माटी का खिलौना
माटी का खिलौना


कानपुर के शास्त्री नगर का दशहरा मेला। हजारों की भीड़ में परिवार के साथ जाना मतलब शरीर की अच्छी खासी कसरत।भाई-बहनों में सबसे बड़ा होने पर किसी छोटे भाई या बहन का हाथ पकड़ने का कार्यभार मिल ही जाता है। कपड़े और जूते तो मानो धूल-गरदे से नहा लिये हों। मेले में घुसते ही भीड़-भड़क्के और शोरगुल में मन इधर उधर भटकने लगता है।बच्चे तो खिलोने और खाने-पीने की दुकानों पर ही नज़र गड़ाये रहते हैं। मेरी छोटी बहन ऐसे ही एक दुकान से मिट्टी से बना किचन सेट लेने की जिद पर उतारू हो गयी। बच्चों की ज़िद तो जिद होती है, वही जिद जो कुछ सालों पहले तक मैं भी किया करता था। कभी एरोप्लेन तो कभी मोबाइल फ़ोन, जिसमे १ दबाने पर "चल छैयां छैयां" बजे,की जिद करता था। अतः मैं इस बालहठ को समझता था फिर भी न जाने क्यों छोटी बहनको बार-बार मना कर रहा था।
"दीपा, बिट्टी ये न दो दिन में टूट जायेगा तुमसे। इसे रहने दो,हम तुम्हारे लिए दूसरा प्लास्टिक वाला ला देंगे।"
इतना कहकर बहन का हाथ पकड़कर जैसे ही मुड़ा,एक आवाज़ उस शोरगुल के बीच मेरे कानों में गूंजी।
"ले लो न भैया, आप ३५ का ३० दे देना।"
मैं पीछे घूमा,इसलिए नहीं की मुझे ३५ की चीज़ ३० में मिल रही थी बल्कि मैं उस आवाज से आकर्षित होकर जाने क्यों उस ओर खिंचा चला गया।
मेले की चकाचौंध में जमीन पर टाट बिछा के बैठी उस छोटी सी लड़की पर पहली बार में नज़र नही गयी थी।
बिल्कुल दीपा की उमर की, यही कोई १० साल, मेले के एक कोने में कूड़े के पास बैठी उस नन्ही सी बिटिया ने मिट्टी के चन्द खिलोने टाट पर बिछा रखे थे। मैली लाल फ्रॉक पहने चेहरे पर मायूसी ओढ़े उस नन्ही परी को देखकर मैं उस भीड़ में भी न जाने किस विचार में खो गया।
"ले लो न भैया,पक्की मिट्टी का है, नहीं टूटेगा।"
मेरा ध्यान टूटा। मैं कुछ बोलता की उससे पहले ही दीपा ने पूछा "तुम मेला नही घूम रही हो?"
"नहीं,उसने जवाब दिया।"
"तुम्हारे पापा-मम्मी कहाँ हैं?", दीपा ने तुरंत दूसरा सवाल किया।
"पापा-मम्मी नहीं हैं, भैया उधर खिलौना बेच रहा है।",उसने मायूसी भरे शब्दों से दूसरे कोने की ओर ऊँगली से इशारा करके बताया।
उधर नज़र गयी तो उसका १७ साल का, बिलकुल मेरी उम्र का भाई उसी तरह बोरा बिछाकर खिलोने लिए बैठा था। उसके पास ही दो छोटे बच्चे, जिनकी उम्र ३-४ साल होगी, उस शोरगुल में भी बेधड़क सो रहे थे।उन चारों भाई बहनों को देखकर साफ़ लग रहा था की इन्हें भरपेट खाना नही मिलता होगा। शरीर पर हड्डियों का ढांचा मांस में से झांक रहा था। इतनी दुर्बल काया उन्ही की हो सकती हो जिसे भरपेट खाना न मिलता हो।
क्या हुआ भैया ? अच्छा २५ दे देना। ले लो न भैया, अभी एक भी खिलौना नही बिका।"
उसकी आवाज़ से एक बार फिर मेरा ध्यान टूटा।
नहीं, हमें नहीं चाहिये कहके मैं छोटी बहन का हाथ पकडकर जाने लगा की उसने फिर रुआँसी आवाज़ में कहा,
" भैया २० का ही लेलो , लेलो भैया नहीं तो लालू का दूध नहीं आ पायेगा।"
लालू शायद उसके छोटे भाई का नाम होगा।
खैर, मैं तो अपने इस मोलभाव से खुश होकर २० रूपए में खिलोने लेकर चला आया।
"कहाँ रह गये थे तुम दोनों?"-मम्मी ने पूछा ।
"अरे कहीं नहीं, महारानी को किचेन सेट खरीदवा रहे थे"- मैंने प्रत्युत्तर किया।
चलते-चलते हम मेले के बीच में पहुचे ।वहाँ बृजवासी चाट, जो की कानपुर की मशहूर है, के ठेले पर खड़े होकर मैंने बोला, "भैया, ज़रा ४ पत्ता चाट बनाओ, एक में मीठी चटनी ज्यादा करना, और थोडा जल्दी बनाओ, रावण दहन होने वाला है; अभी भगदड़ मचेगी।"
खैर, चाट खाते-खाते ही रावण मारा गया।बुराई पर अच्छाई की जीत हुई। भगदड़ मच गयी। सभी को घर जाने की जल्दी होने लगी। मैंने एक हाथ से दीपा का हाथ पकड़ा और दूसरे से पैंट की पिछली जेब में रखा बटुआ निकलने लगा। ये क्या बटुआ तो गायब था। चेहरा पीला पड़ गया। घर से निकलते समय मम्मी ने ५०० रूपए रखने के लिए दिए थे। मम्मी को बताया तो भड़क गयीं,बोली भीड़ में किसी ने बटुआ उड़ा दिया।१० सेकंड में ही मेले की हर दुकान जहाँ जहाँ मैं गया, मेरी नजरों से गुज़र गयी। अचानक याद आया की उस लड़की से मिट्टी के खिलोने लिए थे। भागकर गया पर वो लड़की न मिली,न ही उसका भाई।मन में सौ गलियाँ बकीं। बोला हो न हो इसी ने चुराया है इसी के पास पैसा नही था। तभी भाग गयी। गालियाँ बकता हुआ मैं बृजवासी के स्टाल पर आया। पापा पैसे दे चुके थे। हम एक दो दुकानों पर होकर वापस घर जाने लगे। मेला लगभग उठ चुका था। मेरी नज़र लगभग हर दुकान पर उस लड़की और उसके भाई को ढूंढ रही थी।
गेट से निकलते समय वही लड़की सड़क किनारे खड़ी मिली। उसका छोटा भाई बोतल से दूध पी रहा था जिसे उसने एक हाथ से अपनी बगल में उठा रखा था। उसके दूसरे हाथ में मेरा बटुआ था। मैं लपक के उसकी ओर गया।
"अच्छा जी,तो ये काम करती हो तुम। खिलोने के बहाने लोगों का बटुआ चुराती हो।"-मैंने गुस्से में बोला।
"नहीं भैया, ये आपका जेब में डालते समय गिर गया था,हमने देखा इसमें बहुत पैसा है इसलिए आपको आवाज़ लगाये लेकिन आप सुने नहीं।"- उसने थोड़ा सुबकते हुए बोला।
"अच्छा तो मेले से निकल क्यूँ लिए तुम भाई बहिन?"-मैंने आँखें तरेरते हुए पूछा।
" भैया, हम बहुत देर तक बैठे फिर लालू जग गया तो इसका दूध लेने चले गये और मेरा भैया दूसरे गेट पर खड़ा है की आप उधर से जायें तो वो आपको बता दे की बटुआ हमारे पास है।"- इस बार उसकी आँखों में आत्मविश्वाश था और शब्दों में कठोरता।
मैं समझ गया की गलती मेरी थी और मैं नाहक इस बेचारी को इतनी गलियाँ बकता रहा।
वो चाहती तो पैसे लेकर रफूचक्कर भी हो सकती थी ।उसे जरुरत थी इनकी लेकिन इस स्तिथि में भी उसने इमानदारी दिखाई। उसने इमानदारी दिखाकर अपने संस्कारों का परिचय दिया और मैंने बिना कुछ सोचे उस छोटी बच्ची को गालियाँ देकर अपने संस्कारों का परिचय दिया। आज समझ आया अच्छाई अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा देखकर नही आती। वो तो माता-पिता से मिले संस्कारों में होती है।
मैंने खुश होकर उसे कुछ पैसे देने चाहे, उसने मना कर दिया, बोली-
"भैया आपने खिलौना ले लिया बस उतना बहुत है।"
मैं विस्मित रह गया इतनी छोटी बच्ची और इतनी बड़ी सोच। माटी के इस खिलौने की बड़ी सोच ने मुझे बौना बना दिया।
रावण जल रहा था और बुराई पर अच्छाई की जीत हो चुकी थी।