vijay laxmi Bhatt Sharma

Abstract

4.0  

vijay laxmi Bhatt Sharma

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लॉक्डाउन२ग्यारहवाँ दिन

लॉक्डाउन२ग्यारहवाँ दिन

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प्रिय डायरी, आज पूरे लॉक्डाउन का बत्तीसवाँ दिन है... ज़िन्दगी कुछ नए तजुर्बे सीख रही है सिखा रही है... ये भी एक दौर होता है बता रही है... आहिस्ता आहिस्ता अहम पिघल रहा है और सबको मिल कहने का मन कर रहा है की कुछ भी नहीं रखा आपस के झगड़ों मे कल ना जाने कौन सी नई बीमारी आकार फिर हमे डरा जाएगी कुछ और नहीं तो चार दिवारी मे ही कैद कर क़ैदी बना डालेगी... किसी से मिल ना पाएँगे और कहीं यूँ ही चल बसे तो अपनो से ना मिलने का दर्द भी साथ जाएगा।


प्रिय डायरी, जीवन के सबक सिखा रहा है ये वक्त... धीरे धीरे मशीन से आदमी बना रहा है ये वक्त... संवेदनाएँ लौट रही है ... दया भाव भी उमड़ रहे हैं... जो रिस्ते तने तने रहते थे समय के साथ लचीले हो रहे हैं... प्रेम की कोपलें फूट रहीं हैं सबके मन में फर्क सिर्फ़ इतना है कुछ ने गाँठे खोल दी हैं मन की कुछ की खुलनी बाकी हैं।


प्रिय डायरी, ये बुरा वक्त भी कुछ अच्छा सिखा कर ही जा रहा है दीवारों को मकान और सराय को घर बना रहा है... अब कोई नहीं कहता देर से आऊँगा या आऊँगी... खाना नहीं खाऊँगा या खाऊँगी... सब मिलकर एक साथ रहते खाते पीते हैं... हंसती हैं दीवारें की मुझे भी घर मिला है ऐ बुरे वक्त तूने कुछ तो अच्छा किया है।


प्रिय डायरी, रौनक है बुजुर्गों के मुख पर बाद गए उनकी ज़िंदगी के भी कुछ वर्ष.... अकेले कहाँ उनको कभी रोटी पचती थी... पेट भरने को ही बस खा लेते थे कुछ निवाले... खोखली दीवारें उनपर हँसती थीं की तुम और हम ही हैं यहाँ घर जैसी कोई चीज नहीं ना ही परिवार है कोई ... आज सब खुश हैं की घर घर गुलज़ार है।


प्रिय डायरी ,आज इतना ही वक्त की बहुत बड़ी ताक़त है ये भिखारी को राजा और राजा को भिखारी बना देता है जिसने भी वक्त की कद्र की वही कामयाब हुआ और ये वक्त भी उसी का ग़ुलाम हुआ... ये वक्त भी हँसते खेलते यूँ ही गुजर जाएगा और इस वैश्विक महामारी को समूल नष्ट कर फिर हमे अपनो से मिलाएगा आज इन पंक्तियों के साथ विराम लेती हूँ।


सब्र का प्याला ना छलका तू अभी ये वक्त कुछ तो अच्छा देकर जाएगा

रख हौंसला कुछ देर और अभी मनु ये वक्त भी हँसते हँसते कट ही जाएगा।


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