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preeti k

Abstract

4.4  

preeti k

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मेरी सीमा

मेरी सीमा

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एक सीमा तय की है तुमने मेरे बोलने की पर तुम ये भूल गए एक सीमा मेरे सुनने की भी है 

एक सीमा मेरे सहने की बर्दाश्त करने की भी है जिसे भी तुम शोषण करते करते भूल गए 

जो इलज़ाम और सवालात तुमने मुझ से किये है तुम्हारी माँ और बहनो से भी किये गए होंगे वो सब तुम्हारी बेटियों से किये जायेंगे यह समझना भी तुम भूल गए 

रोज तुम मुझे बतलाते हो मुझे अपना काम कैसे करना है एहसास दिलाते हो कि मैं तुम्हारे लिए कितनी नाकारा हूँ 

थाली फ़ेंक तुम मुझे बतलाते हो खाना कैसे बनाना है फर्श पर पानी फेंक के सिखाते हो पोछा कैसे लगाना है 

पर मैं सब कुछ बर्दाश्त करती हों सब कुछ सहती हूँ 

किस बात का डर है यह मुझे जो मुझे बगावत से रोकता है 

तुम जान लो जिस दिन मैं

ने अपने डर का पता लगाकर इस पर काबू पा लिया 

ये तुम्हारी बनाई हुई सीमाएं नहीं रोक पायेगी मेरी आवाज़ को मेरे आक्रोश को उन नफरतो को जो मेरे सीने में कफ़न हैजिसमे तुम हर रोज इज़ाफ़ा करते ही जाते हो और यह भूल जाते वहां भी एक सीमा है जमा कर रखने कीऔर इस इन्तहा के बाद ना मेँ ना मेरा डर और न ही तुम्हारी सीमाएं रोक पाएंगी उन बेशुमार कड़वे तानो के इन्तेहाई दर्द को जो हर पल तुमने मुझे दिए है उस दिन नयी सीमाएं तय की जाएँगी पर इस बार मेरे लिए नहीं बल्कि तुम्हारे लिए 

तुम्हारी मर्दानगी के लिए यह सब नाक़ाबिले बर्दाश्त होगा तुम्हारा गुरूर चकनाचूर हो जायेगा 

उस दिन से एक नया इतिहास लिखा जायेगा और इस दौर को तुम्हारे नुमाइंदे नहीं बल्कि हम खुद लिखेंगे 

तब जीत सिर्फ हमारी होगी।


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