Rashmi Trivedi

Inspirational

4.5  

Rashmi Trivedi

Inspirational

अनोखा रिश्ता

अनोखा रिश्ता

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कई महीनों की सर्दी के बाद जून का महीना अपनी पूरी गरमाहट लिए फ्रैंकफर्ट के निवासियों का स्वागत कर रहा था।


जिन पेड़ों के पत्ते कभी ठंड की मार सहकर गिर चुके थे, आज वही पेड़ खूबसूरत पत्तों और फूलों से लहरा उठे थे। यही पेड़ अपनी छाया से पार्क में आने वाले लोगों को विश्राम भी दे रहे थे।


हर वर्ष की तरह आज भी चैरी के पेड़ों पर फूलों के गुच्छे आरती को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। पार्क में वॉक करते हुए वह रुककर उन खूबसूरत से चेरी के फूलों की तस्वीरें अपने कैमरे में कैद रही थी। पिछले तीन वर्षों से आरती का सुबह का समय फ्रैंकफर्ट के इसी बोटैनिकल पार्क में व्यतीत होता था। घर के नज़दीक इतने सुंदर पार्क का होने का कुछ तो फायदा उठाना ही था।


इतने समय में उसने फ्रैंकफर्ट में रहकर जर्मन लोगों का रहन-सहन, उनकी भाषा, उनकी संस्कृति को करीब से जान लिया था। जब तीन वर्षों पहले अपने पति के साथ वह पहली बार फ्रैंकफर्ट आयी थी तो कितने सवाल थे उसके मन में!! कैसे रह पाऊँगी परदेस में, वह भी ऐसी जगह जहाँ लोग केवल अपनी मातृभाषा ही बोलना ज़्यादा पसंद करते है। कैसे सीख पाएगी वह यह सब??


मगर अब तो उसने ख़ुद ही उस भाषा को अच्छे से सीख लिया था। बल्कि अब तो वह अपने लिए किसी नौकरी की तलाश में भी थी। टीचिंग का तजुर्बा होने की वजह से वह शिक्षा क्षेत्र में ही अपने लिए नौकरी तलाश रही थी, लेकिन अभी तक कोई सफलता उसके हाथ न लगी थी।


वॉक करके जब वह घर लौटी तो देखा उसके पति आदित्य अपने ऑफिस रूम में बैठे अपने काम में व्यस्त थे। वर्क फ्रॉम होम के चलते उन्होंने घर में ही ऑफिस का सेटअप कर रखा था। आरती के आने की आहट होते ही आदित्य ने अपनी जगह से उठकर मुस्कुराते हुए उसका स्वागत करते हुए कहा, "मुबारक हो मैडम, "येत्स दु बीस्ट लेहरारीन"(अब तुम शिक्षिका हो)!!


आरती ने बड़े ही आश्चर्य से पूछा, "यह क्या कह रहे है आप??"


अपने हाथों का एनवेलप आरती को दिखाते हुए उन्होंने कहा, "यह देखो, विसबाड़न के जिस हाईस्कूल में तुमने इंटरव्यू दिया था, वहाँ से लेटर आया है। नेक्स्ट सेशन यानी सितंबर से तुम्हें जॉइन करना है। अपने पति के मुँह से यह ख़बर सुन आरती के खुशी का कोई ठिकाना नहीं था।


वैसे फ्रैंकफर्ट से विसबाड़न की दूरी पैंतालीस किलोमीटर की थी, मगर आरती हर तरह की मुश्किल का सामना करने को तैयार थी। इस नौकरी को पाने के लिए उसने बहुत मेहनत की थी, तीन वर्ष से घर बैठे बैठे वह उकता सी गई थी। देखते देखते दिन गुजरते गये और स्कूल का पहला दिन भी आ गया। नौकरी के पहले दिन थोड़ी नर्वस तो थी वह, लेकिन उसे लगा था, चूंकि भारतीय हर जगह मिल ही जाते है, तो हो सकता है कि इस स्कूल में भी कोई मिल ही जायेगा। मगर उसने जो सोचा था, ऐसा कुछ नहीं हुआ।

पूरे स्कूल में एक अकेली वही ‘भारतीय’ थी, सो सभी की नजर उस पर अटक जाती थी। मगर उसने फिर भी हार नहीं मानी थी। अपने विचारों को क़ाबू कर वह अपने आप को साबित करने की पूरी कोशिश में जुट गई। उसे औरों से अधिक परिश्रम करना था, स्वयं को सिद्ध करना था। इसीलिए सबसे पहले उसने अपनी फ़्रेंडली छवि से साथी शिक्षिकाओं का, स्टून्डेंट्स का सब का मन जीतना शुरू किया।


स्कूल में उसके साथ ही नौकरी जॉइन करने वाली एमिलिया से आरती की अच्छी दोस्ती हो गई थी। हर परेशानी में वह उसका सहारा बनती, उसे विद्यार्थियों के बारे में बताती, कोर्स के बारे में सिखाती और पढ़ाने की योजना तैयार करने में उसकी मदद भी करती।


शुरुआती जोश में कुछ माह तो बहुत ही अच्छे से गुज़रे, मगर धीरे धीरे आरती को एहसास होने लगा की उस के भारतीय मन मस्तिष्क के लिए जर्मन स्कूल का वातावरण कुछ ज़्यादा ही मुश्किल

था। अच्छा होता अगर वह कहीं और नौकरी करती जैसे किसी छोटे बच्चों की स्कूल में!!


ऐसा सोचने की एक वजह थी।


जब तक छठी और सातवीं कक्षा के बच्चों की बात थी सब ठीक था पर उस के बाद के बच्चों को क़ाबू में करना आरती के लिए बहुत ही कठिन हो रहा था। कभी कभी तो उनकी शरारतें, उनकी भाषा, गाली गलौज सुन उस के पसीने छूटने लगते!!


आरती की मुश्किलें तब ज़्यादा बढ़ गई, जब आठवीं कक्षा की एक स्टूडेंट क्लारा ने एक दिन उसके साथ बदतमीज़ी की। बात वही नहीं रूकी, वह हर बार मौका मिलते ही आरती को नीचा दिखाने लगती। एक बार तो उसने उसे ऐसे अपशब्द कहें जिसे सुन आरती सहम गई। इतनी कम उम्र में ऐसा बर्ताव, ऐसी भाषा, उसका तो सोच सोचकर ही मन घबरा उठता था!!

कई दिनों तक वह स्कूल में अच्छे से पढ़ा नहीं सकी, क्यूँ की क्लारा ठीक उस के सामने बैठ कर तरह तरह के मुंह बनाती रहती थी। नफ़रत भरी नज़रों से उसकी ओर देखती रहती थी। कई बार उसको देख कर आरती का मन करता था कि एक झन्नाटेदार तमाचा उस के गाल पर रसीद कर दे पर मन मसोस कर रह जाती थी।


एक दिन मौक़ा पाते ही उसने क्लारा को अपने रूम में बुलाया और उससे उसके इस रवैये कारण पूछा। क्लारा ने बिना किसी झिझक के एक ही पंक्ति में उसका उत्तर दे दिया, "ईश हासे इंडियानर(मुझे भारतीयों से नफ़रत है)"!! इतना कहकर वह दनदनाते कदमों से बाहर निकल गई।


उस दिन आरती सारा दिन यही सोचती रही कि आख़िर ऐसी क्या बात है जो क्लारा को भारतीय लोग पसंद नहीं!! इसके कई कारण हो सकते थे। कई असामाजिक तत्वों के द्वारा समय समय पर भारत की छवि को दूसरे देशों में खराब करने का प्रयास तो हमेशा ही होता रहा है। ऐसा ही कुछ शायद क्लारा ने भी सुना होगा या देखा होगा!!


उसके बाद ऐसे ही दो वर्ष बीत गए।

कुछ दिनों बाद आरती के पति आदित्य ने एक ख़ुशी की बात बताई। उनका प्रोमोशन हो गया था। ऐसे में आदित्य ने फैसला किया था कि वह अब फ्रैंकफर्ट में अपना ख़ुद का मकान खरीद लेंगे। आरती को भी इस फ़ैसले से कोई एतराज़ नहीं था। उसके जॉब में कुछ तनाव तो था, मगर बाकी सब ठीक ही था और आख़िर कब तक मेहनत की कमाई को दूसरों के घरों में लगाते रहेंगे!!


एक अच्छे से,छोटे से घर की तलाश शुरू हुई और जल्द ही उनकी वह तलाश पूरी भी हो गईं।

दो महीनों में ही आरती और आदित्य अपने नए घर में शिफ़्ट हो गये।

घर छोटा मगर सुंदर था। पूरे साजो सामान सहित बड़े ही कम ‘इंस्टालमेंट’ पर घर मिल गया था।


घर में आये हुए अभी दो ही दिन हुए थे कि आरती को पता चला, उसके ठीक साइड वाले घर में क्लारा अपनी माँ के साथ रहती थी। हैरत की बात तो यह थी कि क्लारा की माँ ने आरती से बहुत ही अच्छे से, गर्मजोशी से मुलाक़ात की, मगर क्लारा का मुंह आरती को देख उतर सा गया था।


अब क्लारा दसवीं कक्षा में थी। आरती को लगा था, समय के साथ साथ वह बदल जाएगी, मगर ऐसा नहीं हुआ। बल्कि वह और बदतमीज हो गई। अब तो आरती को यह अवहेलना स्कूल के साथ साथ घर के पास भी सुनने को मिलती। आरती ने ठान लिया था कि मौक़ा मिलते ही वह क्लारा के माँ से इस बारे में बात करेगी। मगर उसे यह मौक़ा मिला ही नहीं!!


अचानक एक दिन भारत से फोन आया। आदित्य के माँ की तबीयत ख़राब हो गई थी। जल्दी जल्दी में आरती और आदित्य दोनों भारत के लिए रवाना हो गए। दिल्ली पहुँचते ही उन्हें लेने आदित्य के बड़े भाई आ गए थे। उन दोनों को देख कुछ ही दिनों में आदित्य की माँ की तबीयत में सुधार आने लगा था। देखते देखते पंद्रह दिन बीत गए और उन दोनों का वापिस जर्मनी जाने का वक़्त आ गया। जाने से ठीक पाँच दिन पहले आरती कुछ शॉपिंग करने निकली थी। दिल्ली की गर्मी और ट्रैफिक ने उसे झुलसा दिया था, मगर वह भी क्या करती, सामान तो लेना ही था।


उसने अपनी गाड़ी को एक जगह पार्क किया और वह पैदल ही शॉप्स की तरफ़ बढ़ने लगी। अचानक रास्ते के बीचों बीच उसे बहुत भीड़ नज़र आई। शायद किसी का एक्सीडेंट हो गया था। उसने उत्सुकता वश भीड़ में से झाँककर देखना चाहा तो उसके तो जैसे होश ही उड़ गए।


खून से लथपथ क्लारा उसके सामने पड़ी थी। उसने भीड़ में से यह कहते हुए कि "हटिए आप सब लोग, मैं इसे जानती हूँ, मैं इसे जानती हूँ!!" अपने लिए रास्ता बनाया।


"क्लारा, क्लारा......वास पासिअर्ट??? (क्या हुआ)", कहते हुए उसने उसे अपनी बांहों में थाम लिया। फिर आरती ने इधर उधर देखा, उसके आश्चर्य की सीमा नहीं थी, क्यूँ की

क्लारा के साथ कोई नहीं था, कैसे और क्यों वह यहाँ भारत में अकेले आई थी?


मगर यह समय सवालों का नहीं था!! उसने भीड़ से मदद माँगी, क्लारा को उठाकर अपनी गाड़ी में रखवाया और हॉस्पिटल जाते हुए ही अपने पति आदित्य को फ़ोन कर सब बात बताई।


आदित्य भी जल्दी ही हॉस्पिटल पहुँच गए थे।

डॉक्टरों के मुताबिक़ क्लारा का काफी खून बह गया था और उसे खून की जरूरत थी!!

आरती ने झट से ख़ून देने की इच्छा ज़ाहिर की, मगर दुर्भाग्य से उसका ब्लड ग्रुप मेल न खाया। फिर आदित्य की जाँच हुई और ख़ून की डिमांड भी पूरी हो गई।


उस क्षण आरती को अपने पति पर गर्व महसूस हो रहा था। मगर अभी भी उसके मन में कई सवाल थे। आख़िर एक पंद्रह वर्षीय विदेशी लड़की दिल्ली जैसे शहर में अकेली क्या कर रही थी?? और वह भी तब जब उसे भारत और भारतीयों से सख्त नफ़रत थी?? फिर भारतीयों के लिए अपने मन में ढेरों कटुता भरे हुए वह यहाँ आखिर करने क्या आई थी? 


अब इन सारे सवालों के जवाब तो केवल और केवल क्लारा ही दे सकती थी, जो उस वक़्त बेहोश थी!! आरती और आदित्य ने हॉस्पिटल की सारी औपचारिकताएँ पूरी की। पुलिस केस भी दर्ज हुआ था। सब कुछ करके डॉक्टर को यह बताकर कि जैसे ही क्लारा को होश आता है, उन्हें खबर की जाए, वह दोनों अपने घर की ओर निकल गए थे।


दूसरे दिन जब क्लारा को होश आया तब आरती उस के सामने ही खड़ी थी। अब क्लारा के आश्चर्य का ठिकाना न था। उस के आंसुओं के आवेग को रोक पाना आरती के लिए भी मुश्किल हो रहा था।


फिर आरती ने उसे चुप कराते हुए अपने मन में उमड़े हर एक सवाल को पूछ ही लिया। क्लारा ने जो कुछ भी बताया वह आरती के लिए चौंकाने वाला ही था।


असल में क्लारा एक भारतीय पिता की बेटी थी। उसके पिता एक भारतीय थे। जिनका यहाँ दिल्ली में अपना एक भरापूरा परिवार था। क्लारा को इस बात का दुख था कि उसके जन्म के वक़्त ही उसके पिता हमेशा हमेशा के लिए उसकी माँ को और उसको जर्मनी में अकेला छोड़कर आ गए थे। क्लारा ने कई बार अपनी माँ से उनका पता मांगा था, ताकि वह उनसे कॉन्टैक्ट कर सकें, लेकिन उसकी माँ ने ऐसा नहीं किया। जब क्लारा को अचानक एक दिन उसके पिता का एड्रेस और नंबर पता चला तो वह घर से भागकर भारत चली आई थी, अपने पिता से मिलने!!


अब आरती को उसके हर एक सवाल का जवाब मिल गया था। उसे अब क्लारा से कोई शिक़ायत नहीं थी। बल्कि अब तो वह उसके कोमल मन को समझ चुकी थी।


आरती ने क्लारा से उसके पिता का नंबर लिया और उन्हें सूचित कर हॉस्पिटल बुलाया। अपने पिता को पहली बार देख क्लारा अपने जख्मों को भूल गयी थी। उसने हिचकियों भरी आवाज़ में कहा,"ईश वोल्टे डिश नूअ जेहन(मैं सिर्फ़ आपको देखना चाहती थी)!!"


एक बाप भी अपने वजूद को कैसे नकारता, उन्होंने भी अपनी बेटी को गले लगा लिया और उससे माफ़ी माँगी। वह दृश्य देख आरती की आँखों से ख़ुशी के आँसू बहने लगे!!


दो दिन बाद क्लारा को हॉस्पिटल से छुट्टी मिल गई। क्लारा के पिता चाहते हुए भी उसे अपने घर नहीं ले जा सकते थे। इसीलिए आरती उसे अपने साथ अपने घर ले गई। पिता ने फिर मिलने का वादा किया और वह लौट गए। मगर आरती ने क्लारा का साथ नहीं छोड़ा। उसने आदित्य से कहकर क्लारा की भी टिकट बुक करवाई।


क्लारा को भी अपनी गलती का एहसास हो चुका था कि पिछले दो वर्षों में उसने कितनी बार आरती का अपमान किया था, मगर आरती ने उसके साथ जो अच्छा व्यवहार किया था,उसके लिए उसके पास शब्द ही नहीं थे। जब उसने आरती से माफ़ी माँगते हुए पूछा कि आख़िर क्यूँ उसने उसकी मदद की तो, आरती ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया," यह सब मुझसे मेरे भारतीय संस्कारों ने करवाया है। हम "वसुधैव कुटुम्बकम्" इस बात को मानते है। इसका मतलब है, सारी धरती ही मेरा परिवार है। फिर मैं अपने ही परिवार के सदस्य की मदद क्यूँ नहीं करती भला!!"...


आरती की बात सुन क्लारा ने उसे गले लगा लिया। उन दोनों के बीच अब गुरू-शिष्य का रिश्ता नहीं बल्कि अनोखा ही रिश्ता बन गया था,जो रिश्ता था,प्यार का....दोस्ती का....अपनेपन का...


समाप्त....



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