Sulakshana Mishra

Drama

4.2  

Sulakshana Mishra

Drama

कर्ज़

कर्ज़

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306


गाँव की अपनी एक अलग ही सभ्यता होती है। गाँव आज भी अपनी संस्कृति को संजो के रखने में सबसे आगे हैं। ये कहना गलत न होगा कि आज संस्कृति अगर ज़िंदा है, तो गाँव की एक बड़ी भूमिका है इसमें।

शिव की नगरी, बनारस से 80-90 कि.मी. दूर था, जिला सोनभद्र। वहीं था एक कस्बा ' रॉबर्ट्सगंज' जिसे वहाँ के निवासी प्यार से 'रापड़गंज' ही कहते थे। यहीं से कुछ 10-12 कि. मी. दूर था 'बहुआर'।एक औसत भारतीय गाँव के जैसा ही गाँव था 'बहुआर' गाँव। आस-पड़ोस के गाँवों में सबसे संपन्न था बहुआर। 

बहुआर के लगभग सभी घर आधे कच्चे और आधे पक्के थे। इन घरों के झुरमुट में एक अलग ही आकर्षण था, गाँव के बीचोबीच बानी उस विशालकाय कोठी का। सबके बीच कौतूहल का विषय रहती थी वो आलीशान कोठी। ये कोठी थी जमींदार रघुपति नाथ त्रिपाठी की। ईश्वर ने रघुपति नाथ को सब कुछ खुले हाथ से दिया। शान-शौक़त, ऐश्वर्य, वैभव किसी भी तरफ से रघुपति नाथ को ईश्वर से कभी शिकायत न रही। शादी भी ऐसी लड़की से हुई, जिसे बड़ी फुर्सत से खुद ईश्वर ने रच बस के गढ़ा था। उतनी रूपवती स्त्री पूरे गाँव तो दूर, पूरे जिले में न थी। ईश्वर सब कुछ दे दे और कोई कमी न छोड़े तो शायद ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्रचिन्ह लग जाये। बस ऐसी ही नियति थी रघुपति नाथ की। शादी के समय रघुपति नाथ थे 14 बरस के और उनकी बालिका वधू सरोज थी 10 बरस की। शादी तो हो गयी पर गौना हुआ 7 बरस बाद। अब सरोज 17 बरस की नवयुवती थी। रंग रूप में तो रघुपति नाथ भी किसी से उन्नीस न थे पर सरोज के आगे कुछ फीके ही नज़र आते थे। वक़्त ने अपनी रफ्तार पकड़ रखी थी। गौना हुए भी 10 बरस हुए पर सरोज एक बच्चे का मुँह देखने को तरस गयी। सरोज ने भी हार न मानी। देवी-देवताओं का जीना मुश्किल कर दिया। ईश्वर को डिगाने के लिए उसकी कठिन तपस्या कम थी शायद, इसीलिए उसने आंसुओं का सहारा लिया और अन्ततः आँसुओ से ईश्वर का हृदय पिघला दिया। 10 बरस के लंबे अंतराल के बाद रघुपति नाथ के घर भी किलकारियां गूँजी। जन्म हुआ एक बहुत ही प्यारे से बेटे का, जिसका नाम रखा गया मानवेन्द्र त्रिपाठी। प्यार में सब उसको 'मन्नू' ही बुलाते।

जमीनदारों के घरों में नौकर-चाकर की फौज रहती है। त्रिपाठी निवास भी इसका अपवाद न था। हर काम के लिए नौकर थे। कुँए से पानी निकालने का जिम्मा था बुधिया कहारिन के सिर। बुधिया के पति की बुखार से जब मौत हुई, तब उनकी बिटिया 'पार्वती उर्फ परबतिया' 2.5-3 साल की ही थी। अब उसको अकेले कहाँ छोड़ा जाय, यही सोच के बुधिया अपनी बेटी के साथ ही हवेली पे आती। बुधिया की गरीबी पे तरस खाया सरोज ने या उसके अकेलेपन पे, ये तो दावे के साथ कोई नहीं कह सकता, वजह चाहे जो हो, सरोज ने हवेली के एक कमरे में बुधिया का घर बसा दिया। जबसे बुधिया ने हवेली में रहना स्वीकार किया, परबतिया की तो लॉटरी लग गयी। भरपेट खाना, शाम में झूले की पींगें और रात को नरम बिस्तर की नींद। कुल मिला के अब कोई कमी न थी उसको। 

बच्चों की गणित अक्सर बड़ों की गणित से अलग होती है। डॉक्टर की गणित के हिसाब से सरोज दोबारा माँ नहीं बन सकती थी। 8 बरस के मन्नू की गणित के हिसाब से मन्नू के परिवार की पूर्ति के लिए एक बहन चाहिए थी। मन्नू को एक बहन की ज़रूरत ऐसी थी जैसे मछली को पानी की। जब पूरा गांव राखी के त्यौहार के जश्न मनाता, सरोज को लगता कि मन्नू रो-रो के पूरा गाँव डुबो देगा। मन्नू रोज़ शाम में सरोज से एक बहन के लिए बालहठ करता। जब से बुधिया और परबतिया हवेली में आ बसे, मन्नू के व्यवहार में ज़मीन-आसमान से फर्क आया था। परबतिया दिन भर मन्नू के आगे-पीछे 'मन्नू दादा-मन्नू दादा' की रट लगाती फिरती। दोनों में उम्र का 5 बरस का फासला ज़रूर था पर दोनों में जल्द ही बड़ा गहरा प्यार हो गया। अब मन्नू भी परबतिया के बिना न खाना खाता, न अकेले खेलता। बुधिया अंदर ही अंदर डरती रहती के कहीं मालिक उसको हवेली से बाहर न फ़ेंक दें। परबतिया को समझाती के मन्नू बाबू से दूर रहे पर दोनों बच्चों को कोई अलग न कर पाता। जब राखी का त्यौहार आया, परबतिया ने जिद करके सबसे सुंदर राखी अपने मन्नू दादा को बाँधी। मन्नू दादा भी खुद में फूल न समाए। रुपया-पैसा, कपड़े और छम छम करती पायल से परबतिया को खुश कर दिया गया। एक बार जो राखी का सिलसिला शुरु हुआ, ज़िंदगी भर का नियम बन गया। हर बार परबतिया की राखी सजती मन्नू की कलाई पे।

दोनों बच्चे साथ में बड़े हो रहे थे। मन्नू की इच्छा थी एक बड़ा डॉक्टर बनने की तो इसी सपने को सच करने मन्नू को महाकाल की नगरी जाना पड़ा। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से मन्नू MBBS की पढ़ाई करने लगा। मन्नू हर महीने घर आता और अपनी बुधिया काकी और परबतिया को भी उनके हिस्से का समय देता। सरोज और रघुपति नाथ अपने बेटे को देख फूले न समाते पर सरोज को मन्नू और परबतिया के रिश्ते से बड़ी कुढ़न होती। भला ब्राह्मण के बेटे की बहन कहारिन की बिटिया कैसे हो सकती थी? वो जब भी दबी जुबान में कुछ कहने की कोशिश करतीं, रघुपति नाथ और मन्नू, दोनों अपनी दलीलों से उनका मुँह बन्द कर देते।

" अम्मा, परबतिया की जाति छोटी हो सकती है, उसका प्यार नहीं। मेरी ज़िंदगी में, मेरी बहन का कद बहुत ऊंचा है। वो न होती तो सारी ज़िंदगी मैं बिना राखी बंधवाए ही मर जाता।", मन्नू ने हर बार की तरह परबतिया की वकालत की।

" घर में तो तेरी बहनें हैं न। अरे चाचा-ताऊ, मौसी-बुआ, मामा, इन सबकी बेटियों में क्या कमी थी ?", सरोज भी बराबर का मोर्चा संभालती।

" परबतिया बचपन से मेरे साथ रही।मेरा कित्ता ध्यान रखती है। अभी कह दो के मुझे बुखार आ गया, धरती-आकाश एक कर देगी।", मन्नू ने बहस खत्म करने के लिए आखिरी पैंतरा अपनाया।

सरोज ने चुप रहने में अपनी भलाई समझी। बुधिया, मालकिन की स्थिति समझती, पर कुछ कहने का साहस न होता कभी उसमें। बुधिया को हर वक़्त यही चिंता लगी रहती के अगर उसको कुछ हो हवा गया तो जवान होती परबतिया का क्या होगा? इसी उधेड़बुन में उसने परबतिया की शादी का निर्णय लिया। इस बार जब मन्नू घर आया तो पता चला कि 14-15 बरस की परबतिया की शादी तय हो गयी थी। मन्नू इस शादी के सख्त खिलाफ था पर इसी शर्त पे माना कि परबतिया के 18 बरस के होने तक गौना न होगा उसका। बुधिया भी मन्नू की कोई बात न टालती थीं , सो ये बात भी न टाली गयी। सरोज को लगा कि उसकी मुराद, ईश्वर ने बिना कहे सुन ली। एक बार परबतिया ससुराल चली गयी, फिर अपनी ज़िंदगी मे रम जाएगी और मन्नू के सिर से भी इसका भूत, खुद ही उतर जाएगा। 

कुछ ही दिनों में परबतिया सज धज के दुल्हन बन गयी। अब परबतिया का नया नाम, सरजू की मेहरारू हो गया। जैसा कि मन्नू की शर्त थी, परबतिया की डोली विदा हो के सरजू के गाँव हिनौता, के शीतला माता मंदिर गयी। वहाँ नए दूल्हा-दुल्हन ने पूजा की और बालिका वधू अपने गाँव वापस आ गयी। उस जमाने मे मोबाइल तो था नही के विडीओ कॉल के दौर शुरू हो जाएं। सरजू 12वीं में था और परबतिया 10वीं में। शादी के कुछ ही दिन बाद दीवाली पड़ी तो मन्नू ने परबतिया के घर फल, मिठाई, ससुराल वालों के कपड़े वगैरह भेजे। जो भी सुनता, मन्नू की बड़ी तारीफ करता कि बिन बाप की बेटी के बड़े भाई होने का फर्ज निभाना तो कोई मन्नू भाई से सीखे। जब बोर्ड इम्तिहान के रिज़ल्ट की बारी आई, सरजू बाबू किसी तरह अपनी इज़्ज़त बचा पाए पर परबतिया ने जिले में सातवाँ स्थान हासिल किया। मन्नू दादा के पीछे बचपन में घूमते घूमते न जाने कब परबतिया भी सफेद कोट के सपने बुनने लगी। जब जिला टॉपर में से एक बनी तो उसके अंदर की खुशी का कोई अंदाजा नहीं लगा सकता था। बुधिया की चिंता जरूर बढ़ गयी कि इत्ती पढ़ी लिखी लड़की के नखरे कौन सहेगा? पढ़ाई बन्द करने पर ज़ोर देने लगी बुधिया। एक बार फिर मन्नू ने बीच मे पड़ के सिर्फ 12वीं तक पढ़ने की अनुमति मिल गयी। परबतिया को लगने लगा कि मन्नू दादा इंसान नहीं देवदूत हैं। जब भी कोई मुसीबत आती, दादा उसको बचा लेते हैं। मन्नू जब भी घर आता, अपने मेडिकल कॉलेज के किस्से सुनाता तो परबतिया को लगता कि वो कोई अलग ही दुनिया है। उसका मन ललचाता आगे की पढ़ाई के लिए। भारी भरकम किताबें उसको बड़ी अच्छी लगतीं। सपनों की दुनिया में वो कई बार डॉक्टर बन भी सबकी थी पर वास्तविकता के धरातल पर जब आती तो दुखी हो जाती।

जब 12वीं का रिजल्ट आया, परबतिया जिले में तीसरे स्थान पे थी। 12वीं के रिजल्ट ने परबतिया के अंदर एक नया जोश भर दिया पर सच ये था कि उसके ससुराल वाले अब गौने की ज़िद करने लगे थे।अब तक सरजू बाबू, टमाटर की खेती में अपने बापू के हाथ बंटाने लगे थे। आगे की पढ़ाई का साहस वो जुटा न सके। 

गौने की ज़िद में देखा जाए तो कुछ गलत भी नहीं था। परबतिया अब 18 बरस की होने को थी। अब निजी ज़िंदगी मे कोई नाप-तौल तो चलती नहीं। अब परबतिया इंटर पास कर चुकी थी। बुधिया को उसकी समधन ने ज्ञान दिया, " अरे ओ बुधिया, तोहरे बुद्धि जिन। काहे लईकी का पढ़ावे लिखावै की जरूरत। अब भेजा तू हमार बहुरिया हमरे घरे। आपन गिरस्ती संभलिये, त सब भूत कपारी पै से उतार जाई। ढेर बात न बतिया तू। खाए भरे का कौनो कमी नाहीं बाय हमरे घरे। नौकिरी करवावै के नाहीं हमका। 4 पैसा हाथ मा आई त ढेर मन बढ़ई करिहैं। अइसन कर,तू अबकी कातिक परबतिया के बिदा कर। हमरि दीवाली बहुरिया के आवे से रौसन हुइ जाई।"

लड़के वालों की इच्छा से ही सदा से काम हुए हैं। पति ही अपनी पत्नी का भाग्य रचयिता रहा है अनंत काल से। परबतिया के साथ कुछ अलग होने की उम्मीद न थी। ज़िद परबतिया की भी थी। वो अपने भविष्य के साथ समझौता करने को तैयार न थी। किसी से कुछ बोलती भी न थी। उसकी आँखों में, उसके जुनून को साफ पढ़ा जा सकता था।

बुधिया अब परबतिया की बिदाई के लिए समान सहेजने लगी। 

सरोज की खुशी का अलग ही कारण था। उसको लगता था कि अबकी बार की राखी, मन्नू और परबतिया की आखिरी राखी होगी। कौन सा कल को उसका पति रोज़ रोज़ परबतिया को लेकर आएगा। बस जाए ये अपनी ससुराल एक बार। उसकी ससुराल का गाँव हिनौता, वैसे तो ज़्यादा दूर नहीं था। अब मन्नू सगा भाई तो है नहीं, इसलिए सरोज को पूरा भरोसा था कि ये धागे के रिश्ते, धागे से ही नाज़ुक होंगे, टूटने में देर न लगेगी। हकीकत यही है कि , इंसान सोचता कुछ और है पर ईश्वर को कुछ और ही मंज़ूर होता है। ईश्वर की इच्छा कहाँ इंसान की सोच की गुलाम हो सकती है। ईश्वर की इच्छा और इंसान के सपनों में तारतम्य अक्सर कम ही हो पाता है।

इधर बुधिया, परबतिया की बिदाई की बाट जोह रही थी उधर बिदाई तो किसी और की लिखी थी। सावन महीने में महाकाल की नगरी की छटा देखते ही बनती है। इस बार के सावन को डेंगू बुखार ने फीका कर दिया। डेंगू बुखार ने सबको डरा रखा था। इसी बुखार की चपेट में सरजू बाबू आ गए। 21-22 साल की भरी जवानी में, जब इंसान सपनों की दुनिया की सैर करता है, उस उम्र में सरजू बाबू स्वर्ग लोक की सैर को कूच कर गए। पीछे छूट गए रोते-बिलखते माँ-बाप और परबतिया। परबतिया को समझ ही नहीं आ रहा था कि वो कुवांरी कन्या थी या ब्याहता या विधवा। विलाप करे भी तो किसका ? पति, जो उसको छोड़ के चला गया, उसकी तो कोई याद भी न थी परबतिया को। सामने आ जाता तो पहचान भी न पाती। सभी ने सरजू की अकाल मृत्यु का दोष, बहुत आसानी से परबतिया की मनहूस किस्मत से जोड़ दिया।

राखी के एक दिन पहले, मन्नू जब गाँव पहुंचे, तो उनका स्वागत दूर तक पसरे सन्नाटे ने किया। पूरा गाँव, परबतिया को अपनी बिटिया मानता था। बिटिया के वैधव्य का दुख, पूरे गाँव में पसर गया था।मन्नू को देखते ही परबतिया उसके गले लग, फूट-फूट कर रोई। 3-4 दिन से जो आँसू, आँखों से बाहर आने को तड़प रहे थे, वो भाई को देखते ही बह निकले। परबतिया का दिल, रो कर हल्का हो गया था।

अगले ही दिन, बुधिया ने मन्नू से परबतिया को हिनौता भेजने की बात की। बुधिया की सास की मानसिकता से वो पहले ही परिचित था।

" काहे परबतिया को मारै पे तुली हो काकी ? हीरा सी लइकी की पत्थरौ बराबर कदर न होई हिनौता मा। का करी ऊ हुआँ ? टिमाटर के खेतन मा काम करी ऊ ? कान खोल के सुन ला सब जन, परबतिया कहूँ न जाई। ऊ पढाई करी। ऊका मौका देब हम, ओकरा बड़का भाई। कोई अगर परबतिया के हिनौता भेजे की बात करी, ते हमरी लास पै से गुजरी।", मन्नू को इतने गुस्से में कभी किसी ने न देखा था। सरोज,बुधिया और इकट्ठा हुए गाँव वाले, एक-एक करके धीरे से खिसक लिए। वहाँ बचे मन्नू, सरोज, रघुपति नाथ, बुधिया और परबतिया।

परबतिया की किस्मत का फैसला लिया तो ईश्वर ने पर उसको अमल में लाने के लिए ईश्वर ने मन्नू को ही चुना। बहुत देर तक पसरी एक अजीब सी खामोशी को मन्नू ने ही तोड़ा।

" परबतिया खाली नाम की बहिन न होय हमार। हम एकरी खातिर जान देओ सकित हेन और लेओ सकित हन। परबतिया आगे पढ़ी। पढ़ी औ डॉक्टर बनी। ई साल ऊ तैयारी करी और अगली साल इम्तिहान देइ। पास हुई गई, त डॉक्टर बनी और न पास भई त डिग्री का पढ़ाई करी। नौकिरी करी ऊ और तब सोची की ज़िंदगी का, का करै के है।", मन्नू ने बुधिया को समझाने के बहाने सरोज को भी समझा दिया। मन्नू को इकलौते होने का मतलब अच्छे से पता था। परबतिया की आँख से गंगा-जमुना बहे जा रही थी।

अगले कुछ महीने, परबतिया ने जी जान से पढाई की। आखिरकार मेहनत के आगे परिस्थितियों को भी घुटने टेकने पढ़ते हैं। परबतिया को प्रतिष्ठित किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज, लखनऊ में दाखिला मिल गया।

" इस साल का हीवेट मैडल और चांसलर मेडल जीतने वाली छात्रा एक ही है। और वो कोई और नहीं, वो हैं डॉ पार्वती।", माइक पे उदघोषक की आवाज़, तालियों की गड़गड़ाहट में कहीं गुम हो गयी। बुधिया को समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या बोले और क्या सोचे। कैसे भगवान का शुक्रिया अदा करे ? रघुपति नाथ अपने बेटे के फैसले को आज दिल से शाबाशी दे रहे थे। सरोज ने भी परबतिया को अपनी बिटिया मान लिया था।

आज मन्नू को लग रहा था कि परबतिया की राखी के कर्ज का कुछ अंश तो चुका है दिया था।

सच ही तो है, माँ के दूध का कर्ज और बहन की राखी का कर्ज शायद उतार पाना इतना आसान नहीं होता। कौन कहता कि राखी का धागा कमज़ोर होता है। इसकी मजबूती के अंदाज़ा सिर्फ निभाने वाला ही जानता है।


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