कर्मफल
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"क्या? डोनर मिल गया? तुम ऑपरेशन की तैयारी करो! मैं बस पंद्रह मिनट में पहुँचा।"- नीलेश ने जल्दी से फ़ोन पटका और कपड़े पहनने लगा। नीलेश पेशे से डॉक्टर है। उसका बेटा हर्ष "क्रोनिक किडनी डिजीज" नामक बीमारी से पीड़ित है। उसकी दोनों किडनियाँ ख़राब हो गयी है। उसके पास अब कुछ घंटों का ही समय बचा है। अगर इस बीच उसको नयी किडनी ट्रांसप्लांट नहीं हुई तो उसकी मृत्यु निश्चित है।
नीलेश काफी दिनों से किसी किडनी डोनर की तलाश कर रहा था। उसने कई अख़बारों और समाचार चैनलों पर इश्तहार दे रखे थे।
और आज जब उसे किडनी डोनर की खबर मिली तो उसके पाँव जैसे ज़मीन पर नहीं पड़ रहे है।
वैसे तो हम सब डॉक्टर को भगवान के बराबर का स्थान देते हैं लेकिन आज एक भगवान को भी भगवान मिल गया है।
नीलेश बाहर निकल कर कार में बैठा और देखते ही देखते गाड़ी ने गति पकड़ ली।
नीलेश मानो मन की गति से अस्पताल पहुँचना चाहता था। उसके सामने बस उसके एकलौते जिगर के टुकड़े हर्ष का चेहरा मंडरा रहा था।
इन्हीं ख्यालों में डूबे नीलेश को सामने का रेड सिग्नल दिखा ही नहीं और उसकी ७० किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार वाली कार ने सामने ज़ेब्रा लाइन से सड़क पार कर रहे एक व्यक्ति को जोर की टक्कर मारी।
टक्कर इतनी जोर की थी कि वो व्यक्ति कुछ मीटर दूर जा गिर और वहीं दम तोड़ दिया।
नीलेश को जैसे होश आया। सामने का मंज़र देख वो डर गया और आसपास लोगों को इकट्ठा होते देख उसने कार भगा ली।
रास्ते भर नीलेश यही सोचता रहा की ये लोग सड़क भी देखकर पार नहीं कर सकते। सामने से गाड़ी आ रही है फिर भी इन्हें उसी समय सड़क पार करनी है, ज़रा भी सब्र नहीं है।
अस्पताल पहुँचकर नीलेश नर्स से बोला-
"हर्ष को जल्दी से ऑपरेशन थिएटर में ले आओ और डोनर को भी। दोनों को ग्लूकोस लगाओ और ट्रांसप्लांट की तैयारी करो।"
लेकिन नर्स वहीं खड़ी रही।
"सुना नहीं तुमने! जाओ अब, खड़े-खड़े मुँह क्या देख रही हो।"
सर...वो...वो डोनर अब नहीं आ पायेगा।
"क्या?...क्या मतलब नहीं आ पायेगा। पांच लाख रूपए मिलेंगे उसे बताया नहीं तुमने।"
"सर वो अस्पताल ही आ रहा था कि इतने में सिग्नल पार करते समय उसे किसी कार वाले ने टक्कर मार दी और वो मौके पर ही खत्म हो गया।"
नीलेश को अब चक्कर आ गया। पैरों तले ज़मीन खिसकती मालूम दी। उसकी आँखों में अभी कुछ देर घटित पूरा वाक़या तैरने लगा। वो पास के एक खम्बे के सहारे अपना सर पकड़कर नीचे बैठ गया और रोने लगा।
जो व्यक्ति इसके बेटे का जीवन लिए आ रहा था। इस अभागे ने उन्हें ही मार डाला। अब नीलेश के पास अपने आपको कोसने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।
"काश उसे मैं अपनी कार में बैठा कर अस्पताल ले आया होता तो शायद उनकी और मेरे बेटे दोनों की जान बच जाती। लेकिन मैं अभागा पूरे रास्ते उन्हें ही कोसता रहा।"
नीलेश अब अपने पाप का प्रायश्चित करना चाहता था लेकिन शायद उस पाप का कोई प्रायश्चित नहीं था।
नीलेश हर्ष के वार्ड की तरफ गया।
अपने बेटे से नज़रें मिलाने लायक तो वो बचा नहीं था इसलिए उसने बाहर से ही दरवाज़े पर लगे शीशे से अन्दर झाँका ......हर्ष बड़ी उम्मीदों से दरवाज़े की तरफ देख रहा था....उसकी साँसें धीरे-धीरे उखड़ रहीं थीं और उसका जीव शून्य में विलीन होता जा रहा था......