Kunda Shamkuwar

Abstract Others

4.3  

Kunda Shamkuwar

Abstract Others

महानगर की जिंदगी

महानगर की जिंदगी

2 mins
217


एक दिन यूँहीं ऑफिस के ग्रुप में गुमशुदा कि तलाश पर बातें हो रही थी।हम सब हँसते हुए बातें कर रहे थे की एक महिला बड़े ही अनमने स्वर में कहने लगी, "काश मैं भी कहीं खो जाऊँ...मैं कहीं खो जाना चाहती हूँ...मैं कहीं क्यों नहीं खोजाती?" 

मैंने भी बड़े लाइट मूड में जवाब दिया, "अरे, तुम एक दिन भी कहीं जाओगी तो तुम्हारे घर के लोग तुम्हें ढूंढ लेंगे..."

उसी अनमनेपन से वह फिर कहने लगी, "मैं खोना चाहती हूँ....तुम समझ क्यों नहीं पा रही हो?" उसके स्वर में जो कुछ था उस से मैं एकदम चौंक सी गयीं। मुझे लगा उसको कुछ कहना है। लेकिन ग्रुप में वह बात फिर आयी गयी हो गयी। 

दिन भर कि आपाधापी के बाद फिर अचानक उसकी बात याद आ गयी और जैसे मेरा मन काँपने लगा। एकदम लगने लगा कि कोई वर्किंग वुमन क्यों ऐसा सोचने लगी है? क्या चल रहा होगा उसके मन में ? 

कल उससे बात करुँगी मन ही मन कहते हुए मैं सो गयी। 

हम बड़े शहरों के सारे लोग कहते कुछ है और करते कुछ है। हमारी सोसाइटी में ढेर सारी लिमिटेशंस होती है।मुझे उसकी पर्सनल लाइफ में कोई इंटरफियर नहीं करना है।उसकी अपनी लाइफ है वगैरा वगैरा.... 

सोसाइटी के ढेर सारे अलिखित कायदे कानून भी होते है....इन्हीं कायदे कानून से हम ना किसी के नज़दीक जाते है और ना ही किसी को नज़दीक़ आने देते है.... हमें भी बहुत बार कोई वे आउट कहाँ मिलता है? हम भी फिर इस शहर की भीड़ का एक हिस्सा बन जाते है.... 

लेकिन भीड़ में रहना क्या इतना आसान होता है?

नहीं !!!

बिलकुल नहीं!!!

महानगरों की भीड़ के क्या कहने? कभी कभी वह भीड़ गिद्धों की भीड़ जैसी लगती है जो हर एक को नोंचने की फ़िराक़ में रहती है...और गिद्ध को तो हम जानते ही है...वे हर तरह से अपना शिकार खोज ही लेते है.....

उस महिला के साथ मैं उसके बाद भी कई बार मिली हूँ...ढेर सी बातें भी की है...लेकिन एक अजनबीयत के अहसास के साथ...शायद इन महानगरों की एक खासियत यह भी होती है......


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Abstract