जबरिया
जबरिया
आख़िर रितेश ने वो कर दिखाया जिसका सपना उसके बाबूजी ने देखा था।वह बचपन से ही मेधावी था।जिस कार्य को ठान लेता तो कर के ही दम लेता।आज अपने माता-पिता सहित पूरे गाँव का नाम रौशन किया है उसने।
बड़का बाबू तो दलान में बैठ कर गाँव वालों को बुला -बुला कर कहते हमार ‘बबुआ कलक्टर बन गइलन।’
माता-पिता और पूरा गाँव रितेश के आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे।रितेश की माँ आशा जी के व्यवहार में रातों रात परिवर्तन नज़र आने लगे उनके मुख के हाव-भाव,वाणी सब पर अकड़ ने डेरा जमा लिया था, मानो उन्होंने ने ही परीक्षा पास किया हो।लाल बत्ती,बॉडी गॉर्ड,नौकर चाकर के सिवा कुछ बात ही नहीं करतीं।
आज नौकरी पर जाने से पहले रितेश घर आ रहा था।घर पर होली ,दिवाली जैसा माहौल था।दूर के रूठे रिश्तेदार भी मुख में शहद घोले रितेश मुन्ना तो ,रितेश बाबू से मिलने की इच्छा जता कर घर पधार चुके थे।कोई अपनी भतीजी तो कोई अपनी पोती की कुंडली रितेश बचवा के संग मिलाने में व्यस्त थे।
सुबह -सुबह ही गाड़ी आने वाली थी पर शाम गहराने को आई रितेश नहीं आया।ट्रेन निर्धारित समय पर आ कर जा चुकी थी।रितेश का फ़ोन स्वीच ऑफ बता रहा था।घर पर रोना-पीटना मच गया।थाना पुलिस किया गया।दूसरे दिन खोजबीन होने लगी ।गाँव से कुछ दूरी पर नहर के पास रितेश का मोबाइल मिल गया।गोताखोरों को लगाया गया परंतु कुछ हाथ नहीं लगा।
घर की ख़ुशी पर ग्रहण लग गया था।दूसरे दिन भी घर पर चूल्हा नहीं जला।भोर के क़रीब दो बजे रितेश के पिता के फ़ोन पर रिंगटोन बजा अरे द्वार पालों कन्हैया से कह दो…पिता ने झट फ़ोन उठाया तो दूसरी तरफ़ से रितेश ने फुसफुसा कर कहा “बाबूजी ,मुझे रास्ते से ज़बर्दस्ती कुछ गुंडे मुँह, हाथ बांध कर गाड़ी में बैठाकर सिवान के एक गाँव में ले आए और बंदूक़ की नोक पर एक अनजान लड़की से विवाह कर दिया गया है।मैं जबरिया गुंडों के चुंगल में क़ैद हूँ ।
वो तो लड़की समझदार है।उसी ने अभी चुपके से मुझे एक फ़ोन लाकर दिया है और कहा है कि “मैं ऐसी शादी के खिलाफ हूँ।”