उफ ये बच्चे भी न

उफ ये बच्चे भी न

3 mins
359


आज अपने चार वर्षीय पोते आयांश मिश्रा जी से संबंधित एक किस्सा आप सभी के साथ बाँटना चाहती हूं... इससे बच्चों के मनोविज्ञान को समझने और उनसे निपटने के तरीकों में मदद अवश्य मिलेगा।

किस्सागोई में किस्सा कुछ यूं है कि आयांश मिश्रा जी बड़े ही गुस्सैल प्रवृत्ति के प्राणी बनने वाले हैं...यह संपूर्ण रूप से दृष्टिगत हो रहा है.... 

यूं तो सभी बच्चों की प्रकृति ऐसी ही सामान्य होती है कि कुछ मन के अनुकूल न हो तो वह रो-धो कर अपनी बात मनवाना जानता है...वह जमीन पर लोट-लोटकर अपनी जिद प्रर्दशित करता है और ऐन-केन प्रकारेण अपनी

बात मनवा ही लेता है...यहाँ माता-पिता भी समर्पण कर ही देते हैं। यह सोचकर कि आगे थोड़ा बड़े होने पर सही-गलत समझा लेंगे पर यह आगे संभव नहीं हो पाता है।

 एक उच्च व्यक्तित्व के निर्माण के बीज बचपन में ही पड़तें हैं। यह सतत् प्रक्रिया से ही संभव है।

किस्सा कुछ यूँ है कि आयांश मिश्रा मोबाइल के लिए जिद कर रहे थे....वह डेढ़ घंटे से अपनी माँ का मोबाइल वीडियो गेम देखने के लिए कब्जाए हुए थे और देना नहीं चाहते थे...यह नाजायज जिद थी जो हम पूरा नहीं करना चाहते थे...उनकी माँ ने मोबाइल छीन लिया था सो वह रोते-रोते अपनी माँ के पीछे-पीछे घूम रहे थे।

 उनकी माँ आगे-आगे तो वह पीछे-पीछे और जब हमारे छोटे से किचन गार्डन के पास पहुंचे तो जाने उनके मन में किस तरह की भावना आई कि नींबू के कटीले झाड़ की तरफ की तरफ इशारा करते हुए बोले...मम्मी... मोबाइल दे दो...नईं तो मैं इसके कंतीले डंडे से अपने को माल लूंदा...

उसकी मां यानी मेरी बहू सन्न रह गई और उसने अंश की बात को अनसुना कर टालते हुए सीधे घर के अंदर आ गई.... तत्क्षण उसने यह बात मुझे बताया...फिर कहा कि मैंनें अंश की बात नजरअंदाज तो कर दिया पर आगे के लिए डर लग रहा है...कैसे साढ़े तीन साल का बच्चा इस तरह ब्लैकमेल कर सकता है। 

मैंने उससे कहा कि मुझे तुरंत बुलाना था तो वहीं सबक दे देती...खैर थोड़ी देर के बाद अंश सब कुछ भूल-भालकर अपने-आप अंदर आये और अपनी माँ के गोद में लेट गए।

चूकिं मैं सामने ही बैठी थी....सो मैंनें कहा कि लक्ष्मी... अंश बाहर तुमसे क्या कह रहा था...मेरी बहू ने अंश की कही बात को हूबहू दुहराया तो मैंनें अपनी बहू को डांटते हुए कहा कि फिर तुमने वह डगाल काट कर इसके हाथ में क्यों नहीं थमाया... तुमसे अगर आगे कभी ऐसा न हो पाए तो मुझे आवाज दे दिया करो...अंश अपने को स्वयं क्यों मारेगा...मैं ही उसी कंटीले झाड़ को तोड़करउसी से अंश को कम से कम बीस बार मारती ताकि बिना तोड़ने का कष्ट उठाए उसे पता चल जाता कि कंटीले झाड़ की मार कितनी दुखदाई होती है।

अंश अपनी माँ की गोद में आंख बंद कर दुबके हुए सारी बातों को सुन-समझ रहे थे बिना यह जताए कि वह सुन भी रहे थे....पर बीच-बीच में आंख खोलकर देख भी लेते थे...और समझा रहे थे कि वह तो सो चुके हैं...हम सब भी समझ रहे थे कि वह कितना सोये हुए हैं।

वह दिन और आज का दिन.... अंश ने दुबारा खुद को माल लूंदा...कब्बी नईं कहा....

यह सबक मैंने अपने जीवन में स्वयं से ही सीखा है कि जब आपके बच्चे हर बात में हां करवाने के आदि हो जाते हैं तो बडे होकर भी वह आपकी बात मानते नहीं... अपनी बात मनवाते हैं...बालकपन में रो-धोकर...बड़े होकर अपने मनोनुकूल तर्क गढ़कर....

मैंनें भी अपने बच्चों की हर बात मानी थी...और आज भी वह हर बात मनवा ही लेते हैं...। मेरी तो न तब चली थी और न अब भी चलती है। सबक तो मैंनें भी पढ़ ही लिया है।

दूध का जला तो छाछ भी फु़ंककर ही पीता है... सो श्रीमान अयांश मिश्रा जी... आप अगर डाल-डाल तो आपकी दादी पात्-पात्...हां नहीं तो...


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama