से ऊपर जगह दी थी। उसकी अगली उपन्यास मातृत्व पे केन्द्रित होगा। शायद यही एक तरीका था उसके पास, जिससे वो वापस अपनी ज़िंदगी मे सकारात्मकता वापस ला सकती थी।