Bhawna Kukreti

Abstract

4.5  

Bhawna Kukreti

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किस्मत-2

किस्मत-2

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"मैंम तो जरा भी नहीं डरीं", विभुति जी हुड़का उठाते हुए,अपनी मां जी से हंसते हुए कह रहे थे। मां जी भी झाड़ फूंक के लिए अलग अलग अलग पेड़ो की टहनियां और कुछ सूखी घास आपस मे बांधते हुए मेरी ओर देखते हुए अपनी बोली में हंसते हुए बोलीं "ये सांप से नहीं भूत से डरती है ....सांप तो इसकी ओर बचपन से आकर्षित होते है ..है कि नहीं? " मैं तब विभुति जी की दूधिया रंग और फूल सी हल्की बेटी को अपनी गोद मे दुलार रही थी और खिला रही थी लेकिन मां जी की बात सुन कर मैं चौकन्नी हो गयी।


एक घंटे पहले , वो पेड़ जिसके नीचे हम सब बैठे चाय पी रहे थे वहां मेरे सर के उपर टहनी से एक बहुत मोटा काला सांप भी झूल रहा था। उसका फन मेरे सर के ठीक ऊपर डोल रहा था। उस वक्त विभुति जी ,बडा जी और उनकी पत्नी आपस मे बातों में मगन थे और मैं उनकी बातों को सुनने में।


"मैंम हिलना नहीं, आपके सर के ऊपर नाग है" ।

मैंने धीरे से ऊपर की ओर देखा। नाग का फन नीचे से देखने पर इतना खूबसूरत लग रहा था कि आश्चर्य और खुशी से मुंह से अनायास ही निकला "वाव !!" । मैं बस अभी देख ही रही थी कि एक लाठी की चोट ने उसे पेड़ से गिरा दिया, नाग गिरते ही जाने कहाँ चला गया। बडा जी की पत्नी गुस्से में बोली " निर्भगी अब नाग क भेस म डरान लगयूं ।" मेरी कुछ समझ मे नहीं आ रहा था।   

  

बाद में वहां से आगे बढ़ने के बाद विभुति जी ने बताया की यहां रोड बनाने के समय अंग्रेजों के समय बहुत दुर्घटनाएं होती थीं । पूर्बिया मजदूर सोये सोये मरे मिलते थे ।सो एक दिन अंग्रेज अफसर को देवी ने सपने में आकर कुंवारी औरत की बलि के लिए कहा सो उसके लिए नीचे के गांव की एक सुंदर सी अकेली औरत कों पकड कर बलि दे दी गयी थी। सो उसी औरत का भूत भेस बदल बदल कर लोगों को मिलता है, डराता है और कभी कभी तो घर तक साथ जाता है । ये बात सुन कर डर से अजीब सा महसूस होने लगा। मैंने विभुति जी की ओर कनखियों से देखा था। वो उस वक्त ये सब बताते हुए बहुत गंभीर दिख रहे थे। मेरे दीमाग पर अब उनकी हर बात का असर होने लगा था।अब विभुति जी भी डरावने से लगने लगे थे। फिर मेरी नजर सामने रखी शिव जी की छोटी सी प्रतिमा पर पड़ी। उस वक्त जो सुकून मिला वो लिख नहीं सकती। आस्था ने डर को निर्मूल कर कर दिया।अनायास ही मेरा हाथ शिवमूर्ति के चरणों पर चला गया , हाथों को वापस अपने माथे को छूआ । विभुति जी फिर मुस्कराने लगे और उन्होने एक गाना "सरा रारा प्वां प्वां, चली भे मोटर चली" चला दिया। हंसते हुए बोले " मैंम , इसे सुनिए ।" बहरहाल उस गाने से भी मन थोड़ा उन सब बातों से हटा । वाकई मुझे सांपों से उतना डर नहीं लगता जितना भूत प्रेत की बातों से। बड़ी ही दयनीय स्तिथि हो जाती है। हमेशा कैसे ऐसी सिचुएशन में खुद को सम्भालती रही हूँ, मैं ही जानती हूँ, खैर ।


घर पहुंचने पर सब से मुलाकात के बाद , विभुति जी ने अपना घर दिखाया ।उनका घर दूर से पारम्परिक दिखता था। पर छत पर सोलर पैनल बिछे थे। नीचे के कमरों में दरवाजे कम ऊंचाई के थे।गदेरे से पानी घर तक लाने के लिए लेटेस्ट टेक्नोलॉजी का प्रयोग किया था। किचेन में एक कोने में ठेकी, सिल , कलसा, गागर से लेकर मिक्सी -अवन भी दिख रहा था। ड्राइंग रूम में बुना हुआ लकड़ी का सोफा तिपाई और एक तख़्त पड़ा था जिस पर गद्दा, खादी की चादर और मसनद रखा था। चादर, बींचो बीच 4 फुट लंबे धंसाव में थी मुझे समझ आया कि शायद मां जी इसी पर सोती होंगी। "मां जी का बिस्तर है ,उन्हें यही जगह पसंद है।" विभुति जी ने अपने पीछे बाहर आने का इशारा करते हुए कहा। मुझे अपनी दादी जी की याद हो आयी ,वे भी हमारे गांव के घर मे , बैठक में उसी जगह बैठती थीं जहां से हमारा गेट दिखता था। यहां भी मां जी की जगह वैसी ही थी।यहां भी उस जगह से घर की ओर आता रास्ता दूर तक दिखाई पड़ता था।मेरे मन मे एक पुरानी याद ने कहा " शायद मां जी को किसी का इंतज़ार है।"

"जी?!..आपने कुछ कहा मैंम ? "

"नहीं सर ..बस मेरी दादी जी भी ऐसी ही जगह पर बैठती थीं जहां से उनको मेन गेट दिखे।"

" मैंम हर जगह .. घर के बड़े अपनो के इंतज़ार में रहते है।" 

गांव को घूमते घुमाते विभुति जी ने बताया कि उनके पिता व बड़े भाई अचानक एक दिन बिन बताए घर छोड़ कर चले गए थे। वे दोनों बहुत विलक्षण वैज्ञानिक विचारधारा वाले थे। मां जी के अनुसार उनको छल ले गया था। मां जी और विभुति जी के साथ दोनों समय अपने मैत में थीं ।वहीं उनको आभास हो गया था।मां जी के पुरखे अलौकिक जगत पर विश्वास करने वाले और पूजा पाठी थे। उन्होंने पहले ही सबको घर कीलने को कहा था लेकिन पति के साथ साथ ससुर जी भी आर्य समाजी थे सो उन पर भरोसा नहीं किया। मां जी का कहना था कि विभुति जी भी चले जाते लेकिन छल की मां जी के आगे नही चल पाई,उन्होंने उसे दाब दिया।अब विभुति जी के पिता जी नहीं लौटेंगे, वो पितर हो गए है लेकिन भाई ने लौटना है, पर अभी कुछ समय है। ये सब बातें मुझे अंदर से दुखी भी कर रहीं थी और डरा भी रहीं थीं। सोचने लगी " स्प्रिचुअल हीलिंग के चक्कर मे कहीं गलत लोगों के बीच तो नहीं आ गयी।" लेकिन विभुति जी ये सब कहते हुए बहुत सामान्य थे।वे बीच बीच मे अपना फोन भी जांचते चल रहे थे।


मैंने देखा उन्होने गांव में काफी काम कराया था। ज्यादातर तो जीवन को आरामदायक बनाने वाले सिम्पल इन्नोवेशन थे। गांव के एक दो लोग होम स्टे के बिजनेस में भी थे जिनके यहां विदेशी आते थे। खेतों में जैविक खाद पड़ी थी लेकिन इरीगेशन का सिस्टम आधुनिक था। छोटे छोटे पाली हॉउस दिख रहे थे। एक घर का आंगन जिसमे बच्चियां मशरूम पैक कर रहीं थी। एक नौजवान हेड फोन लगाए ,टैब में कुछ करता हुआ ,बगल से निकला। विभुति जी ने उसके सर पर चपत लगाई तो वो हंसते हुए बोला" भोल...भोल ह्वे जाल दादा "और वो हम दोनों को नमस्ते करके चला गया।

    

"विभुति जी आपका गांव प्रोग्रेसिव है लेकिन आश्चर्य है कि अभी तक फेमस नहीं हुआ"

"मैंम, सही जगह के लोगों को पता है बाकी भीड़ बुलाने से सब बर्बाद हो जाना है..अभी ये मेरा गांव बच्चा है..जरा और संभल जाए तब अपने आप .."

     

कुछ देर बाद हम एक बड़े से आंगन में थे । जहां दालों, सब्जियों को सुखाया जा रहा था । वहां से मेरी जरूरत की दाल हमने खरीद करी।ये बाजार भाव से बहुत सस्ती थीं और फ्रेश थीं।कोई कीड़ा या फफूंद नहीं।

हालांकि चलते- चलते सांस फूलने लगी थी पर मन बहुत खुश हो गया।एक तो इतना साफ सुथरा, हरा भरा खूबसूरत गाँव और ऊपर से जो चाहा वो मिल गया।


कुछ देर बाद हम वापस विभुति जी के घर पर थे। वे हमे घर की पहली मंजिल पर ले आये जहां हीलिंग की तैयारी चल रही थी। वे भी मां जी के साथ हुड़का बजाते हुए कुछ गाने लगे।वो जो गा रहे थे वह गढ़वाली में था पर कुछ समझ नहीं आ रहा था सिवाय "थान जाग " शब्दों के।धुन और संगीत जैसे जागर का हो लेकिन वो पूरा वैसा नहीं था। मां जी धीरे धीरे कांपने लगी थी।

नन्ही बच्ची मेरी गोद से उतर कर सूप में रखे ऊन के गोलों से खेलने लगी थी।उसे वहां होती गतिविधियों से जैसे कोई अंतर नहीं पड़ रहा था। बचपन मे दादी जी मेरी नजर अक्सर उतारा करती थीं।किसी ने उन्हें कह दिया था कि मैं सबकी बला अपनी तरफ खींच लेती हूँ ।तो ये झाड़ फूंक मुझे अनजानी नहीं लग रही थी।लेकिन जब मां जी ने प्रसाद देते हुए मेरे सर पर हाथ रख कर दूसरे हाथ से पीठ पर थपकियाँ देनी शुरू की तो मेरी आंखें जैसे घूमने लगीं।लगा जैसे वर्टिगो फिर शुरू हो गया।मेरी चीख निकल गयी। विभुति जी ने नजदीक आकर मेरा हाथ पकड़ा और इशारा किया जोर से सांस लेने का। जैसे तैसे ये सब अजीबोगरीब दौर खत्म हुआ।आखिर में मां जी ने एक काढा दिया कि इसे पी लूँ। पीते ही एक ताज़गी सी महसूस हुई। सर गर्दन की जकड़न सब गायब, सब बहुत हल्का ,शरीर जैसे 74 किलो का न होकर 54 किलो का है ऐसा लगने लगा। तभी फोन पर पांडेय जी की वीडियो कॉल आयी।


  मैं उनकी कॉल देख बहुत खुश हो गयी थी और उत्साहित थी उनको यहां का सब बताने को पर इससे पहले की मैं हेलो कहती ...जोर की डांट पड़ गयी।


"हद ही करती हो ..यार!"

"सोरी, पर बताया तो था और भेजा भी तो था एड्रेस!!"

"कौन सा अड्रेस? यार , तुम्हारी लोकेशन भी ऑफ है।"

"अरे!! ..कहाँ ,कैसे ...नही ऐसा तो नहीं है!!"

तभी इनके चहेरे पर एक बड़ी सी मुस्कान फैल गयी । मुझे लगा कि इन्होंने फिर मेरे साथ शरारत की लेकिन अगले ही पल


" ओहो .... विभुति.... प्रणाम माता जी ...कैसी हैं आप ? पहचाना मुझे !! " इन्होंने मेरे पीछे से आते विभुति जी और मां जी को देख कर कहा।

"अरे रे रे ...नमस्कार ...नमस्कार... पाण्डेय जी! धन भाग ,धन भाग जी!! " मां जी एक बड़ी मुस्कान के साथ दोनों हाथ उठा कर पांडेय जी को आशीर्वाद देने लगी।

विभुति जी और मां जी दोनों ने बड़ी हैरानी से मेरी ओर देखा। असल मे उस वक्त, हम चारों ही हैरान थे।


क्रमशः

 



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