"बगरयो बसंत "

"बगरयो बसंत "

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कुछ दिनों से दिमाग अजीब ऊहापोह में फँसा हुआ है...चहुँ ओर चर्चा है कि बसंत आ गया है...मैं खिड़की खोल कर...आंगन में टहल कर...सड़को पर पदयात्रा कर ढ़ूढ़ रही हूं ...कि हे सखि...बताओ...कहाँ है बसंत....?

धूप में हल्की सी धमक बढ़ी है...पर हर शाम ठंडी हवाओं की ठिठुरन है....कभी-कभी ऐसे बादल छा जाते हैं कि लगता है कि कहीं यह बरसात का मौसम तो नहीं...फूल भी संदेह कर रहे हैं कि खिलने का मौसम है भी या नहीं...।

पीले पत्ते भी असमंजस में हैं कि अभी झड़ू या कभी झड़ू ?

कवियों की कल्पना का न केली(क्रीड़ा) है...कलीयन को कुछ समझ आ नहीं रहा...बनन बागन अधिकांशतः कट गये हैं। उपवन उजाड़ पड़े हैं...तो आखिर यह बसंत है कहां.... समझ यही आ रहा है कि कवि की कविताओं की सुंदर शब्दावली में कैद है...💐अरे..बस बसंत वहीं है। वहीं कामदेव का धनुष बाण का संधान है....रति का नृत्य और गान है।

मन का मचान है....बसंत आज कल्पनाओं की उड़ान है। न साज है...न सिंगार है...न उमंग की

छलांग है।

फिर दिल की हाय पूछती है कि आखिर कहाँ बगरयो बसंत है...प्रतिध्वनि कहती है कि जब भी मन में हर्ष की तरंग हो...तब ही बसंत है। सूखे पत्तों की कड़कड़ भी तब लागे संगीत का सरगम है।


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