Harish Sharma

Abstract Others

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Harish Sharma

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खिलना

खिलना

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आज लड़का पहली बार सब्जी की दुकान तक मोटरसाइकल चलाकर ले गया। मैं पीछे बैठा मुस्कुरा रहा था। जैसे उसके आत्मविश्वास पर गदगद हो रहा हूँ। वरना वो घर से गली के मोड़ तक ही मोटरसाइकल चलाता था, उसके बाद रोक देता। फिर मैं चलाता और वो पीछे बैठ जाता। एक बार उसे कहा था, "अब तो महीना हो गया है, आगे बाजार में भी चला लोगे।"

"ऐसे कैसे, अभी मुझे इतना नही आता, आप चलाओ।"

मुझे कहकर जैसे फिर वही अबोध बालक बन जाता जिसे मैं पीछे बिठाकर चक्कर लगवाया करता था।

जब से उसने चौदहवें साल में कदम रखा है, तबसे जैसे कितना कुछ मुझे याद दिलाता है। मेरा अपना समय। टोका टाकी। अपने ढंग से रहने, पहनने की चाहत। आकर्षण का वो रोमांचक अहसास। टीवी पर हीरो हीरोइन के निजी क्षणों में पनपते भावों को महसूस करने का अजीब सा सुकून।

अब वो ट्यूशन जा रहा हो या स्कूल, उसे बार बार शीशा देखना पड़ता है। कपड़ों को लेकर निजी पसन्द हावी है। मम्मी आज भी उसे अपने ढंग से कपड़े ख़रीदवाना चाहती है।

"मुझे ये सब नहीं पहनना, मैं कोई बच्चा थोड़े हूँ। ...नहीं मुझे ये रंग पसंद नहीं ....ये डिजाइन तो जोकरों वाला है।"

कितनी राय वो मम्मी को देता है, रिजेक्ट कर देता है माँ की पसंद को। वो खुद ही तय करेगा, उसे क्या पहनना हैं। अब वो बड़ा हो गया है।

मैं शायद थोड़ा समझता हूँ, इसलिए उसका समर्थन करता हूँ। इस पर पत्नी नाराज होती है।

"बस ऐसे ही सिर चढ़ाओ उसे, इसे क्या पता क्या पहनना है, क्या नहीं पहनना।"

"नहीं यार, अब वो बड़ा हो गया है, तुम भी थोड़ा समझो।"

मैं बस इतना भर कहता हूँ, पर वो मुझसे नाराज हो जाती है। थोड़े समय के लिए।

बच्चे की नाराजगी बहुत जल्दी खत्म हो जाती है पर बड़े की थोड़ी ज्यादा देर लगाती है। बाकी जिनकी खत्म नहीं होती वे न बड़े होते है न बच्चे, वे कुंठित कहलाते हैं। और यकीन मानिए ज्यादा गिनती तीसरी किस्म की ही है। खैर वो अभी बढ़ता हुआ बच्चा है। नाराज हो भी जाये तो भूल भी जल्दी जाता है। 

अभी दो दिन पहले जब वो सुबह की ट्यूशन से लौटा, जिस के लिए जाते समय भी वो दस मिनट लेट हुआ था। पिछले दो तीन दिन से जैसे उसका उत्साह ट्यूशन जाने के लिए घट गया। उसका मैथ उसके लिए कुछ कठिन रहा है , मैं जानता हूँ। समझ भी सकता हूँ क्योंकि मैं खुद मैथ्स में कमजोर रहा और बहुत कोशिश करने के बावजूद मुझे वो सारी कैलकुलेशन समझ नही आई जो एक बुद्धिमान समझे जाने वाले छात्र को आ जानी चाहिए थी। मैं तब ये नहीं समझ पाया था कि मुझे साइंस इतनी आसानी से कैसे समझ आ जाता था जबकि कैलकुलेशन में बुद्धिमान समझे जाने वाले कई छात्र साइंस में वैसे ही थे जैसे में मैथ्स में। 

उसका साइंस अच्छा था, अंग्रेजी की कविताएं वो झट से याद कर लेता। मालगुडी डेज और टॉम सावर को उसने हफ्ते भर में पढ़ डाला था।

"ये सब कहानी कविताएं पढ़ने से क्या होगा, असली बात तो सिर्फ है ही मैथ साइंस में। जॉब भी मिल जाती है और खाली समय में अकेडमी का बिजनस अलग खोलने का ऑप्शन। " उसकी मम्मी यही कहती जब मैं बताता कि इसमें किताबों से प्यार करने का जज्बा है।

"अरे यार जॉब अपनी जगह, कहानी किस्से अपनी जगह। क्या तुम्हें अच्छा लगेगा कि वो ऊना खाली समय इधर उधर आवारागर्दी करके बिताए। कम से कम उसकी कम्पनी तो अच्छे बच्चों से है। "मैं फिर बात को समझाने की कोशिश करता।

खैर जब वो उस दिन ट्यूशन से थोड़ा बुझा से, खीजा सा लौटा तो हमने अनुमान लगाया कि शायद इसका वीकली टेस्ट अच्छा नहीं हुआ। या ये हमें अपने टेस्ट के नम्बर बताने से हिचकिचा रहा हूँ।

"आज क्या करवाया ट्यूशन पर बेटे।" मम्मी ने पूछा।

"वही जो कल करवाया था।"

"तो कल वाले काम का आज टेस्ट नहीं लिया।"

"नहीं।" 

"क्यों नहीं लिया ?"

"मुझे क्या पता, जब लेना होगा ले लेंगे, मेरे कहने से टेस्ट नहीं होता।" उसने खीझ कर अपनी माँ को कहा और उठकर दूसरे कमरे में चला गया।

मुझे ये देखकर थोड़ी कोफ्त हुई। मैंने अपनी पत्नी का चेहरा देखा और उठकर बेटे के पीछे चला गया।

वो अपनी किंडल खोलकर कुछ पढ़ रहा था, शायद पढ़ने का दिखावा कर रहा हो। मेरे कमरे में आने और भी उसने एक बार मेरी तरफ नहीं देखा।

मेरा गुस्सा बढ़ गया, पर फिर भी कुछ कंट्रोल करते हुए मैंने पूछा।

"तुम्हारी मम्मी ने तुमसे जो पूछा था उसका जवाब देने की थोड़ी तमीज सीखो। हमारी बात न सुनने का मतलब ये निकलता है कि तुम हमें कुछ समझते ही नहीं। क्या वाकई ऐसा है??"

"नहीं ।" बहुत संक्षिप्त उत्तर देते हुए उसने किंडल को बंद कर एक ओर रख दिया। अब वो ऐसे बैठा था जैसे सजा सुनने वाला कोई निर्दोष बैठा हो।

"हर वीक तो टेस्ट होता है, क्या इस बार नम्बर कुछ कम हो गए हैं ?"

" नहीं, टेस्ट नहीं हुआ, शायद कल हो, मैं हर बार तो टेस्ट दिखाता हूँ।"वो बिना आंखें मिलाए बोल रहा था।

"खैर कोई बात नहीं, मैथ्स में मुझे भी बहुत प्रॉब्लम आती थी। नम्बर कम आ जाये तो ज्यादा चिंता मत करना, फिर कोशिश करना। खैर साइंस में कैसे चल रहा है ?" मैंने शायद जानबूझ कर पूछा क्योंकि वो साइंस में हमेशा अच्छे नम्बर ही लाता है।"

"ठीक है, बस थोड़ा फिजिक्स के न्यूमेरिकल्स कभी कभी समझ नही आते ?"

"ओह, ये सब मैथ्स की वजह से है, पर कोई बात नहीं। अभी शुरुआत है, इसलिए तुम्हें कठिन लगेगा। ...और कोई परेशानी जो तुम मुझे बताना चाहो।"

"नहीं, ठीक है।"

"कोई बात नहीं, कोई समस्या हो तो मुझे बता दिया करो बेटे।"

" सॉरी डैड, मम्मी से ऐसे बात करने के लिए।"

" कोई बात नहीं, आगे से ध्यान रखना।" मैं उसकी पीठ थपथपा कर बाहर चला गया। 

"क्या आप बाइक लेकर जा रहे हैं?" उसने मेरे पीछे आते हुए कहा।

मैं कहीं नहीं जा रहा था पर फिर भी मैंने उसे कहा , " हाँ जाना तो है, पर थोड़ी देर में, पर तुम बाइक को बाहर निकाल दो।"

उसे बाइक बाहर निकलने और घर के अंदर करने का नया शौक चढ़ा था। शायद अब वो मोटरसाइकल के साथ ज्यादा दोस्ताना होना चाहता हो। घर के प्रवेश पर बनी ढलान से मोटरसाइकल उतारना चढ़ाना भी एक नए आत्मविश्वास को पाने जैसा था। जब पहले पहल मैने उसे ऐसा करने को कहा था तो वो डर गया था। कहीं चढ़ाते समय बाइक बन्द हो जाय, वो पीछे लुढ़क जाए, उससे ब्रेक न लगे, सही गियर या क्लच प्रयोग न हो पाए और उनका संतुलन न बिठा पाए। 

इस डर को दूर करने के लिए मैंने पिता जी का फार्मूला अपनाया। शायद उन्होंने भी वो फार्मूला दादा जी से या किसी दोस्त से लिया हो। वास्तव में जो हम सीखते हैं और जैसे सीखते हैं, उसी को आगे ट्रांसफर करते हैं।

तो मैं उसे रक खुले मैदान में ले गया। बाइक चलाने के तौर तरीके सिखाये। सबसे महत्व पूर्ण होता है पहले गियर में आगे बढ़ाना और फिर रेस के साथ हर गियर को बदल कर संतुलन बनाना। अचानक ब्रेक लगाने की प्रेक्टिस और धीरे चलाने की सीख ये सबसे अहम लेसन थे मेरे लिए जो मैंने उसे सिखाये। और फिर चल सो चल। छोटी ढलाने जिन पर बाइक को चढ़ाना उतारना और क्लच, रेस गियर का हिसाब रखना, शायद उतना वो सीखने से न सीखा हो जितना अनुभव से। झट पट मोबाइल पर गेम खेलने सीखने वाले बच्चे शायद ऐसे ही सीखते हो। हमारे समय मे तो गेम का मतलब दौड़ना, कूदना ही था।

चौदह साल की उम्र में क्या क्या बदलाव होते हैं, इसके लिए अडोलोसेन्स की परिभाषा या किताब पढ़ने के बजाय आप अपने उन स्कूली दिनों को याद कीजिये जब आप इस उम्र में थे। दोस्त, आकर्षण, आदर्श, भावनाएं, प्रेम, आदर ये सब आपके लिए कितने नए हो रहे थे।

वो जब बार बार शीशे को देखता है, अपने बाल बनाता है या आपके बराबर खड़ा होकर आपके कंधे से अपने कंधे की ऊँचाई मिलाकर उसे मापता है तो कही न कही इसके अंदर बड़े होने की या अपने होने की पहचान खिल रही होती है। वो आजकल अक्सर ऐसा करता है।

अब वो कार्टून नहीं देखता, सीरियल देखता है। नए फिल्मी गानों में उसकी रुचि बढ़ गई है। अब वो मेरे साथ बैठकर बेटा कम दोस्त ज्यादा लगता है। अब वो बाजार जाने के लिए मुझ पर कम निर्भर है और कई कामों के लिए जिन्हें केवल मैं करता था, उनमें हाथ बटाता है। मसलन दुकान से सामान खरीद कर लाने में, ट्यूशन तक खुद चले जाने में और कभी कभार कुछ दूर से दूध ले आने में।

ये जरूरी नहीं कि वो सब बातें घर मे शेयर करें, हम भी नहीं करते थे और ये आदत शायद दस साल की उम्र के बाद ही विकसित हो जाती है। नहाने में देर लगाना, अपनी पेंट को दोबारा प्रेस करना या जूते खरीदने के मामले में अपनी राय के अनुसार ही फैसला लेना। वो अब मुहल्ले के बच्चों के साथ नहीं खेलता, उसे अपनी उम्र के लोग ही पसंद है। शाम को खेलने जाना है तो सारा सामान अपना चाहिए। किसी के सामान को शेयर क्यों करे ? अब उसकी अपनी आइडेंटिटी है या अस्तित्व कह सकें। बहुत सी बातें जो दोस्तों के बीच या केवल उस तक राज हों। फिर भी हमारी नजर उससे हटती नहीं। मां बाप यही करते हैं और यही उनके लिए ठीक भी मन गया है।

कल जब वो ट्यूशन से लौटा तो मेरे पूछने से पहले ही उसने चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया लाये बिना अपना तह किया हुआ टेस्ट मुझे पकड़ा दिया। मैंने उसके चेहरे और अपने आशंकित मन के बीच उलझते हुए उसे खोला।

पैतालीस नम्बर पचास में से आये थे। गणित का वीकली टेस्ट था।

"अरे वाह, बेटा, छह गए।"

मेरी आवाज सुनकर उसकी मम्मी भी आ गई और टेस्ट देखने लगी। 

हम दोनों ने उसकी पीठ थपथपाई। वो मुस्कुराया और हम बहुत खुश थे।

बढ़ते हुए बच्चे इतनी आसानी से समझ तो नहीं आते और उन्हें प्यार करना इतना मुश्किल नहीं।


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