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Sadhana Mishra samishra

Others

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Sadhana Mishra samishra

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सत्य या भ्रम

सत्य या भ्रम

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मेरी पर दादी, और कुल का आधा परिवार गाँव में रहते थे। और यहाँ कस्बे में मेरे दादी...दादाजी, भाई, बहनों के साथ मेरे पिताजी रहते थे और पढ़ाई के साथ ही मेरे पिताजी नौकरी भी करते थे। साथ ही साथ अपनी पढ़ाई भी पूरी कर रहे थे। उस वक्त उनकी उम्र महज अठारह साल की थी। 

यह वह जमाना था जब घर का बड़ा बेटा असमय ही बड़ा हो जाता था और पिता की जिम्मेदारियों को निभाने का दायित्व उनके कंधों पर पड़ ही जाता था। 


एक दिन सुबह चार बजे उन्होंने सपने में अपनी पर दादी को बड़े दीन-हीन दशा में देखा और यह कहते हुए सुना कि राम नारायण जल्दी से गाँव आ जाओ, वरना मैं तुम्हें कभी दिखाई नहीं दूंगी ।पिताजी समझ ही नहीं पाये कि यह सपना था या यथार्थ ? पर वे अपनी दादी के बड़े लाड़ले पोते थे। उन्होंने निर्णय लेने में पल भर की भी देरी नही लगायी। दिन भर में सफर का इंतज़ाम किया, और शाम की ट्रेन पकड़ ली। उन दिनों इलाहाबाद पहुँचने में तीन दिन लगता था। क्योंकि सीधा रूट नहीं था। दो तीन जगह गाड़ी बदलनी पड़ती थी। बिलासपुर से कटनी, कटनी से दूसरी ट्रेन से इलाहाबाद, इलाहाबाद में फिर दूसरी ट्रेन से जंगीगंज स्टेशन, फिर तीन कोस पैदल चलकर मेरे पैतृक गाँव भरद्वार ।


जब पिताजी जंगीगंज स्टेशन पहुंचे तो शाम के सात बजे थे। लालटेन और ढिबरी ही रात में रौशनी के साधन थे। उस समय गाँव में बिजली की सुविधा तो थी नहीं। सो शाम ढलते ही सभी जगह सुन सन्नाटा हो जाता था। बस गनीमत इस बात की थी कि शुक्ल पक्ष की रात थी। सो चांदनी में आसानी से मार्ग देख सकते थे। पिताजी स्टेशन से बाहर आये, और गाँव के लिए पैदल चलने लगे।बैलगाड़ी,या तांगा जैसी कोई सुविधा रात के इस बेला में मिलने से रहा। घर में किसी को खबर भी नहीं थी कि वो आ रहे हैं। फोन या मोबाइल का जमाना वह था नहीं, तार या चिट्ठी के जरिए ही संदेश भेजा जाता था। समय इतना नहीं था कि वे तार के द्वारा संदेश भेज देते। वे तो आकस्मिक ही आये थे। किसी को भी कोई पूर्व सूचना नहीं था।


पिताजी बस थोड़ा ही आगे बढ़े थे कि उन्हें अपने ही गाँव के हरखू हरवाह दिखाई पड़े। हरखू हरवाह ने भी पिताजी को देखा और लपक कर पिताजी की तरफ आये और बड़ी खुशी के साथ बोले...अरे नारायण बिटवा तू इहां अकेले, बाबा कहाँ है।

पिताजी भी उन्हें देखकर बहुत प्रसन्न हो गये और पूछा... अरे काका, तू इहां कैसे, इतनी रात में ?

हमहीं भर आईल ह, बाबा त नांही आये है...

हमहीं अकेले आईल बाणी। और तू कहा काका, सब नीक सुख ?

हाँ बेटा,सब नीक सुख... 

इतनी रात में काका, इहां कैसे ? 

अरे बिटवा, नींद नाहीं आवत रही तो सोचा तनिक टहर आईं... 

चला बिटवा, एतनी अंधियारी रात में तू अकेल हौं....तुहौं के घर तक छोड़ देईं...

पिताजी मन ही मन खुश हो गए। उन्हें तो खुद बहुत डर लग रहा था।

एक तो रात, सूनसान रास्ता, आवारा कुत्तों का डर, जंगली जानवरों का डर, उनके तो जान में जान आ गयी । और रास्ता भी ढाई तीन कोस का।

फिर वे दोनों बतियाते हुए चलने लगे। हरखू काका लाठी ठोंकते हुए... खैनी खाते हुए... बतियाते-बतियाते... दुनिया भर की बातें...साथ साथ चलते रहे।

दो घंटे में वे दोनों गाँव पहुँच गए। पिताजी को घर के दरवाजे पर छोड़कर हरखू काका जाने लगे। पिताजी ने बहुत कहा रूकने के लिए...पर हरखू काका बोले...नाहीं बेटवा... 

हमार काम ख़तम, अब हम जाइब... और वे चले गये।


पिताजी ने दरवाज़ा खटखटाया। सारा परिवार भौचक, कौन आया आधी रात में...खैर सभी पहचाने और बाहर निकले।

सभी आश्चर्य चकित थे कि अचानक बिना किसी संदेश के अचानक आना कैसे हुआ। खैर, पिताजी हाथ मुंह धोकर बैठे। चाय पानी पिये। फिर बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। दादी वाकई बहुत बीमार थीं। पिताजी ने बताया कि उन्हें कैसा सपना दिखा और लगा कि दादी बुला रहीं हैं।

और वे कैसे आननफानन मे ट्रेन पकड़ लिये। मेरे परदादा जी पिताजी को डांटने लगे कि बिना खबर नहीं आना चाहिए था।

क्योंकि रात में ट्रेन पहुँचती है। तीन कोस पैदल आना पड़ता है। सूनसान रास्ता है, कहीं कुछ हो जाता तो? खबर होती तो स्टेशन से लेने तो आते।

पिताजी बोले... नहीं बाबा, कोई परेशानी नहीं हुई।

हरखू काका स्टेशन के बाहर ही मिल गये थे, और दरवाज़े तक छोड़ कर गये हैं।

बाबा भौचक्का रह गये... बोले...क्या कह रहा है नारायण, कौन मिल गया था ? 

तुझे कोई भ्रम तो नहीं हो रहा है, कोई और ही रहा होगा? हरखू कैसे हो सकता है ? 

पिताजी बोले...बाबा, मुझे कोई भ्रम नहीं हुआ है। वो हरखू काका ही थे... पूरे रास्ते वे खैनी खाते, बोलते बतियाते हुए आये हैं। बस दरवाज़े से ही लौट गए... बहुत रोका पर रूके नहीं।


बाबा अचानक बोल गए ...ऐसा हो ही नहीं सकता है। हरखू को तो मरे भी छः महीने बीत चुका है ?

इतना सुनना था कि पिताजी बेहोश !!

फिर इसी वे सदमे में छः महीने बीमार रहे। मन में समाए भय को काबू करने में बहुत दिन लग गए। 

उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि छः माह पहले का कोई मरा हुआ व्यक्ति कैसे साधारण मनुष्य की भांति लाठी ठकठकाते...खैनी मलकर खाते... बोलते-बतियाते लगभग तीन कोस का रास्ता काट गया। 

सपने के कथन को सत्य साबित करते हुए हमारी परदादी भी तीसरे दिन स्वर्गीय हो गईं।



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