Yashwant Rathore

Abstract Inspirational Others

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Yashwant Rathore

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डर

डर

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डर, ये वो शब्द हैं जिसका आपके जीवन से गहरा नाता हैं। पर इसकी क्या उपयोगिता हैं और असल में ये है क्या?

डर अचानक से कुछ हुई क्रिया की स्वाभाविक प्रतिक्रिया हैं। इसमे अचानक शब्द बहुत महत्वपूर्ण है।

जैसे अचानक से आपका पैर फिसल जाये और आप संभल जाये।

जैसे एक सांड आपकी तरफ दौड़ता हुआ आये और आप एक दीवार फांद जाये।

या अचानक कोई पीछे आ, जोर से चिल्लाए

इसमें डर तीव्र निर्णय लेने में मदद करता हैं और आपकी सीमाये, दायरे भी बढ़ाता हैं। इसमें बुद्धि ही डर की, क्रिया या भावना, और अनेक क्रिया या भावना के साथ पैदा करती हैं। यह आपकी सुरक्षा के लिए बुद्धि या सम्पूर्ण शरीर की प्रतिक्रिया होती हैं। स्वयं आप विचार कर, सोच कर इसे पैदा नहीं करते।

इसके अलावा डर आपके जीवन में नहीं होना चाहिए क्योंकि व उपयोगी न होकर आपकी क्षमताओं का नुकसान ही करता हैं

आज के संदर्भ में कोरोना महामारी का ही उदाहरण ले लीजिए, अगर आप ज्यादा चिंता करते हैं और आप मे भय पैदा होता है तो प्रथम, डर आपके इम्यून सिस्टम, रोग प्रतिरोधक क्षमता को ही कम कर देता हैं जो इस महामारी से लड़ने के लिए पहली आवश्यकता है ।

बीमारी से बचने के लिए जरूरी नियमों का पालन करना समझदारी हैं पर डर की इसमें कोई उपयोगिता नहीं हैं।

अगर डर ही आपको नियम पालन करने के लिए मजबूर करता हैं तो आपको अत्यधिक विकास की आवश्यकता हैं, मानव जीवन का इतना नीचा स्तर नही होना चाहिये।

पहली गलती ये हैं कि हम डर और चिंता को सीधा ईमानदारी से नही देखते। हम ये नही कहते कि - हां, मुझमे सौ तरह के डर हैं पर अब इससे निजात कैसे पाये।

हम सीधा सामना न कर , सौ तरह से बहाने बनाते हैं जैसे कि - ,मुझे डर तो नही लगता बस एक फिक्र है कि कल मुझे कुछ हो गया तो, ये अटके हुवे अधूरे काम कौन पूरे करेगा और पूरा भार परिवार, बच्चों पर आ जायेगा।

पर जब आप इतिहास में भी देखते हैं तो हमारा कर्तव्य बस इतना हैं कि हम बस अपना कर्म करें और फल की चिंता न करें। जैसे महाराणा प्रताप का सपना चित्तौड़ को पुनः हासिल करने का था , जीवन भर युद्ध के बाद नब्बे प्रतिशत हिस्सा उन्होंने जीत लिया पर बस चित्तौड़ का किला न जीत पाये। आपको क्या लगता हैं, महाराणा जब देवलोक हुए होंगे तो क्या उन्हें अफसोस रहा होगा। नहीं, क्योंकि उन्होंने अपने कर्तव्य के लिए जीवन भर संघर्ष किया, वो यही कर सकते थे। बाकी होनहार के हाथ।

पर प्रताप की मृत्यु के कुछ सालों बाद तक ,उनके पुत्र अमर सिंह जी ने संघर्ष रत रह  चित्तौड़ का किला पुनः प्राप्त कर लिया।

जब आप यह बात समझ जाते हैं कि डर या चिंता करने की बजाय बस जरूरी कर्म पे ही हमारा अधिकार हैं, फल हमारी इच्छा अनुरूप या उससे अलग भी हो सकता हैं तो लक्ष्य प्राप्ति के पहले के रास्ते भी शांति युक्त ,एक ठहराव युक्त होते हैं और आप रास्ते का भी आनंद ले पाते हैं। मंजिल तक न भी पहुंचे तो भी जीवन अभाव युक्त नहीं होगा।

आप एक बात अभी तक और समझ पाये तो वो ये की बिना चिंता किये ,डर पैदा नहीं होता। चिंता से ही हम डर को पैदा करते हैं ,वो स्वाभाविक शरीर की रक्षात्मक क्रिया नहीं हैं, सो अस्वाभाविक हैं और आपके लिए नुकसानदेह हैं।

हकलाना सिर्फ डर की वजह से होता हैं, जो ये समझ लेता हैं, ऐसे कई बचपन से हकलाने वालो की भी ये परेशानी दूर हो गयी।

आप भूत से तभी डरते हैं जब कभी रात में उसके संबंध में विचार आ जाये।

सोचिए आपके डर ने आपको कितने पसंदीदा काम करने से रोका हैं।

डर का सीधा सामना न करने से, उसे न समझने से आप घुमावदार रास्ता या शॉर्टकट लेते हैं और अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच पाते।

सोचो पुराने योद्धा या अभी के देश के रक्षक डरपोक हो तो क्या हो।

सोचिए आपके डर ने आपकी क्षमताओं को कितना बांध रखा हैं।

कुछ लोग मृत्यु से भी डरते हैं, पर क्या आप नहीं जानते उसे टाला नहीं जा सकता वो निश्चित हैं फिर भागना कहा।

हमारे सारे शास्त्र कहते हैं कि अकाल मृत्यु नाम की कोई बात नहीं होती, मृत्यु भी वक़्त अनुसार निश्चित होती हैं। फिर कोई तीस में ,तो कोई अस्सी में।

क्या आपको नहीं लगता कि जीवन मे कई ऐसे मौके आते हैं तब आपको जीवन की फिक्र नहीं होती या नहीं करनी चाहिए। तब आवश्यक कर्म करना चाहिए भले प्राण न रहे। क्या ऐसे मौके ही आप में प्रेम का सृजन नहीं करते ?

क्या आपने कभी महसूस नहीं किया कि जब आप प्रेम में होते हैं तो निर्भय होते हैं।

जो व्यक्ति अत्यधिक भययुक्त होता हैं वो खुद को भी नहीं संभाल सकता। ऐसे व्यक्ति के मुंह से, देश प्रेम, समाज सेवा, परोपकार, दूसरों की मदद, या खुद के सपने पूरे करना, ये सब बातें बेमानी नहीं हो जाती।

आप मे कैसे कैसे डर होते हैं, मरने का डर, नौकरी जाने का डर, शादी न होने का डर, बालों के उड़ जाने का डर, बुढ़ापे का डर, प्यार खो जाने का डर, कल क्या होगा का डर, लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं इसका डर, इज्जत, सम्मान खो जाने का डर, औरों से पीछे रह जाने का डर, लड़ाई झगड़े का डर , अकेले रह जाने का डर आदि आदि

जब आप डरपोक होते हैं तो अत्यधिक स्वार्थी हो जाते हैं, आप खुद को बचाने के लिए ,दूसरे मरे तो भी आपको ज्यादा फर्क न पड़ेगा।

डर आपकी समझदारी को भी कमजोर या खत्म कर देता हैं।

प्रेम में आप दूसरे के लिए त्याग कर जाते हैं।

प्रेम विचारों से पैदा नहीं होता और भय विचारों से ही पैदा होता हैं।

तो फिर डर को दूर कैसे किया जाये, क्या तरीका हैं।

यकीन मानिये कोई तरीका नहीं हैं , जितने तरीके आजमाएंगे उलझते जायेंगे।

आपकी जो भी परेशानी हैं  जो चिंता का कारण है उसको सप्ताह में या दिन में  कुछ तय वक़्त, जितना जरूरी हो, जैसे दिन में एक या दो घंटे दे दीजिए. बाकी बचा वक़्त मस्ती में, शांति में गुजारिए. बचे वक़्त में भूल जाएं कि कोई परेशानी हैं. बर्बाद भी हो जाएंगे तो भी बचे वक़्त में उन विचारों या भावो से दूर रहे.

कोई परेशानी जैसे कोर्ट केस, बीमारी, पुलिस का चक्कर या अन्य कोई, इनको सुलझने में सालो लग सकते हैं. तब तक क्या परेशान ही रहना चाहिए?

रिजल्ट जो भी आए परेशानी का, वो आपके हाथ मे न हो शायद. सो फिक्र न करें. इसी तरह बैलेंस रखे.

बस जब आप जागरुक होते है ,आप अपने ऊपर ध्यान देते हैं कि कब आप व्यर्थ ही डर रहे हैं, चिंता कर रहे हैं, जिसका कोई फायदा नहीं ,उलटा आप कमजोर हो रहे हैं और आपको देख आपके साथ वाले भी।।

ये समझ जितनी बढ़ेगी , तब आप देखेंगे कितने व्यर्थ डर ,झूठे डर आपको घेरे हुए, बांधे हुए थे जो आपको ठीक ढंग से सांस भी नहीं लेने दे रहे थे।



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