जीवन की कमाई
जीवन की कमाई
शांता जी, की परछाई थी, रमीया।पैंतिस साल पहले शांता जब ब्याह कर सुदामा सदन आई थी,तबलगा था घर की कोई रिश्तेदार है,पर धीरे-धीरे पता चला कि सासु माँ ने रास्ते में भटकते हुए पायाथा और तब से वह घर की एक अहम सदस्य की तरह रह रही थी।
सभी को सुबह से शाम तक …रमीया… रमीया…आवाज़ लगाते ही सुनती आई थी।रमीया गर्म पानीदे,रमीया आज सुबह टिफ़िन तैयार कर देना,रमीया दादी की मालिश नहीं हुई…।
शांता जी की वो दाहिना हाथ थी।उनका एक कदम भी आगे बढ़ाना रमीया के बिना मुश्किल ही नहींनामुमकिन था तभी तो सभी उन्हें चिढ़ाते और कहते, ’मम्मा की चहेती ...
और रमीया खिलखिला पड़ती।
सेवा -भाव तो कूट- कूट कर भरा था।कर्मठ,हंसमुख,ईमानदार, अपनापन से सराबोर।बोली मेंमिठास इतनी मानो मिश्री की डली।
शांता जी, के बेटे रोहन की शादी थी।घर आए मेहमानों के ज़ुबान पर भी रमीया …रमीया ही चढ़ाहुआ था।सुबह की चाय किसे शक्कर वाली,किसे बिना शक्कर वाली देना है, सब उसे पता था।हलवाई के पास जाकर हिदायत दे आती।
“देखो भइया !ज़्यादा तीखा मत बनाना…अरे! भइया तेल हिसाब से डालो…अच्छा आटा जो बचा थाकहाँ गया?लड्डू की टोकरी स्टोर रूम में रख दो भइया।”सारी ज़िम्मेदारी एक घर की मालकिन कीतरह निभाया।
“चलो, अच्छे से सब निबट गया।तूने तो सारी ज़िम्मेदारी अपने उपर ले लिया था।मुझे कुछ पता हीनहीं चला…”शांता जी रमीया को कह रही थी।
रसोईघर से तेज स्वर में चिल्लाने की आवाज़ें भरी दुपहरी में सन्नाटे को चीर रहे थे।…’जाहिलऔरत…अंधी हो क्या?’
“तूझे पता है,कितना महँगा था यह…?”
“ग़लती हो गई माफ़ कर दो बहुरानी, हाथ से फिसलकर टूट गया।मैंने जानबूझकर नहीं तोड़ा…।”
रमीया, अपराधी की तरह नई नवेली बहू से माफ़ी माँग रही थी।
पहली बार ड्योढ़ी लांघते रमीया को देखकर।शांता, के पति ने रमीया का पक्ष लेकर, अपनी बहू कोही कठघरे में खड़ा
किया।
झर -झर बहते आँसुओं को पोंछते हुए रमीया ने कहा “दो मीठे बोल” की भूखी हूँ, बिटिया।”इस घरमें मैंने सारा जीवन बिता दिया।आज तक इस घर से मैंने जो इज़्ज़त कमाई है वही मेरे जीवन भर कीकमाई है।”