Rashmi Trivedi

Romance

3.4  

Rashmi Trivedi

Romance

बसंत का इंतज़ार

बसंत का इंतज़ार

6 mins
189


अपने घर की छोटी सी फुलवारी में गमलों को पानी देते हुए चित्रा कुछ गुनगुना रही थी।

"पिया बसंती रे, काहे सताए आजा....."

रह रहकर उसकी नज़रें घर के सामने वाले रास्ते को निहारती जा रही थी।

कई दिनों की मेहनत के बाद उसने ये छोटी सी बगिया सजाई थी। बसंत ऋतु के आते ही उसकी फुलवारी रंग बिरंगी फूलों से महक उठी थी। फूलों के साथ साथ चित्रा भी आज खिल सी गयी थी। रजनीगंधा के पौधे देख चित्रा मन ही मन खुश हो रही थी। उसके पसंदीदा फूल की कलियाँ भी खिल चुकी थी। बस अब उसे इंतज़ार था उनके खिलने का।

एक बार फिर चित्रा ने सामने वाले रास्ते की ओर देखा। बसंत ऋतु तो आ चुका था लेकिन चित्रा को अभी भी अपने बसंत का इंतज़ार था।

अचानक पीछे से माँ की आवाज़ आयी,

"रहने दे, मत कर इंतज़ार, वो नहीं आयेगा इस बार भी। उसको कहा अपनी माँ और बीवी की चिंता है???"

अपने हाथों का काम छोड़ चित्रा माँ के पास आई और कहने लगी,

"नहीं माँ, उनका फ़ोन आया था मुझे, कह रहे थे इसबार पूरे दो महीने की छुट्टी लेकर आ रहे है, सुबह मैंने फ़ोन किया था लेकिन बात नहीं हुई, शायद सफर में उनका फ़ोन बंद हो गया होगा। आप बिल्कुल चिंता मत करो, बस अभी आते ही होंगे।"

अपने आंचल से नम आंखों को पोंछते हुए माँ ने कहा, "पिछली बार भी यही कहा था उसने और ऐन मौके पर कहने लगा छुट्टी कैंसिल हो गई। कितना समझाया था उसे मैंने, कोई दूसरा काम देख ले, लेकिन पिताजी जितना ही जिद्दी ठहरा वो भी। पिताजी की तरह उसे भी फ़ौज में ही जाना था। कहता था, देश की सेवा करनी है। पहले उसके पिताजी का इंतजार करती थी, अब उसका। मेरी तो ज़िंदगी ऐसे ही कट गई।"

अपनी सांस की बात सुन चित्रा ने कहा, "अरे माँ, आपको तो नाज़ होना चाहिए अपने बेटे पर, पिताजी का भी तो यही सपना था ना कि उनकी तरह उनका बेटा भी अपनी भारत माता की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दे।"

"करो, तुम भी उसी की तरफदारी करो, मेरी कौन सुनता है इस घर में, मेरा भी मन करता है पोता-पोती, बेटे-बहू के साथ वक़्त गुजारूं और वक़्त ही कितना बचा है मेरे पास??" कहते हुए माँ घर के अंदर चली गयी।

माँ की इन सब बातों की चित्रा को अब आदत सी हो गयी थी। वो भी जानती थी, माँ भले ही अपने बेटे बसंत को फ़ौज से लौटने को कहती हो लेकिन अपने बेटे पर खूब नाज़ था उन्हें। जब भी कोई मेहमान घर आता और बसंत के बारे में पूछता तो अपने बेटे के तारीफ़ों के पुल बांधना शुरू कर देती।

चित्रा फिर एक बार अपने काम में जुट गई। आज उसे बहुत काम था। पेड़ पौधों को पानी देने के बाद वो घर के अंदर गई और पूरे घर की सफाई करने लगी। आज उसने पूरे घर को चमका दिया था।

उसे फिर याद आया, आज तो उसे अभी बसंत का मनपसंद खाना भी बनाना है। वो जल्दी जल्दी सारे काम ख़त्म कर रसोईघर में गयी। माँ को चाय नाश्ता देकर वो फिर अपने काम में व्यस्त हो गई। आज उसे नाश्ता करने का भी वक़्त नहीं था।

सारे काम निपटाकर वो अपने बेडरूम में गई और फ़्रेश होने के बाद तैयार होने लगी। अलमारी खोलकर कई देर तक सोचती रही कि ऐसा क्या पहनूँ जो बसंत को पसंद आए। नई नई शादी के बाद बसंत ने उसे एक हरे रंग की साड़ी तोहफ़े में दी थी। चित्रा ने सोच लिया था आज वह वही साड़ी पहनेगी।

सुबह से दोपहर हो चुकी थी, सारी तैयारियां भी हो चुकी थी पर बसंत का कोई अता पता नहीं था।

चित्रा ने एक बार फिर बसंत के मोबाइल पर कॉल किया पर फ़ोन अभी भी बंद था।

सुबह से पूजा घर में बैठी माँ अब अपने कमरे में जाकर लेट गई थी। खाने का वो पहले ही मना कर चुकी थी। चित्रा की तो जैसे भूख ही मर गई थी। टीवी लगाकर बैठी तो थी पर पूरा वक़्त दरवाज़े की ओर ही देख रही थी। देखते देखते दोपहर से शाम और शाम से रात हो गई। अब उसके सब्र का बांध भी टूटने को था।

लेकिन माँ की ओर देख वो अपने आप को टूटने से रोक रही थी। उसे डर था उसकी नम आंखें कही माँ ना देख ले।

वह एक बार फिर घर की आँगन में गयी। उसकी फुलवारी से आती फूलों की खुशबू से पूरा आँगन महक उठा था। उसने एक नज़र सामने वाले रास्ते पर डाली, वहाँ रात के अंधेरे के सिवाय और कुछ नहीं था।

फिर उसने मुड़कर रजनीगंधा के पौधे को देखा, कुछ अधखिली सी कलियाँ जैसे झाँककर उसे देख रही हो। उनमें से एक कली बाक़ियों के मुकाबले कुछ ज्यादा खिली थी, जैसे किसी भी वक़्त खिलकर फूल बन जाए। उसकी होंठों पर एक मुस्कान आ गई।

अजीब सी स्थिति में थी चित्रा। होंठों पर मुस्कुराहट और आँखों में आँसू लिए वह कुछ देर वही खड़ी रही। फिर आँखों से बहते आँसुओं को पोंछकर घर के अंदर जाकर दरवाज़ा बंद कर दिया।

अभी दरवाज़ा बंद कर वो मुड़ी ही थी की दरवाज़े पर दस्तक हुई। वह बिजली की रफ्तार से मुड़ी और दरवाज़ा खोला, सामने बसंत को देख वह फूली ना समायी और तेज़ी से उससे लिपट गई। रोते हुए कहने लगी, "कितनी देर कर दी, मैं कबसे आपका इंतजार कर रही थी!!"

अपनी चित्रा को यूँ छोटी बच्ची सा रोता देख बसंत ने प्यार से उसके माथे को चूमकर कहा, "अरे पगली, ट्रेन लेट हो गयी थी मेरी, मैंने तो तुम्हें पहले ही बता दिया था इस बार छुट्टी कन्फर्म है।"

बेटे की आवाज़ सुन माँ भी अपने कमरे से बाहर आई, बसंत अपना सामान वही दरवाज़े में रख माँ की ओर बढ़ा। माँ के पाँव छूकर आशीर्वाद लिया। माँ ने नम आँखों से अपने बेटे को गले लगाते हुए कहा, "कितना सताता है रे तू हमें!"

बसंत ने भी हँसते हुए कहा, "माँ, अभी तो आया हूँ, यह शिकायतें आराम से कर लेना, इस बार पूरे दो महीने के लिए आया हूँ, साल भर की सारी शिकायतें याद कर लो सब सुन लूँगा मैं!"

आगे बढ़कर बसंत ने अपने स्वर्गवासी पिताजी की फोटो को प्रणाम किया। माँ और चित्रा दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा। दोनों अपने बसंत को फ़ौज की वर्दी में देख गौरवान्वित महसूस कर रही थी।

"माँ, बहुत भूख लगी है, जल्दी से कुछ खाने को दे दो", बसंत ने कहा।

"हाँ, हाँ, जा, तू हाथ मुँह धोकर आ, मैं अभी खाना गर्म करती हूँ", माँ ने बसंत से कहा। फिर माँ चित्रा की ओर देखते हुए आगे कहने लगी, "इस चित्रा ने भी सुबह से कुछ नहीं खाया है। तेरी बीवी है ना तुझ जैसी ही जिद्दी है, अब बुत बनी वहाँ क्या खड़ी है?? चल, बसंत का सामान अंदर ले ले।"

बावली हुई चित्रा ने बसंत का सामान लिया और दरवाज़ा बंद करने ही वाली थी तभी उसकी नज़र रजनीगंधा के पौधे पर पड़ी, वो जो एक अधखिली कली जो पहले चित्रा को झाँककर देख रही थी वो अब पूरी तरह से खिलकर फूल बन गयी थी। चित्रा के होंठों पर प्यारी सी मुस्कान थी। अब बसंत ऋतु के साथ साथ उसका बसंत भी आ गया था। उसके बसंत का वो लम्बा इंतज़ार अब ख़त्म हो गया था।



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