आज़ाद देश में मेरे दो ख़ुफ़िया अंग
आज़ाद देश में मेरे दो ख़ुफ़िया अंग
मैं महिला हूँ मेरे शरीर में दो अंग ऐसे है जिनके बारे में बात करना तो दूर सार्वजनिक जगहों पर नाम लेना भी दुश्वार है । अगर चार लोगो की भीड़ में गलती से किसी के मुँह से यह शब्द निकल जाये तो सब यूँ देखने लग जाते है मानो कुछ राष्ट्रविरोधी कह दिया हों। इसलिए मेधावी छात्राओं ने इसके लिए कुछ खुफ़िआ शब्द इज़ाद कर रखे है, इन शब्दों का जिक्र यहाँ करना मुनासिफ नहीं इनका पता अभी तक इजराइल की खुफ़िआ एजेंसिया लगाने में भी नाकाम रही है । यह अंग इतने पोशीदा और संगीन है कि हम बुरी से बुरी परिस्थिति में इन्हे छुपाकर रखते है । इन पर से जरा सा पर्दा हटना मानो दुश्मन देश की बुरी नज़र देश के परमाणु हथियारों पर पड़ना। इनके बचाव के लिए हम न जाने क्या -क्या तरकीबे अपनाते है बुर्क़ा , हिज़ाब, नक़ाब , घूँघट और भी न जाने क्या क्या । हमे इज़ाज़त होती है सिर्फ दिन की रौशनी में बाहर निकलने की ।
शाम होते ही अपनी आबरू को बचाने हम चार दीवारों में बंद हो जाते है। हम कुर्बान कर देते है अपनी आज़ादी , वो चाँद की मंद रौशनी में शांत सड़क पर चलना , रात का आनंद क्यूंकि रात में वो नज़र आते है जो आज़ादी का लुफ्त उठाते घूमते है अपने सीने पर मर्दानगी लिए हुए । उन्हें लगता है रात में घर से बाहर निकली हर लड़की चाहे वो जिस भी उम्र की हो उनके पिता की ज़ाती मिल्कियत है और उसे रोंधना वो अपना अधिकार समझते है। पल भर में वो दरंदगी से नोच लेते है उन अंगो को जिनका नाम लेना भी हमारे लिए दुश्वार होता है । इसी के साथ ही लड़किया बदनाम हो जाती है , उनकी इज़्ज़त चली जाती है। ऐसे हजारो किस्से दफ़न कर दिए जाते है हमारी इज़्ज़त आबरू के साथ और हमारी बेड़िया ओर कठोर हो जाती है।
न हम पर रामायण बनती है न महाभारत होती है , बात अगर कुछ बढ़ जाये तो उसी गहरी रात में दिखते है कुछ लोग मोमबत्तिया लिए हुए। दिन होते होते मोमबत्तिया बुझ जाती है सांत्वना स्वरुप हुकूमत कुछ कठोर कानून बनाती है । यह कठोर कानून कठोरता से बचाते है हमारी आबरू लूटने वालो को। मेरी आत्मा चीख- चीख कर रोती है पर कोई नहीं सुनता । कानून बहरा है उसके कानो में महंगी मशीने लगी जिनमे सिर्फ महंगे वकील बोल सकते है । हुकूमत खतरे में है उसका ध्यान विदेशी मुद्दों पर है । मैं गरीब हूँ । एक पुलिस है उसके पास लाठी है और मारने की इज़ाज़त भी । जो मेरे हक़ में बोलता है उसे लाठी खानी पड़ती है । वो अपने बचे खुचे अंग लेके भागता है । शासन ,प्रशासन , समाज, लोकतंत्र का चौथा अंग सब मेरे दो अंगो को बचाने में नाकाम रहते है ।