फिर, जन्मा अभिमन्यु
फिर, जन्मा अभिमन्यु
फिरदौस के पूर्व शौहर को, उसके अब्बा के सुपुर्दे खाक किये जाने के बाद, हवालात में वापस लाने के पूर्व, उसके घर ले जाया गया था।
अम्मी की पथराई, आँखों को देख कर, उसका, कलेजा मुँह को आया था। दिलासा देने के लिए उस ने, अम्मी को गले से लगाया था।
अम्मी उसे अनदेखा करते हुए, आसमान की ओर ताकती हुए बोली थी -
मरने के दो दिन पहले, आपके अब्बा बार बार यह कह रहे थे कि मेरा बेटा साथ होता तो मेरी बीस साल और जीने की तमन्ना होती।
सुनकर उसकी रुलाई फूट पड़ी। अम्मी ने आकाश की ओर निर्वात (वैक्यूम) में ही देखते हुए कहा -
अजीब थे आपके अब्बा! आप, जिसे उनकी परवाह नहीं थी, उसके साथ तो वे बीस वर्ष जीना चाहते थे। मैं, जिसे उनकी परवाह भी थी और मैं, उनके साथ भी थी लेकिन वे बेदर्दी से मुझे अकेला छोड़ चले गए।
अब वह, अपने पश्चाताप में खुद को, जमीन में गड़ता अनुभव कर रहा था। सोच रहा था कि अम्मी, रोने की जगह यूँ निर्वात में ही क्यों निहार रहीं हैं। उसने तब पूछा - पाँचो वक़्त की इबादत का, हमें यह सिला क्यों मिला है, अम्मी?
अम्मी ने शुष्क स्वर में जवाब दिया -
आप, इबादत का मतलब ही नहीं जानते हैं, मेरे बेटे। इबादत का अर्थ यह नहीं होता कि आप इबादत करते हुए कुछ भी मनमाना करने को स्वतंत्र हो जाते हैं। अगर आप प्रत्यक्ष इबादत नहीं भी करते हैं मगर अपने काम, सबके भलाई को दृष्टि में रखते हुए करते हैं, तब वह इबादत ही हो जाती है।
अल्लाह को, अदा करते दिखना, हमारी इबादत नहीं होती है। अपितु इंसानियत के जो फ़र्ज़ अल्लाह बताता है, उसे अदा करना, इबादत होती है।
अम्मी की यह बात खत्म होते ही साथ आये सिपाही ने, उसे चलने के लिए कहा था।
रोते हुए वह उसके साथ चल पड़ा था। अब्बा के जाने के बाद अकेली पड़ गई अम्मी के लिए इस वक़्त, उसके साथ का मिलना निहायत जरूरी था। फिरदौस को तलाक देते तथा बाद में उस पर हमला करते वक़्त, उसने कभी सोचा नहीं था कि - वक़्त कभी उसे, ज़िंदगी की यह सूरत भी दिखायेगा।
पुलिस वैन में अपने घुटनों पर कोहनी रख अपना सिर, अपने दोनों हाथ में रखकर, वह याद कर रहा था, कुछ गानों की पंक्तियाँ -
सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया …
फिर उसे यूँ महसूस हुआ कि वह, एक तन्हा जगह पर खड़ा रह गया है। उसके सामने उड़ रही धूल के गुबार हैं, जो कारवाँ के गुजरने के बाद पीछे छूटे हैं।
कारावास में अब आगे, उसके दिन रंजिश के ख्यालों से अलग आत्ममंथन की तरफ मुड़ गए थे। वह सोचता कि अम्मी ने, इबादत की यह सरल परिभाषा काश! उसे, पहले बताई होती। तब जीवन में यह करुण दृश्य उसके समक्ष उपस्थित ही नहीं होता।
अम्मा वहाँ असहाय, खुद वह यहाँ कैदखाने में एवं अब्बा 20 साल जीने की बाकी रही तमन्ना के रहते यूँ जन्नत के सफर पर, ना निकल गए होते।
उसके पछतावे चलते रहे थे। बीच बीच में, फिरदौस पर हमले के प्रकरण में उसे कोर्ट ले जाया जाता रहा था।
आज जज द्वारा फैसले की तारीख मुकर्रर की हुई थी। उसे जब अदालत लाया गया तो वहाँ, मिठाई खाई-खिलाई जाती मिली थी। मिल्क केक का डिब्बा, एक पीस ग्रहण करने के लिए उसकी ओर भी बढ़ाया गया था।
तब उसकी प्रश्नात्मक दृष्टि को भाँपते हुए मिठाई खिलाने वाले ने उसे बताया -
कल रात्रि, जज हरिश्चंद्र जी के बेटे को, वकील फिरदौस ने जन्म दिया है। मिठाई उसी उपलक्ष में खिलाई जा रही है।
पूर्व शौहर पहले तो पशोपेश में दिखा, फिर अंततः उसने, मिल्क केक के एक नहीं दो पीस उठा लिए थे। वह पहले वाला इंसान होता तो, उसका मन इस मिठाई पर थूकने का होता। जबकि अब वह इस मिठाई को जायके ले लेकर खा रहा था। उसे, खुद ही अनुभव हुआ कि वह, अब बदल रहा है।
मिठाई खाते हुए वह, हरिश्चंद्र और फिरदौस की ख़ुशी में तब शामिल हो रहा था जबकि फिरदौस पर हमले के केस में, जज हरिश्चंद्र द्वारा आज, उसे कड़ी सजा सुनाये जाने का अंदेशा था।
उसके प्रकरण को लेकर उसे जब कटघरे में लाया गया तब उसकी आँखे, झुकी हुईं थीं और चेहरे पर इत्मीनान झलक रहा था।
तब हरिश्चंद्र जी ने अपने लिखे फैसले को पढ़ना शुरू किया -
दोनों पक्षों की दलीलें सुनने एवं प्रस्तुत साक्ष्य को दृष्टिगत रखते हुए यह अदालत इस निष्कर्ष पर पहुँची है कि मुल्जिम पर आरोप प्रमाणित तो होता है मगर, अभियोजन पक्ष, आरोप पत्र में उल्लेखित यह बात साबित नहीं कर सका है कि मुल्जिम के द्वारा, पीड़िता फिरदौस पर हमला, उसके गर्भस्थ शिशु की हत्या के इरादे से किया गया था।
अतः फिरदौस को लगी चोट के गंभीर नहीं होने को, ध्यान में रखते हुए मुजरिम (फिरदौस के पूर्व शौहर) को यह अदालत छह मास के कारावास का दंड नियत करती है। अदालत यह भी आदेश देती है कि मुजरिम के विरुद्ध यह सजा, उस पर चल रही पूर्व सजा के साथ साथ चलेगी।
फिरदौस के पूर्व शौहर को अंदेशा यह था कि जज चूँकि स्वयं, पीड़िता का पति है। अतः वह (हरिश्चंद्र) इस अपराध पर उसे, कम से कम चार साल की सजा देगा।
इस फैसले को सुनकर पूर्व शौहर स्तब्ध रह गया था। जब वह, वापस अपने आपे में आया तो सोचने लगा कि जिस बच्चे की उसने गर्भकाल में ही हत्या कर देना चाही थी उस बच्चे ने, तो पैदा होते ही उस (पूर्व शौहर) की दृष्टि से चमत्कारी कार्य कर दिखाया है।
जज ने, उसे, ना सिर्फ सजा ही कम दी अपितु इस को पूर्व सजा के साथ चलाने का आदेश भी दिया है। इसका अर्थ यह हुआ कि इस प्रकरण में मिली उसे सजा तो, उसकी पूर्व सजा के समाप्त होने के, पंद्रह दिन पूर्व ही खत्म हो जायेगी।
अर्थात वह इस भोग रही सजा अनुसार, पूर्व निर्धारित दिनांक पर ही जेल से रिहा हो सकेगा।
यह सोचते हुए वह भावुक हो रो पड़ा। वह, कटघरे में ही ज़मीन पर जज की ओर ज़मीन पर सिर रख बैठ गया, गले के रुँध जाने पर भी उसकी आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी वह कह रहा था -
जज साहब आपको, मैं काफिर मानता था लेकिन आप तो किसी मुसलमान से ज्यादा बेहतर मुसलमान हैं। इस्लाम जिसे इंसान कहता है आप तो उसी की साक्षात प्रतिकृति (प्रतिरूप) हैं। लानत है मुझ पर, जो छद्मवेशी मुसलमानों के बरगलावों में, अब तक जीते रहा हूँ।
फिर उसे (पूर्व शौहर को) जेल ले जाने के लिए, सिपाही ने कटघरे से अपने साथ ले लिया था। पूर्व शौहर दीवानों की भाँति, हथकड़ी लगे अपने हाथों को जोड़, पलट पलट कर जज हरिश्चंद्र की तरफ देखते जाता था।
उस शाम हरिश्चंद्र जी ने कोर्ट से सीधे अस्पताल जाकर फिरदौस को (सामान्य प्रसव होने से) अपने नवजात बेटे सहित डिस्चार्ज कराया था। स्वयं सहारा देकर उन्होंने, फिरदौस को कार में बिठाया था। फिरदौस ने तब उन्हें अत्यंत ही अधिक प्रसन्न देखा था। कार जब चल पड़ी तो फिरदौस ने कहा -
आप, आज हमारे बेटे के अवतरण से बेहद प्रसन्न दिखाई दे रहे हैं।
हरिश्चंद्र ने कहा - जी हाँ, आज यह तो है ही मगर मेरी ख़ुशी दोहरी हुई है।
तब फिरदौस ने जिज्ञासा में पूछा - वह कैसे?
इस पर हरिश्चन्द्र ने कोर्ट की पूरी घटना, फिरदौस को बताई थी। अंत में यह जोड़ा था -
आज मैं फिर, अपने फैसले से न्याय भावना को पुष्ट करने में सफल हुआ हूँ। निश्चित ही अब से, आपके पूर्व शौहर, अपनी आँखों पर चढ़ाई अतार्किक कट्टरपंथ की पट्टी को उतार फेकेंगे। दुनिया और जीवन को अब वह साफ़ दृष्टि से देख पाने में समर्थ हो जाएंगे।
इसे सुन फिरदौस सोचने लगी, ये व्यक्ति तो बिलकुल ही अपने नाम अनुरूप हरिश्चंद्र हैं। यह, मेरे पूर्व शौहर के एकदम विपरीत, किसी तरह के कोई पूर्वाग्रह नहीं पालते हैं।
तभी उनका नवजात बेटा, नींद में ही कसमसा कर रोने लगा था। हरिश्चंद्र जी ने अत्यंत अनुराग एवं सावधानी सहित उसे, फिरदौस की गोद से लिया था। जब वह चुप हो गया तब, उसके नन्हे से मुख को स्नेहपूर्वक निहारते हुए, हरिश्चंद्र जी ने, पुछा -
फिरदौस, इसे आप क्या नाम देना चाहेंगी?
फिरदौस ने हँस कर कहा -
मैंने, अपने गर्भकाल में ही पूरी कहानी पढ़ी है। हम दोनों, अपने इस बेटे को “अभिमन्यु” नाम देंगे।
हरिश्चंद्र जी ने, तब प्यार से फिरदौस के गाल पर थपकी दी थी।
उधर इसी समय, कारावास की कोठरी में पूर्व शौहर इस दुविधा में था कि जब उसने, पिछले कुछ महीनों से पाँच वक़्त की इबादत छोड़ दी है तब भी, आश्चर्यजनक रूप से उसके साथ, इतना अच्छा कैसे हो गया है?
तब उसे ऐसा लगा कि जैसे उसकी अम्मी सामने खड़ी होकर कह रहीं हों - बेटा, “अगर आप प्रत्यक्ष इबादत नहीं भी करते हैं। मगर अपने काम, सबके भलाई को दृष्टि में रखते हुए करते हैं, तब वह इबादत ही हो जाती है …. ”