हम कितना जानते हैं अपने धर्म के बारे में?!
हम कितना जानते हैं अपने धर्म के बारे में?!


विद्यालय में जहां बैठी हूं वहां नजदीक के मंदिर में हनुमान जयंती के उपलक्ष पर हनुमान चालीसा पढ़ी जा रही है । पूरा वातावरण भक्तिमय हो रखा है। मैं भी अपने परिचितों को भगवान हनुमान की जन्मोत्सव की बधाई और शुभकामनाएं संदेश देने के बाद इस वक्त अपने विद्यालय में एक पेड़ के नीचे बैठी हूं ।
भोजन माताएं बता रही थी कि गांव में रात्रि जागरण हुआ था तो इसीलिए बच्चे आज न्यूनतम आए है। इस वक्त भोजन अवकाश चल रहा है यानी इंटरवल है। बच्चों को कढ़ी चावल के साथ आज हलवा भी परोसा गया है। बच्चे आनंद से स्वाद ले रहे हैं। अच्छा लग रहा है।
पर मन थोड़ा खिन्न भी हुआ जाता है । कारण , हमारे सामने एक बिल्डिंग बनी है। जिस पर बंदर का एक जोड़ा बैठा है। उनके ऊपर किसी ने सिंदूरी रंग फेंका होगा जिससे भीग गए हैं और सिंदूरी हो गए हैं। शायद एलर्जी हो रही है उनको । बहुत बेचनी से पूरे शरीर को खुजला रहे हैं। और यही मुझे यह अच्छा नहीं लगा । हम गौ माता के प्रति इतने सचेत है तो अन्य प्राणियों के प्रति क्यों नहीं। यह कैसा धार्मिक उत्साह या व्यवहार है जिसमें आप मानवता को भूल रहे है। क्या आप वाकई अपने धर्म को जानते है?
खैर ,आगे जो लिखने जा रही हूं उससे मैं किसी की भी भावनाओं को आहत नहीं करना चाहती ।लेकिन, जितना ज्ञान गुरुजनों से और हमारी धार्मिक किताबों से मुझे मिला है उसके अनुसार आम जनमानस में हनुमान जी के प्रति जो बंदर स्वरूप की धारणा है, वह गलत है। हमारा सनातन धर्म प्रत्येक जीव- जंतु, पशु- पक्षी सब में ईश्वर का अंश मानता है और इसी कारण सब के प्रति आदर ,सम्मान और उनके पूज्य होने की भावना रखता है । परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं की श्री हनुमान जी बंदर प्रजाति से थे।
हनुमान जी के विषय में मुझे यह बताया गया है कि वह वन में रहने वाले नरों में से हुआ करते थे जिनमें दिव्य शक्तियां समाहित थी । यह भी कि वे रुद्र के अंशा अवतार थे ।उनका जन्म भगवान श्री राम की लीला में जुड़ने और नारद जी के भगवान हरी को दिए श्राप के क
ारण था । जिनके हनु यानी ढोडी पर इंद्र के वज्र प्रहार की वजह से एक उभार उत्पन्न हुआ था पर इसका मतलब यह नहीं है कि वह बंदर स्वरूप थे। खेद का विषय है की आम जन मानस में अपने सनातन धर्म के बारे में जानने की उत्कंठा न होने के कारण वानर शब्द को सिर्फ ' 'बंदर ' के अर्थ में लिया जाता है । लेकिन वानर का एक और अर्थ होता है । वानर अर्थात वन में निवास करने वाले नर। इनका शरीर विशाल और मजबूत हुआ करता था। इनकी अपनी एक संस्कृति हुआ करती थी । आज तो यह कई लोगों को कपोल कल्पना लगती है लेकिन जिस युग की यह बात है उस युग में देवों व धरती के प्राणियों के मध्य अच्छा संपर्क , प्रभाव और आवागमन था। इसलिए दिव्य शक्तियों से विभूषित अवतार लीला हेतु इस धरा पर आते थे।
धरती को आज पाश्चात्य अध्यात्म की दृष्टि से एक विद्यालय की संज्ञा दी जाती है जहां व्यक्ति अपने पाठ सीखने आता है। इसी को हमारे सनातन में पृथ्वी में सभी सुकर्म और निषिद्ध कर्मों का परिणाम को पाने और मोक्ष प्राप्ति के लिए जन्म लेना कहा गया है। और मोक्ष के लिए जन्म मरण का चक्र ,सत्कर्म करने को प्रेरित करता है जिससे हमारे सारे कर्म बंधन मिटे। हमारे सनातन में कर्म प्रधानता है। इससे देवता भी अछूते नहीं हैं। उसी क्रम में श्री राम व हनुमान जी का अवतार धारा पर आया। श्री राम ने जहां एक आदर्श समाज की स्थापना के लिए मर्यादा और मानव धर्म आधारित जीवन जीने को और हनुमान जी ने सेवा-समर्पण- सहयोग के आधार को प्रस्तुत किया।
लिखना बहुत कुछ चाह रही क्योंकि ये क्रूरता धर्म के ओट या उत्साह में कतई सही नहीं। पर अब इंटरवल पूर्णता की ओर है। फिर कभी इस बात पर विस्तार से लिखूंगी। तब तक उम्मीद है की सनातन धर्म के बारे में लोग जागरूक होंगे और प्रकृति- जीवों के प्रति सनातन की विचारधारा को जानेंगे, अपनाएंगे। तब शायद यह मन को विचलित करने वाले दृश्य सामने नहीं आयेंगे।
बहरहाल , आज बस वातावरण बहुत सुंदर और भक्तिमय है। आप सभी को श्री हनुमान जयंती पर अनेकानेक शुभकामनाएं।