हमें स्वयं को बचाना है
हमें स्वयं को बचाना है
अरुण अग्रवाल जी का सेवानिवृत्ति के बाद केवल एक ही जुनून था, पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करना । अरुण जी ग्लोबल वार्मिंग ,जलवायु परिवर्तन जैसे शब्दों से परिचित थे और अब तो ये शब्द ,मात्र शब्द ही नहीं रह थे अब इनका अनुभव भी हो रहा था । बढ़ती गर्मी के कारण बर्फ पिघल रही थी, बर्फ तो पहले बह पिघलती थी,लेकिन अब बर्फ और भी तीव्रता से पिघल रा थी । बर्फ के पिघलने से समंदर का जल-स्तर बढ़ रहा था और इस बढ़ते जलस्तर के कारण कई द्वीपों के जल में पूर्ण रूप से मग्न हो जाने का खतरा था । कुछ द्वीप तो डूब भी चुके हैं और पनामा के कुछ द्वीप निवासियों से खाली करवाए गए हैं और उन्हें दूसरी जगहों पर बसाया गया है ।
भारत का चेन्नई और साउथ अफ्रीका का केप टाउन शहर तो डे जीरो का भी सामना कर चुके हैं, ऐसा दिन जब शहरवासियों को एक बूँद पानी भी नसीब नहीं हुआ था । पानी का बेतहाशा इस्तेमाल और कुप्रबंधन ने ही यह दिन दिखाया था । पाइपलाइन से पानी की आपूर्ति और नल खोलते ही पानी मिल जाना और वह भी लगभग मुफ्त ,ने यह दिन दिखाया । मुफ्त में मिलने वाली वस्तुओं की कद्र कहाँ होती हैं । हम सब पैसे कमाने की दौड़ में लगे हुए हैं । जब सब पेड़ कट जायेंगे ,जब कुछ नदियाँ प्रदूषित हो जायेंगी ,जब कुछ नदियाँ सूख जायेंगी ,जब सारी भूमि बंजर हो जायेगी ,जब हवा जहरीली हो जायेगी, तब शायद हम समझेंगे कि हम पैसों को खा नहीं सकते । पैसा मानव इतिहास की सबसे अच्छी और सबसे बुरी खोज है ।
अरुण जी ने सदैव यही माना है कि ,"यह पृथ्वी हमें अपने पूर्वजों से विरासत में नहीं मिली है ,बल्कि हमें अपने वंशजों से उधार मिली है । हमें पृथ्वी जैसी मिली है ,वैसी ही लौटानी है । पृथ्वी को बचाना है । "
सावन के महीने में अरुण जी पौधारोपण का कार्यक्रम चलाते हैं और बाकी महीनों में पौधों को पानी पिलाने और वर्षा जल संचयन संरचना के निर्माण का कार्य करवाते हैं ।
अरुण जी ने पश्चिमी राजस्थान के जलप्रबंधन के बारे में सुन रखा था और वह उससे बहुत प्रभावित थे । पानी की एक -एक बूँद को बचाना ,वर्षा जल की हर एक बूँद को सहेजना ,जल का बजट बनाना, कोई सीखे तो पश्चिमी राजस्थान से सीखे । अरुण जी ने भी अपने क्षेत्र में कुछ तालाबों और बावड़ियों का जीर्णोद्वार भी करवाया है ।
अरुण जी अपने घर में भी पानी की बचत करने का प्रयास करते हैं । वाटर फ़िल्टर से निकले पानी का इस्तेमाल बर्तन धोने में करते हैं । दाल ,सब्जी आदि को धोने के बाद बचा हुआ पानी, घर में लगे पौधों में डाल देते हैं। अपनी कार हमेशा मग -बाल्टी में पानी भरकर धोते हैं । पड़ोसी शर्मा जी से तो बहस ही इसी बात को लेकर होती है ।
"शर्मा जी ,आप कार मोटर चलकर पाइप से क्यों धोते हैं ? इससे एक तो पानी बेकार होता है और दूसरा सड़क पर पानी ही पानी हो जाता है ,जो कीचड़ का कारण बनता है । "
"अरुण जी ,पानी की क्या कमी है ? और मेरे अकेले के बचाने से क्या होगा । आपके जैसे मग -बाल्टी उठाना मुझे पसंद नहीं । "
"ऐसे व्यर्थ बहायेंगे तो एक दिन पानी ख़त्म तो हो ही जाएगा । पानी ही क्या ,ऐसे तो यह धरती ही ख़त्म हो जायेगी । ग्लोबल वार्मिंग ,क्लाइमेट चेंज के बारे में तो सुना ही है न । "
"अरे अरुण जी, ये सब मीडिया की फैलाई बातें हैं । आप भी कहाँ की बात कहाँ ले जाते हैं । "
शर्माजी का मूड और भाषण सुनने का नहीं था, इसलिए वह चुपचाप वहाँ से खिसक लिए थे । शर्माजी ही क्या ,हम में से ज्यादातर लोगों को ऐसी बातें भाषणबाजी ही लगती हैं । लगे भी क्यों न ,कार्बन उत्सर्जन को कम करने के उपाय ढूंढने वाली ,मीटिंग्स एयर कंडीशनर रूम्स में होती हैं और उनमें हमेशा प्रकृति और विकास में संतुलन बनाये रखने की जद्दोजहद में विकास का पलड़ा ही भारी रहता है । विकास चाहिए तो थोड़ा -बहुत जलवायु परिवर्तन तो झेलना ही होगा ।
अरुणजी स्वयं भी तो पहले कहाँ पर्यावरण प्रेमी थे ? उनके दफ्तर में आये बॉस से उन्हें प्रेरणा मिली थी । भरी गर्मियों में जहाँ कर्मचारियों के कार्यस्थल पर कूलर चलते थे ,वहीं बॉस अपना एयर कंडीशनर कभी ऑन नहीं करते थे ।
अरुणजी ने एक बार अपने बॉस से पूछा था ,तब उन्होंने कहा कि ,"अरुण जी हमें प्रकृति से उतना ही लेना चाहिए ,जितना हम उसे लौटा सकें । वैसे भी हमारी ऊर्जा जरूरतें इतनी बढ़ी हुई कि हम जितनी ऊर्जा प्रकृति से लेते हैं ,उतनी लौटा कहाँ पाते हैं ? कम से कम एयर कंडीशनर का इस्तेमाल न करके मैं कुछ ऊर्जा तो बचा ही लेता हूँ । "
उस दिन से अरुण जी ने भी प्रकृति को लौटाने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी अर्थात अरुण जी पर्यावरण प्रेमी हो गए थे । प्लास्टिक का इस्तेमाल कम से कम करते ,सब्जी मंडी जाते तो अपना थैला लेकर जाते ,गाहे -बेगाहे अपने आसपास के लोगों को टोकते रहते । सेवानिवृति के बाद तो पूर्णरूपेण पर्यावरण के संरक्षण में लग गए थे ।
फ़ोन उन्होंने रख दिया था । कल के पौधारोपण के लिए पौधों की व्यवस्था हो ही गयी थी । पौधारोपण का किट उनकी गाड़ी में था ही । कल उपस्थित रहने वाले लोगों की कन्सेंट आ ही गयी थी ।
"दादू ,डॉयनासोर एक्सटिंक्ट क्यों हो गए ?",अरुण जी की प्लानिंग में उनकी चार वर्षीय पोती आद्रिका ने आकर सेंध लगा दी थी ।
"बेटी ,उनका फ़ूड आदि सब नष्ट हो गया था । पृथ्वी उनके रहने लायक नहीं बची थी । "
"दादू तो क्या हम भी एक्सटिंक्ट हो जाएंगे ,अगर हमारे लिए फ़ूड आइटम नहीं होंगे ?"
आद्रिका के इस प्रश्न ने अरुण जी के सोचने का तरीका बदल दिया । इस एक प्रश्न ने उन्हें एक नया विचार दे दिया ।
"हाँ बेटी ,मेरी प्यारी बेटी । "
"मुझे सबको यह समझाना है कि अगर अपने आपको बचाना है तो पर्यावरण को बचाओ । पृथ्वी पर तो अब तक पाँच सामूहिक एक्सटिंक्ट हो चुके है ,एक और हो जाएगा । पृथ्वी तो वैसे की वैसी है । पृथ्वी को नहीं ,हमें स्वयं को बचाना है । ",अरुण जी ने अपने आप से कहा ।